धारावाहिक विशेष लेखमाला-25 ,गायत्री जयंती पुण्यतिथि पर विशेष - परमपूज्य गुरुदेव पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य

June 1994

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गायत्री रूपी वटवृक्ष जिनकी ब्राह्मणत्व रूपी उर्वर भूमि में फलित हुआ

परमपूज्य गुरुदेव का महाप्रयाण आज से चार वर्ष पूर्व इन्हीं दिनों गायत्री जयंती के दिन हुआ था, जब उनने अस्सी वर्ष जिये गये अपने जीवन के दृश्य रूप को समेटकर स्थूल-दृश्य काया के बंधनों से मुक्त हो स्वयं को उस महा विराट से जोड़ लिया था, जिसका दिग्दर्शन उन्हीं की सूक्ष्म व कारण सत्ता के रूप में आज सभी को हो रहा है। सोलहवें चित्रकूट अश्वमेध यज्ञ के समापन वेला में लिख जा रहे इस विशेष लेख में पूज्यवर के ब्राह्मण रूप में जिये गये जीवन के विशिष्ट क्षणों के माध्यम से ब्राह्मणत्व की वह चिंतन परक व्याख्या है, जो आज समाज में तथा कथित बुद्धि जीवियों-जातिवाद को संदेह भरी राजनीति करने वाले क्षुद्रमना व्यक्तियों की जिव्हा पर विराजमान है। ब्राह्मण क्या है? कैसा होता है? कैसे हर कोई बन सकता है ? उसका दार्शनिक विवेचन इस पूर्वार्ध में पढ़ें। उत्तरार्ध में हम उनके जीवन के व्यावहारिक पहलुओं का ब्राह्मणत्व के परिप्रेक्ष्य में वह दिग्दर्शन करायेंगे, जो हम सबने इन्हीं चर्मचक्षुओं से देखा है।

जड़ें जमीन में न हों, उसे पेड़ की कल्पना करना कठिन है। ठीक इसी तरह ब्राह्मणत्व ही वह आधार है वह आधार वह उर्वर भूमि है जिसकी गोद में गायत्री का वह बीज अपनी चमत्कारी परिणति प्रस्तुत करता है। परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में हम सबने गायत्री महाशक्ति की जिन आश्चर्यजनक शक्तियों को देखा, जाना, अनुभव किया, लाभान्वित हुए, इसके रहस्य का खुलासा करते हुए उन्हीं के शब्द हैं-”हमारा जीवन प्रयोग प्रत्यक्ष है। हमने सारे जीवन ब्राह्मण बनने की साधना की। इसके लिए पल-पल तपे, इंच-इंच बढ़े। जिंदगी में यज्ञोपवीत संस्कार का वह क्षण कभी नहीं भूला जब महामना मदनमोहन मालवीय ने गायत्री महामंत्र सुनाने के साथ ही कहा था-”गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है”। “ब्राह्मण जन्म से नहीं जीवन साधना से बना करते हैं। इस तथ्य को न समझने वाले छुटपुट पूजा पत्री करने और उलटी-पलटी माला खिसकाने के सहारे लंबे चौड़े स्वप्न देखते और विफल-मनोरथ, निराश, असफल बने रहते हैं।”

सामान्य क्रम में यह सत्य किसी को कबीरदास की उलटबांसी जैसा लग सकता है। हो भी क्यों न ? ब्राह्मण घर में जन्म लेने, ब्राह्मण कहलाने के बावजूद-ब्राह्मण बनने का उपदेश किस अनबूझ पहेली से कम है। इस उलझन को सुलझाते हुए उनके शब्द हैं- “ब्राह्मणत्व एक साधना है। मनुष्यता का सर्वोच्च सोपान है। इस साधना की ओर उन्मुख होने वाले क्षत्रिय विश्वामित्र और शूद्र ऐतरेय भी ब्राह्मण हो जाते हैं। साधना से विमुख होने पर ब्राह्मण कुमार अजामिल ओर धुँधकारी शूद्र हो गए। सही तो है जन्म से कोई कब ब्राह्मण हुआ। ब्राह्मण वह जो समाज से कम से कम लेकर उसे अधिकतम दे। स्वयं के तप, विचार और आदर्श जीवन के द्वारा अनेकों को सुपथ पर चलना सिखाये।”

इसे न समझ पाने के कारण बहुधा लोग भ्रमित होते रहते हैं। बहुत से इसका नाम सुनकर गर्वित हो उठते हैं। अपनी जाति-दंभ में फूल उठते हैं। अनेकों के चेहरों पर ‘ब्राह्मण’ शब्द तिरस्कार और उपेक्षा के भावों को घना कर देता है। किंतु इन ढेर सारे भावों का उद्दीपन सिर्फ गलत अवधारणा का परिणाम है। यदि अवधारणा सही होती तो वैदिक वाङ्मय के परिभाषित शब्दों का सम्यक् ज्ञान होने पर इन विवादों का कोई फेर न पड़ता। प्राच्य विद् आई0ए॰ रोजेट ने भी अपनी रचना ‘वैदिक इण्डिया’ में इस तथ्य को स्वीकारा है। उनके अनुसार यह शब्द जाति कुल, गोत्र, रूप, रंग, का द्योतक न होकर एक मनोवैज्ञानिक अवस्था का द्योतक है। यह विकसित व्यक्तित्व की विशेष अवस्था है। इसका ठीक-ठीक समानार्थी शब्द जब यहीं के प्राचीन अर्वाचीन चिंतन में नहीं है, तब पश्चिम की रीते कोश से कुछ आशा कराना व्यर्थ है।

वैसे भी पश्चिमी मनोविज्ञान ने ज्यादातर रोगियों की छान-बिन की है। बीमार, भग्न मानसिकता इन विचारकों के कार्य की सीमा रेखा बन गई। स्वस्थ लोगों के अभाव में उनकी सारी खोजें रोग अध्ययन पर आधारित हैं और एक स्वस्थ व्यक्ति निताँत अलग होता है अस्वस्थ व्यक्ति से। फ्रायड का कभी सामना नहीं पड़ा स्वस्थ व्यक्तित्व से। पड़ता भी क्यों ? सही सलामत आदमी को क्या गरज पड़ी है वैद्य डाक्टरों के पास जाने की। इसी कारण उसने समूचे व्यक्तित्व को मुख, गुदा, लिंग प्रधान, काम प्रसुप्ति एवं जननाँगीय अवस्थाओं में समेट दिया। यही हाल उस जैसे अनेकों का है। इनका विवेचन देखने से लगता है जैसे आदमी के जीवन में कामुकता के सिवाय ओर कुछ बचा ही नहीं। लेकिन इस सिद्धाँत रचना में उसकी गलती भी क्या ? यदि मानसिक रूप से बीमार न हो तो उसे मनःचिकित्सक के पास जाने की क्यों सूझेगी ? यही कारण है, फ्रायड, एडलर, जैनेव इन सभी ने अपने सिद्धाँतों की इमारत बीमार मन की जमीन पर खड़ी की।

समग्रता के परिप्रेक्ष्य में देखने पर समूचा व्यक्तित्व-परक अध्ययन तीन वर्गों में बँटा दीखता है। एक रोगात्मक, सारा पश्चिमी अध्ययन इसी खाँचे में समा जाता है। केवल अभी-अभी इधर कुछ संपूर्ण धारणाएं मजबूती पकड़ती जा रही हैं, जो कि स्वस्थ व्यक्ति के बारे में सोचती हैं। लेकिन वे एकदम आरंभ पर ही हैं। पहले कदम भी नहीं उठाये गये। दूसरे प्रकार के अध्ययन वे जो स्वस्थ व्यक्ति के बारे में सोचते हैं। स्वास्थ्य पर मन आधारित हैं। ये हैं पूरब के मनोविज्ञान पर- बौद्ध, पतंजलि, जैन, सूफी-इन्होंने इस पर गहरी खोज की है। तरह-तरह की साधना प्रणालियों का विकास यहाँ देखने को मिलता है। विकासमान व्यक्तित्व तमाम सारी अतीन्द्रिय क्षमताओं की चर्चा यहाँ सुनने को मिलती है। कुल मिलाकर इनकी मदद व्यक्तित्व विकास की पूर्णता पाने के लिए है।

फिर एक तीसरा प्रकार है, जिसे गुरजिएफ ‘परम मनोविज्ञान’ कहता है। इसकी दशा अविकसित है। इसमें विकास की पूर्णता पाये हुए व्यक्तित्वों का अध्ययन करने की चेष्टा हैं। श्री अरविंद की पुस्तक ‘सीक्रेट ऑफ द वेद’ में वैदिक ऋषियों के इन्हीं प्रयासों पर संकेत है। उनका खुद का भी थोड़ा-बहुत प्रयास है। ब्राह्मणत्व की साधना के चरम शिखर पर पहुँचने वाला कैसा होगा ? यहीं पर उसकी एक झलक देखने को मिलती है।

स्वस्थ व्यक्तित्व की अगर बखूबी जाँच करें, उसकी विकास यात्रा के आरंभिक बिंदु की ओर देखें तो वह अवस्था है जड़ता की। एक तमस उनको घेरे रहता है। इस आवरण के कारण इनको न तो सोचने का मन करता है और न कुछ करने का। चिंतन और कर्म दोनों से विरति एक मात्र लक्षण है इनका। इसे तोड़ने आगे बढ़ने का उपाय सिर्फ एक है-कठोर श्रम। श्रम का कुठार ही इस तमस की कारा को तोड़ने में सक्षम है। इस ओर प्रयत्न करने का मतलब है ब्राह्मणत्व की ओर उन्मुख होना।श्रम होगा तो अर्जन होगा। फिर शुरुआत भले शरीर करे देर सबेर साथ तो मन को भी देना पड़ेगा। कर्म और चिंतन इन दोनों पैरों के बिना ब्राह्मणत्व की राह पर कैसे चला जा सकेगा। इस अर्जन की अवस्था में होता है रजस का जागरण। कामनाओं-इच्छाओं का उदय, अतृप्ति की जलन का अहसास इसी अवस्था की देन है। अर्जन का सदुपयोग अपने लिए नहीं औरों के लिए हो। इस भावना का उभार धीरे-धीरे व्यक्तित्व को उस धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ वह अनेकों को संरक्षण देने लगता है।

मनुष्य में कर्म, चिंतन और भाव तीनों का ही विकास ठीक-ठीक हो सके इसी विज्ञान विधान गायत्री मंत्र है। इसे ऋषियों द्वारा अन्वेषित ऐसी वैज्ञानिक पद्धति के रूप में जाना जा सकता है-जिसका प्रयोग मानवीय व्यक्तित्व में अंतर्निहित समस्त शक्तियों को जगा सके और उसे पूर्णता दे सके। इस तरह ब्राह्मणत्व गायत्री एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक की चाहत दूसरे का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती है। दूसरे का प्रयोग पहले की प्राप्ति कराता है।

आधुनिक युग में परम पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में इस गंभीर प्रयोग की सफल साधना की। निष्कर्ष में उन्होंने कहा-”गायत्री की तुलना अमृत, पारस और कल्पवृक्ष से की गई है। इसके तत्वज्ञान के संपर्क में आकर मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को-बल और महत्व को, पक्ष और प्रयोजन को ठीक तरह समझ लेता है। इस आस्था के आधार पर विनिर्मित कार्य-पद्धति अपनाने रहने पर वह ब्राह्मण बन जाता है भले ही लौकिक रूप में उसे सामान्य परिस्थितियों का जीवन जीना पड़े। ब्राह्मण की आस्थाएँ एवं विचारताएँ इतने ऊँचे स्तर की होती हैं उनके निवास स्थान अंतःकरण में अमृत का निर्झर झरने जैसा आनन्द हर घड़ी उपलब्ध होता रहता है।

गायत्री निःसंदेह पारसमणि है। जिसने उसे छुआ वह लोहे का सोना बन गया। गुण, कर्म और स्वभाव में महानता उत्कृष्टता उत्पन्न करना इसका प्रधान प्रतिफल है। जिसकी आँतरिक महानता विकसित होगी, उसकी बाह्य प्रतिभा का प्रखर होना प्रतिभा जहाँ कहीं भी होगी, वहाँ सफलताएँ और समृद्धियाँ हाथ बाँधे सामने खड़ी दिखाई देंगी। लघु को महान बनाने की सामर्थ्य ओर किसी में नहीं केवल अंतरंग की महत्ता गण, कर्म और स्वभाव की उत्कृष्टता में है। गायत्री का तत्त्वचिंतन उसी को उगाता बढ़ाता और सँवारता है। फल स्वरूप उसे पारस कहने में कोई आपत्ति नहीं। इसे पाकर अंतरंग ही हर्षोल्लास में निमग्न नहीं-रहता, बहिरंग जीवन भी स्वर्ण जैसी आभा से दीप्तिमान रहता है। इतिहास का पन्ना-पन्ना इस प्रतिपादन से भरा पड़ा है कि इस तत्वज्ञान को अपनाकर कितने कलुषित और कुरूप लौह खण्ड स्वर्ण जैसे बहुमूल्य, महान, अग्रणी एवं प्रकाशवान बनने में सफल हुए हैं।

कल्पना की ललक और लचक ही मानव जीवन का सबसे बड़ा आकर्षण है। कल्पना लोक में उड़ने-उड़ाने वाले ही कलाकार कहलाते हैं। सरसता नाम की जो अनुभूतियां हमें तरंगित, आकर्षित एवं उल्लसित करती रहती है, उनका निवास कल्पना क्षेत्र में ही है। भावनाओं में ही आनन्द का उद्गम है। आहार निद्रा से लेकर इंद्रिय-तृप्ति तक की सामान्य शारीरिक क्रियाएं भी मनोरम तब लगती हैं, जब उनके साथ सुव्यवस्थित भाव कल्पना का तारतम्य जुड़ा हो अन्यथा वे नीरस और भार रूप क्रियाकलाप बनकर रह जाती है। उच्च कल्पनाएँ अभावग्रस्त असमर्थ जीवन में भी आशाएँ और उमंगें संचारित करती रहती हैं। संसार में जितना शरीर संपर्क से उत्पन्न सुख है। उससे लाख-करोड़ गुना कल्पना, विचारणा एवं भावना पर अवलंबित है। इस दिव्य संस्थान को सुव्यवस्थित करने और परिस्थितियों के साथ ठीक तरह ताल-मेल बिठा लेने की अद्भुत सामर्थ्य गायत्री के साधनात्मक प्रयोगों से मिलती है। इसी लिए उसे कल्पवृक्ष कहते हैं।

पर गायत्री साधना के ये सभी लाभ जीवन में तभी मिलते हैं जब लक्ष्य ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हो अन्यथा यह समर्थ महामंत्र भी सामान्य कर्मकाण्ड बन कर रह जाता है। एक बार पारस्परिक चर्चा में पूज्य गुरुदेव ने ब्राह्मणत्व को स्पष्ट करते हुए कहा था “ब्राह्मण की सही माने में पूँजी तो विद्या और तप है-जो उसे गायत्री मंत्र की साधना से मिलती है। भौतिक सुविधाओं के मामले में तो उसे सर्वथा अपरिग्रही होना चाहिए।” फिर कुछ रुक कर थोथा रोप व्यक्त करते हुए बोले-”खेद है आज अपरिग्रह को दरिद्रता समझ लिया गया जबकि अपरिग्रह का मतलब है स्वयं पर विश्वास और ब्राह्मण का जीवन इसका उच्चादर्श है। जब मनुष्य का स्वयं पर, समाज पर और भगवान पर पूरी तरह विश्वास उठ जाता है तभी वह लालची होकर सुविधाएँ बटोरने लगता है।

ऐसे विश्वासी और उदार व्यक्तित्व जिस काल में बहुसंख्यक थे, उस समय को धरती का सतयुग माना गया। श्रीमद् भागवत के ग्यारहवें स्कंध के बारहवें अध्याय के दसवें श्लोक में साफ उल्लेख है कि सतयुग में सिर्फ एक वर्ण था, ब्राह्मण (हंस) तभी सतयुग का एक और नाम प्रचलित हुआ ब्राह्मण युग। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्तित्व की अन्य व्यवस्थाएँ नहीं थीं। बल्कि सभी लोग अपनी-अपनी अवस्था से इस ओर निष्ठ पूर्वक बढ़ रहे थे ब्राह्मणत्व की ओर जो निष्ठ पूर्वक बढ़े से ब्राह्मण जिस तरह ब्रह्मचर्य का साधक ब्रह्मचारी कहलाता है, उसी तरह ब्राह्मणत्व का साधक भी ब्राह्मण की संज्ञा से विभूषित होता है। अपनी इसी निष्ठ की बदौलत धीवर कन्या के पुत्र व्यास, दासीपुत्र सत्यकाम जाबाल ब्राह्मणत्व की चरमावस्था पा सके। आज के जमाने में भी कायस्थ घराने में जन्म लेने वाले श्री अरविंद स्वामी विवेकानन्द वैश्य कुल में जन्म लेने वाले गाँधी जैसे अनेकों है जिन्होंने अपने व्यक्तित्व विकास की साधना द्वारा ब्राह्मणत्व उपलब्ध किया। विदेशों में यह नाम भले न प्रचलित हो पर इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ ब्राह्मण नहीं हुए। सुकरात, योरो, इमर्सन, आइन्स्टीन सौ टंच खरे ब्राह्मण थे।

व्यक्तित्व विकास की यह साधना पूरी हुई, इसे कैसे पहचाने? इस पहेली को गीता ने अपने अठारहवें अध्याय के बयालीसवें श्लोक में सुलझाया है। इसके अनुसार अंतःकरण का निग्रह, आचरण एवं व्यवहार की परिष्कृत स्थिति सरल आस्तिक बुद्धि अपरिग्रह आदि ऐसे लक्षण हैं जिनसे इन्हें पहचाना जा सकता है। प्राचीन समय में ब्राह्मणों ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया भी। स्मृतियों की विविधता इसका प्रमाण है। जिसे देखकर हर्ष के समय आये चीनी यात्री हृनसाँग ने इसे ब्राह्मणों का देश घोषित किया। आधुनिक युग में ब्राह्मणत्व विकसित करने की प्रेरणा देने वाले परमपूज्य गुरुदेव ने सामाजिक उपादेयता की दृष्टि से इसे दो वर्गों में बाँट दिया-विचारक एवं प्रचारक । दूसरे शब्दों में कहें तो ब्राह्मण और साधु। असलियत में दोनों एक से हैं विचारक इनकी वह स्थिति है जो वन विधान का निमार्ण करती हे और सामयिक समस्याओं का समाधान खोजती है। प्रचारक वर्ग समाज को पुराने और अनुपयोगी विधान को छोड़ने और वन विधान पर चलाने के लिए प्रतिबद्ध होता है। कमोबेश दोनों पर बराबर का दायित्व है।

इसी दायित्व के निर्वाह पर भावी समाज की स्थिरता समृद्धि और सतयुग की सृष्टि टिकी हुई है। इसी कारण इन्हें सावधान करते हुए भागवतकार ग्यारहवें स्कन्ध के बारहवें अध्याय के बयालीसवें श्लोक में कहते हैं - ब्राहम्णस्यहि देहोयं क्षुद्र कामाय नेष्यते “-ब्राह्मण का जीवन क्षुद्र कामनाओं के लिए नहीं है। जीवन ओर समाज के संरक्षण की जिम्मेदारी उसी की है।”

उनका ही आह्वान करते हुए परम पूज्य गुरुदेव के शब्द हैं- “इस आड़े वक्त में संस्कृति ने ब्राह्मणत्व को पुकारा है। यदि वह कहीं जीवित हो तो आगे आये। जाति और देश में हम वर्ण का संबंध नहीं जोड़ते। ब्राह्मण हम उन्हें कहते हैं जिनके मन में आदर्शवादिता के लिए इतना दर्द मौजूद हो कि वह अपनी वासना -तृष्णा से बचाकर शक्तियों का एक अंश अध्यात्म की प्राण रक्षा के लिए लगा सकें। किसी भी वंश में पैदा क्यों न हुए हो पर जिनमें मानवीय आदर्शों की रक्षा में कुछ त्याग और बलिदान करने का शौर्य एवं साहस उठता हे वस्तुतः वही ब्राह्मण कहा जाने का अधिकारी है। उसी वर्ग ने समय-समय पर ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ प्रस्तुत की हैं। “आज फिर वही परीक्षा की घड़ी आ गई, जब मानवता की जीवन रक्षा करने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने की हिम्मत दिखाई जाय, और संस्कृति को इस कलंक से बचाया जाय कि उसका संरक्षक ब्राह्मणत्व मर गया था, इसलिए उसकी जीवन रक्षा न हो सकी। अपने परिजनों को जिनमें ब्राह्मणत्व का शौर्य साहस विद्यमान हो समाज की पुकार पूरी करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। आमंत्रण को स्वीकारें और गायत्री साधना की उन चमत्कारी विभूतियों को अपने जीवन में पायें- जिन्हें हमने पाया और धन्य हुए। “

उनकी वाणी का यह दर्द एवं ब्राह्मणत्व का मर्म हमारी समझ में आ जाय तो माँ गायत्री व ज्ञान गंगा भागीरथी का अवतरण दिवस हमारे जीवन में पूरी सार्थकता व प्रेरणाओं के साथ उतर जाएगा, इसमें तनिक भी अविश्वास हमें नहीं करना चाहिए।


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