सुव्यवस्थित जीवन शैली वास्तविक अध्यात्म

June 1994

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कूड़े को भी यदि यथास्थान सुरुचिपूर्ण ढंग से दाब-ढक रख दिया जाय तो वह बुरा न लगेगा । इसके विपरीत यदि तस्वीरें, फूल गुलदस्ते आदि सुँदर वस्तुएँ भी अस्त-व्यस्त क्रम से फैला दी जायं तो वे गंदगी मात्र बनकर रह जायेंगी । चतुर माली अपने बगीचे में बाढ़ के लिए लगाई गई झाड़ियों को भी इस तरह काटते-छाँटते हैं कि वे मनमोहक लगने लगती हैं । इसके विपरीत यदि गुलाब के पौधों की डालियाँ भी छितरी-बिखरी रहें तो वे कुरूप झाड़ियों जैसी दिखाई पड़ेगी । काला-कलूटा मनुष्य भी यदि अपने बाल, वस्त्र, रहन, सहन, को ठीक ढंग से रखता है तो वह सुँदर प्रतीत होता है । किंतु यदि गोरा-चिट्टा, प्राकृतिक बनावट का सुँदर होते हुए भी नाक,आँख आदि में मल भरे है, बेतुके बाल और बेसिलसिले मैले-कुचैले कपड़े पहने है तो उस व्यवस्थित काले-कलूटे मनुष्य की तुलना में कुरूप दिखाई देगा ।

प्रकृति ने किस वस्तु को कैसी सुन्दर-असुन्दर बनाया है, यह अपने हाथ की बात नहीं । किंतु इतना मनुष्य के हाथ में भी है कि वह अपनी कला-कुशलता, व्यवस्था बुद्धि का समावेश करके कुरूप लगने वाली वस्तुओं को भी सुन्दर बना दे और फूहड़पन के द्वारा सुन्दर वस्तुओं को भी कुरूप और कुरुचि पूर्ण बना दे । कुछ समय पूर्व जो जमीन खार-खड्डों वाली, ऊबड़-खाबड़, भद्दी, भोंड़ी दिखाई पड़ती थी, व्यवस्थित होने पर बड़ी सुरम्य उद्यान बनकर जीवंत तस्वीर जैसी मनोहर, मनोरम दिखाई देने लगती है । इस अद्भुत परिवर्तन का एक मात्र कारण मनुष्य की व्यवस्था बुद्धि है, जिसके साथ श्रम को जोड़कर प्रयुक्त किया जाय तो कहीं भी सुन्दरता का सृजन किया जा सकता है । जहाँ इस कौशल का अभाव होगा वहाँ बहुमूल्य वस्तुएँ भी कुरुचिपूर्ण गंदगी बनकर कचरे की तरह जहाँ-तहाँ अशोभनीय स्थिति में पड़ी होगी । प्राकृतिक सौंदर्य का कोई अस्तित्व नहीं, ऐसा तो नहीं कहना चाहिए ,पर व्यवहार को कसौटी पर कसा जाय तो प्रतीत होगा कि जितनी भी सुन्दरता अपने इर्द-गिर्द प्रस्तुत है उसमें से अधिकाँश को मनुष्य की कुशल व्यवस्था ने ही पैदा किया है ।

सच कहें तो सौंदर्य और व्यवस्था एक ही प्रक्रिया के दो रूप हैं । कला को सौंदर्यत्पादक कहा जाता है । पर यह कला सुरुचिपूर्ण व्यवस्था बुद्धि के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । सामान्यतया चित्रकला, मूर्तिकला , साहित्य, कविता, गायन, वाद्य, नृत्य आदि के माध्यम से किसी कलाकार की कला की अभिव्यक्ति होती है । यह तो कला का प्रतिफल हुआ । पर वह वस्तुतः है क्या ? इस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यही स्पष्ट होगा कि यह पदार्थों को एवं क्षमताओं को व्यवस्थापूर्वक क्रम बद्ध कर देने भर की कुशलता है इसी को कला कहते हैं ।

कागज का टुकड़ा, कई तरह के रंग, पतले से ब्रुश इतनी सी नगण्य लगने वाली सामग्री को कहाँ किस क्रम, कितनी कुशलता से कहाँ नियोजित किया जाय कि उसमें से अमुक छवि या अमुक भाव प्रकट होने लगे । इस प्रक्रिया को जिसने ठीक तरह सँजो लिया उसे चित्रकार कहते हैं । बहुमूल्य चित्रों की कीमत उनमें लगे कागज या रंगों के आधार पर नहीं दी जाती, बल्कि उस व्यवस्था बुद्धि की प्रखरता को परखा जाता है जिसने तुलिका के सहारे निर्जीव कागज को जीवंत कलाकृति के रूप में प्रस्तुत करके रख दिया । यही बात मूर्तिकला के संबंध में है । एक पत्थर का टुकड़ा-छोटे-छोटे छैनी-हथौड़ी, रेती जैसे उपकरण बस उन्हीं नगण्य सी वस्तुओं के सहारे वह ऐसी बहुमूल्य प्रतिमा गढ़ देता है कि उसे देख-देख कर दर्शन का मन हुलसने लगती है । इस दर्शनीय प्रतिमा का मूल्याँकन पत्थर या श्रम के घंटों का लेख-जोखा लेकर नहीं हो सकता, गढ़ने वाले की तन्मयता एवं सौंदर्य परख की सूक्ष्म क्षमता ही बेजान पत्थर में जान डाल देती है । जड़ पत्थर में भावाभिव्यक्ति का जो निर्झर झरता है वह और कुछ नहीं मूर्तिकार का संवेदनात्मक सौंदर्य ही है ।

क्या है साहित्य कला ? शब्द कोष के जंगल में बिखरी हुई वनस्पतियों का तोरण, वंदनवार, गुलदस्ते, गजरे और पुष्पहारों के रूप में कलाकृति बनाकर प्रस्तुत करना ही है । लकड़ी की लेखनी को, भगवती सरस्वती कौन बनाता है ? साहित्यकार का भावाभिव्यक्ति कौशल । इसे शब्दों का सुरुचिपूर्ण कथन भी कह सकते हैं । वस्तुतः यह क्रमागत शब्द व्यवस्था ही साहित्यकार की कला है । कविता में यही तत्व छन्द-बद्ध होकर प्रस्फुटित होता है । इसमें शब्दों को लयबद्ध, तालबद्ध, भावबद्ध करने में और भी प्रवीणता दिखाई पड़ती है ।

हम संगीत की सोचें-तो यह कंठ के ध्वनि प्रवाह को बहुरंगी फव्वारे की तरह तंजुल-मनोरम बनाना है । कंठ से ध्वनि तो सभी के निकलती है, पर वह अस्त-व्यस्त होती है । गायक अपनी सूक्ष्म बुद्धि से उसे स्वरों में विभाजित करता है । और फिर उसके उतार-चढ़ाव समाविष्ट करके मर्मस्पर्शी गीत अलापता है । वरदान क्या है ? अनगढ़ उपकरण पर वादक की उँगलियाँ, थपकियाँ उस पर एक विशिष्ट क्रम से थिरकती हैं और इतने भर से नस-नाड़ियों का झंकृत करने वाला संगीत बजने लगता है । यही तथ्य अभिनय के संदर्भ में भी है । हाथ-पैर की उँगलियाँ, कमर, गर्दन, कंधे, नेत्र, मुख आदि सामान्य काय अवयवों का इस प्रकार स्पन्दित होना जिसमें नर्तक की भाव मुद्रा उभरे और दर्शकों के मन मयूर को अपने साथ-साथ नाचने के लिए बाधित कर दे। दूसरे शब्दों में नृत्य-अभिनव में प्रयुक्त होने वाले अवयवों की हलचलों को एक विशिष्ट भाव प्रवाह के अनुरूप गतिशील रहने की व्यवस्था । स्पष्ट है कि इस व्यवस्था का दूसरा नाम ही कला है । अपने कला का निष्णात व्यवस्थापक ही उस क्षेत्र का कलाकार कहा जायगा ।

व्यापार, उद्योग, कृषि, पशुपालन, शिल्प आदि जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो ? हर कहीं व्यवस्था बुद्धि की अपेक्षा रहती है । कोई काम छोटा हो या बड़ा सफल तभी होगा जब उसे पूरी सतर्कता और मुस्तैदी के साथ किया जायगा । लापरवाही और गैर जिम्मेदारी बरतने से लाभदायक काम भी हानिकारक बन जाते हैं । किसी कार्य में कुछ लोग सफल होते हैं, कुछ असफल । इसमें कभी-कभी तो परिस्थितियाँ भी कारण होती हैं । पर अधिकतर कार्य की सजग-सुव्यवस्था का होना न होना ही सफलता-असफलता का प्रधान कारण होता है । जो बच्चे अनुत्तीर्ण होते हैं, उनमें से मंद बुद्धि तो बहुत थोड़े होते हैं, अधिकाँश में लापरवाही ही भरी होती है । समय पर मनोयोगपूर्वक पढ़ना उनसे नहीं बन पड़ता । मनमौजी बने घूमते हैं । जब जी हुआ पढ़े, जब मन न हुआ न पढ़े । दौड़ में तेज दौड़ने वाले खरगोश को हराकर धीमे चलने वाला कछुआ बाजी जीत गया है । इसका एक ही कारण था खरगोश जहाँ बैठा, वहाँ सुस्ताया, जहाँ रुका वहाँ उछला और बेढंगी चाल चलता रहा । किंतु कछुआ बढ़ता और उत्साहपूर्वक अनवरत चलता ही रहा और खरगोश से पहले नियत स्थान पर पहुँच गया । प्रकृति ने कछुए को मंद, और खरगोश को तेज गति प्रदान की है । पर उन लोगों ने अपनी समझ के अनुसार मंदता को तेज जितनी लाभदायक बना दिया और तेजी को निरर्थक गवाँ दिया ।

किसके पास प्रकृति प्रदत्त कितनी है, यह प्रश्न गौण है । मूल बात यह है कि वह जितनी भी है,क्या उसका सदुपयोग करने पर ध्यान दिया गया है ? प्रयत्न करने पर, सतर्कता बरतने पर, उत्साह पूर्वक काम में रुचि लेने पर-सामान्य स्तर का मनुष्य भी क्रिया-कुशल बन सकता है और उसे निरंतर विकसित करता रह सकता है। ऐसे उदाहरण सर्वत्र भरे पड़े हैं, जिनमें मंदमति समझे जाने वाले मनुष्यों ने निरंतर सतर्कता बरतने की आदत परिपक्व करके अपने को प्रखर प्रतिभाशाली बनाया है उनकी असावधानी की बुरी आदत जब सतर्कता, सुव्यवस्था और सुरुचि में बदली तो सारा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो गया । आरंभिक दिनों का बुद्धूपन न जाने कहाँ चला गया और उसके स्थान पर न जाने कौन समझदारी का मुकुट पहना गया ? वस्तुतः यह किसी अन्य का अभिशाप वरदान नहीं है । अपनी निज की अव्यवस्था और व्यवस्था के ही प्रतिफल हैं । जो दो मनुष्यों की प्रायः एक जैसी स्थिति होते हुए भी उनके व्यक्तित्व में जमीन-आसमान जैसा अंतर उत्पन्न हो जाता है ।

अपनी व्यवस्था बुद्धि को विकसित करने में यदि तत्परता बरती जाय तो अपनी प्रतिभा चेहरे पर तत्काल दिखाई देने लगेगी । आलसी, अनुत्साही मनुष्य के चेहरे पर मुर्दनी छायी रहती है, लगता है कि कब्रिस्तान में से खोद कर निकाला है । नीची आँखें, रोती सूरत,

अनिश्चितता और आशंका व्यक्त करने वाली रेखाएँ, न हिलने वाले अचल होठ, अनुत्साह जन्य जड़ता को देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि उसे रोना-कोसना आता हो तो आता हो -हँसना और हँसाना इसके भाग्य में नहीं है । उदीयमान व्यक्तित्व सदा उमंग भरे रहते हैं । उनमें भरपूर उत्साह देखा जाता है । इस आँतरिक तेजस्विता के कारण उनके हाथ, पैर काम करने के लिए मचलते रहते हैं । निःचेष्ट बैठे-बैठे समय गँवाना ही उन्हें बहुत भारी पड़ता है ।

यह व्यवस्थित जीवन शैली किसी चमत्कारी कायाकल्प के बारे में बहुत कुछ पढ़ने-सुनने को मिलता-रहता है। बूढ़ों के जवान बनने, अपंगों के क्रियाशील होने और मुर्दों के जी पड़ने की कितनी ही किंवदंतियां सुनने को मिलती रहती हैं । पर यह तथ्य निश्चित रूप से सत्य है जिसने अपनी शारीरिक, मानसिक जड़ता को मार भगाया-स्वयं की सामर्थ्य को व्यवस्थित करने की आदत डाली उसकी तेजस्विता आँखों से, चेहरे से और शरीर के अंग-प्रत्यंग से चमकने लगी । व्यक्तित्व में समायी अनेकानेक शक्तियाँ जागने लगी । उसके हाथ-पैर नर्तकों की तरह स्फूर्तिवान रहने लगे । मस्तिष्क की प्रखरता इस तेजी से बढ़ी कि वह साथियों को योजनों पीछे छोड़कर दूरदर्शी बुद्धिमानों की अग्रिम पंक्ति में जा बैठा । इस प्रखर प्रगतिशीलता का उपहार किसे मिला है ? इसकी परीक्षा एक ही बात से हो सकती है कि उसकी एवं कितनी व्यावहारिक बन चुकी है ।


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