आनंद कंद के आश्रय से संसिद्धि

June 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वत्स ! तुम मेरे कुल के नहीं हो । ‘आचार्य श्रीनिवास ने बड़े स्नेह से कहा’ जो अधिकारी जिस साधन का है, उसको उसी में लगना चाहिए । आचार्य श्री निवास प्रकाँड विद्वान हैं । उनके विरक्त गृहस्थ शिष्यों की संख्या भी कम नहीं है । उसने कई वर्ष से संकल्प कर रखा था कि वह आचार्य की शरण ग्रहण करेगा । सौभाग्य से आचार्य आये थे इधर । वह कितनी उत्सुकता से इस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था , किंतु आचार्य ने उसे स्वीकार नहीं किया

“आहार शुद्धौ सत्व शुद्धि । सत्व शुद्धि धुवा स्मृतिः ।”

‘विवेक मुख्य साधन है हमारे मार्ग का और विवेक का अर्थ है भोजन के शुद्धा शुद्ध का विवेक ।’ आचार्य ने समझाया - प्रतिपत्ति की परिपक्वता के लिए चित्त शुद्ध होना चाहिए । अन्न की शुद्धि से चित्त की शुद्धि हमारे साधन का मुख्य आधार है । जितना संभव हो, इसे अपनाओगे तो तुम्हें लाभ ही होगा ।’

अन्न की शुद्धि-अन्नमय कोश की स्थूल देह की शुद्धि प्रथम आवश्यक है, इसे कोई कैसे अस्वीकार कर देगा, किंतु आज यह असंभव प्रायः बात है । अन्न शाक जिस भूमि में जिस खाद से उत्पन्न होते हैं, आहार के पदार्थों का जो भ्रष्ट, मिश्रित रूप बाजार में उपलब्ध होता है-कोई कहाँ तक सावधानी बरतेगा । अपवाद स्वरूप किन्हीं अतिशय संपन्न सज्जन के लिए भले संभव हो यह सामान्य साधक के वेश की तो बात नहीं है आहार के स्वरूप दोष, संगदोष और अर्थ दोष न हो, यह बात उसे उस समय भी बहुत सरल नहीं लगी । आज की स्थिति तो जैसी है- प्रत्यक्ष ही है ।

‘वत्स ! तुम हमारे कुल के नहीं हो ।’ वह गया था योगिराज अनंत की शरण लेने, किंतु वहां भी उसे वही उत्तर मिला ’प्राण की शुद्धि से चित्त की शुद्धि हमारा साधन है । सामान्य प्राणायाम करोगे तो लाभ होगा, तुम्हें, किंतु हठयोग की निर्विकल्प समाधि के लिए जितना प्राणायाम, जो मुद्राएँ आवश्यक है उनका खिचाव सहन करने योग्य तुम्हारा शरीर नहीं है ।’

‘क्रिया की शुद्धि से चित्त की शुद्धि होती है । अपने को आग्रह पूर्वक सत्कर्म में लगाए रखो । इससे अन्न दोष तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकेगा । योग की क्रियाओं का थोड़ा अभ्यास मनोबल देगा । ‘योगिराज ने समझाया-लेकिन परामर्श साधन का तुम्हारा अपना मार्ग यह नहीं है । समय आने दो, उपयुक्त गुरु की उपलब्धि अवश्य तुम्हें होगी ।’

प्राण के संयम से अथवा क्रिया की शुद्धि से तात्पर्य यह कि प्राणमय कोश की शुद्धि से चित्त की शुद्धि होती है, बात सर्वथा उचित है, किंतु बुद्धि जिसे उचित कहती है, क्या हम वही करने में सफल हो पाते हैं ? मन की पराधीनता से छुटकारा पा लेना यदि इतना सुगम होता ..........

धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् ।

हमारी बुद्धि सदा ठीक ही निर्णय करती है, ऐसा भी तो नहीं है ।उसको भी लगा यह उसका मार्ग नहीं है । वह प्राणायाम तथा मुद्राओं का व्यायाम क्रम नहीं चला सकेगा । क्रिया की शुद्धि के लिए सावधान रहेगा । सफल कितना होगा, वह स्वयं नहीं जानता ।

‘भावना शुद्ध रहे तो क्रिया शुद्ध होती है भावना की शुद्धि से प्राणमय कोश की शुद्धि हो जाती है और अन्नमय कोश भी शुद्ध हो जाता है । अन्नदोष अधिक बाधा नहीं देता ।’ वह गये थे महात्मा श्री सीताराम शरण जी के समीप । महात्मा जी ने बड़ी मधुर वाणी में उन्हें समझाया-’भगवान के रूप गुण-लीला के चिंतन का अभ्यास करो । मानसिक पूजा को अपना दैनिक कार्य बना लो और प्रतिकूल भावना से मन को प्रयत्न पूर्वक हटाते रहो। संसार के व्यक्ति तथा पदार्थों का चिंतन मन को मत करने दो । मन को राग और द्वेष के प्रवाह से दूर रखो । दया क्षमा, सेवा के भावों को मन में बसने दो ।’

उसको महात्मा जी ने आदेश दिया था-’कुछ दिन अभ्यास करके तब मेरे पास आना ।’

‘महात्मा जी अतिशय विनम्र हैं ।’ इसीलिए उन्होंने स्पष्ट नहीं कहा कि तुम हमारे शिष्य होने के अधिकारी नहीं हो । उसके ऐसा सोचने का कारण है ।वह प्रयत्न करके हार गया है । पूरे तीन महीने उसने चेष्टा की है । मन कोई अपने हाथ में है कि जो चाहेंगे वह सोचा जा सकेगा । दो क्षण तो वह अभीष्ट चिंतन में लगता नहीं है । सोचना चाहते हैं कुछ, मन सोचता कुछ है । निष्प्रयोजन बिना सिर,पैर की बातें मन में आती रहती हैं, किंतु मानसिक पूजा नहीं चल पाती ।

मनोमय कोश की शुद्धि से चित्त की शुद्धि-मन ही तो चित्त है । मन शुद्ध हो जाय, भावना शुद्ध होने लगे-उसे लगता हे यही साध्य है । शुरुआत में ही यह साधन बन जाय, यह उसे अपने वश की बात नहीं लगती । अतएव, महात्मा जी के पास जाने का उत्साह उसमें नहीं हो पा रहा और ऐसे में एक दिन वह स्वामी आत्मानंद जी के पास जा पहुँचा । उनका प्रवचन चल रहा था-’बुद्धौ शरणमन्विच्छ’-तुम नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त अद्वितीय सच्चिदानंद हो । बुद्धि की शरण ग्रहण करो ।यह समस्त प्रपंच तुम्हारी दृष्टि मात्र है । उसने स्वामी जी की बहुत प्रशंसा सुनी है । स्वामी जी में उसकी श्रद्धा है । संत सेवा में उसकी प्रीति है । किंतु स्वामी जी इतने बड़े विद्वान हैं और इतनी ॐ ची बात कहते हैं कि उसके पल्ले कुछ पड़ता नहीं है ।

शाम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान इस षट् संपत्ति से संपन्न जितेन्द्रिय, विरक्त, एकाग्रचित्त साधक जब साधन चतुष्टय का आश्रय लेता है-विवेक वैराग्य से संपन्न होने पर जब उसमें मुमुक्षा जागती है, तब गुरु से श्रवण किया हुआ तत्व अंतः करण में मनन के द्वारा प्रकट होता है, और निदिध्यास अविद्या को निवृत्त करने में सफल होता है ।

षट् संपत्ति जीवन में आयी नहीं, साधन चतुष्टय सम्यक् अपनाए नहीं गए तो श्रवण किया हुआ तत्व केवल बौद्धिक ज्ञान बनकर रहा जाता है । विज्ञानमय कोष की शुद्धि से, ज्ञान की शुद्धि से, अंतःकरण की शुद्धि पर स्वामी जी बल देते हैं । उनका कहना है अंतःकरण की उपेक्षा कर दी जाय तो वह स्वतः शाँत समाहित हो जाएगा । तादात्म्य के बिना तो चित्त में क्रिया होगी ही नहीं । किंतु चित्त से तादात्म्य न किया जाय, उसकी उपेक्षा किया जाय यह क्या सरल है इस सवाल के उत्तर में, मै इस कुल का नहीं हूँ, यह बात स्वयं उसने निश्चित कर ली ।

उस घटना को बरसों बीत गए । वह तीर्थ यात्रा करने निकला था । वैसे भी वह पंढरपुर, डाकोर जी, वृन्दावन वर्ष में एक बार न जाय तो उसे बेचैनी होती है इस बार चित्त बहुत अशाँत था उसका, अतएव घर से निकल पड़ा था । वृन्दावन घूमते हुए रमण रेती के पास से गुजर रहे थे तभी देखा एक फक्कड़ उन्हें पुकार रहा था -’अरे इधर तो आ । मैं तेरे लिए आकर बैठा हूँ और तू देखता तक नहीं ।’ लंबी दुबली देह, उलझे केश, कमर में मैली सी लंगोटी और पूरे शरीर में लिपटी ब्रजरज । उस अवधूत का रंग गोरा या साँवला, यह कहना भी कठिन था । कोई चिन्ह नहीं, जिससे उसका संप्रदाय जाना जा सके ।

‘बैठ यहाँ ।’ उसने समीप जाकर प्रणाम किया तो अवधूत ने उन्हें समीप बैठने का आदेश दिया । ‘तू भटकता कहाँ है ? मेरे कुल का है तू ?’ प्रभो ! वह सहसा भाव क्षुब्ध हो उठा । वत्स ! तुम मेरे कुल के नहीं हो।’सभी महापुरुषों से यह सुनते-सुनते वे निराश हो गए थे । एक संत ने उन्हें अपने कुल का कहा तो सही।

आनंद की शुद्धि कर । आनंदकंद का आश्रय ले । अवधूत खुल कर हँसे । उसकी आँखें आंसुओं से भरी थीं । हाथ उन्होंने जोड़ रखे थे । किंतु उनकी भंगिमा से स्पष्ट था कि महात्मा की बात उन्होंने समझी नहीं है ।

“देख रोटी खाए बिना तो मेरा काम नहीं चलता । अवधूत हँसते जाते थे और कहते जाते थे- कौन कैसे कमाता है उसके घर का चूल्हा बर्तन कैसा है, साधू यह सब पूछ कर भिक्षा नहीं लिया करता । भिक्षा में मिला अन्न साधू के लिए पवित्र है । इस अन्न शुद्धि को समझाता है तू ?”

‘ठीक-ठीक तो नहीं समझता ।’ उसने धीरे से कहा ।

‘सीधी बात है पेट को भरने के लिए-जीवन निर्वाह मात्र के लिए भोजन करो, अन्न में स्वाद मत लो । स्वाद के लिए भोजन मत करो तो अन्न शुद्ध । आहार में आनंद लो, किंतु स्वाद का आनंद नहीं वह प्रसाद है भगवान का, इसका आनन्द लो तो आहार की परम शुद्धि हो गई ।

उसके नेत्र चमक उठे । अन्नमय कोश की शुद्धि इतनी सरस होगी, यह तो बात ही कभी उनके ध्यान में नहीं आयी थी ।

‘नाक पकड़ कर बैठने की आवश्यकता नहीं । अवधूत का स्वभाव बार-बार हँसना था, तो वे हँस रहे थे । क्रिया आवश्यक है इसलिए करो । आनंद पाने के लिए क्रिया करो । क्रिया में आनंद मत लो, इसमें आनंद लो कि तुम परमात्मा के लिए क्रिया करते हो । प्राणमय कोश की शुद्धि इतनी ही है ।

‘मन के पीछे लाठी लेकर मत पड़ो ।’ अवधूत ने इस बार चौंका दिया-’उसे अपनी उधेड़ बुन करने दो । केवल इतना ध्यान रखो कि मनोराज्य में, मन की कल्पनाओं में तुम्हें आनंद नहीं लेना है । आनंद तुम लोगे तब, जब तुम्हारा मन परमात्मा के विषय में चिंतन करेगा । तुम्हारे रस लिए बिना वह भटकता है तो भटका करे। आनंद को पृथक् करो और मनोमय कोश शुद्ध हुआ धरा है ।

‘तनिक कठिन बात है, किंतु बहुत कठिन नहीं है । वह सोचने लगे-’अंततः कुछ अभ्यास तो साधन मार्ग में करना ही होगा ।’

‘बुद्धि के विचारों में भी आनंद मत लो । अवधूत ने आगे समझाया नया ज्ञान, नवीन सद्भावना, बुद्धि के नये चमत्कार इनमें भी आनंद मनाना बंद करो । बुद्धि जब तक परमात्मा के परम ज्ञान को कोई प्रकाश न दे उसे नीरस बन जाने दो । विज्ञान मय कोश इस प्रकार शुद्ध हो जाएगा ।

‘तुम्हारा मार्ग आनंद मार्ग है । दुःखी मत हो चिंता मत करो । खिन्न मत हो ।’अवधूत दृढ़ स्वर में इस बार कह रहे थे - हँसना सीख लो और उद्धार हो गया । चिंता दुःख आवे तो ठहाका लगाकर हंसों । चंचल कन्हाई तुम्हें छकाना चाहता है वह तुम्हारा गम्भीर फूला हुआ मुख देखकर हँसना चाहता है । उसके खिले हँसते मुख की बात सोचो ।

‘लेकिन भगवान् ! उसने बीच में प्रार्थना की-’मन में विकार भी तो आते हैं ।’

‘तब कन्हाई कहीं पास ही होता है । वह नटखटपन पर उतर आया है अवधूत हँसे-वह पेट पकड़कर हँसते-हँसते दुहरा हुआ जाता है और तुम बुद्धू बन रहे हो । ऐसे समय अधिक जोर से हंसों और फिर देखो कि विकार का कैसा कचूमर बनता है । गिरधर लाल ने मस्तक भूमि पर रखा । जब उन्होंने सिर उठाया, अवधूत उछलते-कूदते निकलते एक ओर भागे जा रहे थे ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles