जगे वह समझदारी, जो जीवन को धन्य बना दे

June 1994

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मानवीय मस्तिष्क जीवन भर अनेकानेक प्रकार के ताने-बाने बुनता रहता है । शरीर भी कुछ न कुछ उठा पटक जैसी हलचलें करने घड़ी लगा रहता है । उसके सामने बाह्य जगत की समस्याएँ अड़ी-खड़ी रहती है और उन्हीं को सुलझाने में इच्छानुरूप हल निकालने में समूचा समय गुजर जाता है । इतने पर भी यह देखा जाता है कि मनोरथों में से कदाचित् यत्किंचित् ही किसी के हाथ कुछ लगता है । अधिकाँश तो खाली हाथ आते हैं और खाली हाथ ही लौट जाते हैं । असंतोष विक्षोभ और उन्माद ही अपने-अपने रंग चढ़ाते और मजे चखाते रहते हैं । सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन प्रायः भ्रमते-भ्रमाते गुजर जाता है और भगवान के दरबार में वापस लौटने पर अपराधी की तरह लज्जा से आंखें झुकाये पश्चाताप से जलते ही जा खड़ा होना होता है ।

बड़ी भूल यह होती रहती है कि संसार भर का ज्ञान समेटने के लिए लालायित व्यक्ति ज्ञानवान, विद्वान, होने का दावा तो करता है, पर जान इतना भी नहीं पाता कि वह स्वयं क्या है ? कौन है ? किस लिए आया है ? क्या करना है ? और कहाँ जाना है ? इस आत्म विस्मृति के कारण वह भुलावे में रहता , छलाव में उलझता, अभावों के लिए रुदन करता, किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करता है । यदि अपने स्वरूप और लक्ष्य की जानकारी रही होती तो जिंदगी को दाँव पर लगाकर इस प्रकार न हारना पड़ता, जिस प्रकार कि आम लोग हारे जुआरी की तरह सब कुछ गंवाकर भारी उद्विग्नता के बीच विकट दुर्भाग्य का अनुभव करते हैं । अपने को चतुर और समर्थ समझने वालों तक को जब ऐसी दुर्गति के बीच दिन गुजारने पड़ते हैं तब उन नर वानरों के संबंध में क्या कहा जाय जो पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सोच भी नहीं पाते , जिन्हें कोल्हू की तरह पिलते और पिलाते रहकर ही भाग्य समझ कर किसी प्रकार जीवित रहना पड़ता है । समझा जाना चाहिए की मनुष्य जीवन ईश्वर की विभूति-वैभव में सबसे ऊंचे दर्जे की अनुकंपा, संपदा है इस कलाकृति को उसने बड़े अरमानों के साथ सँजोया है । उसे सृष्टि का मुकुटमणि और अपना राजकुमार घोषित किया है । इसी के अनुरूप उसे ऐसा शरीर, ऐसा मानस और इतना वैभव प्रदान किया है कि वह उसके सहारे विश्व उद्यान को सँभालने, सँजोने का पूर्ण परमार्थ संचित करते रहने के अतिरिक्त उत्कृष्टता का परिचय देते हुए देव मानवों जैसा जीवन भी जी सके । उदात्त दृष्टिकोण अपना कर सर्वत्र स्वर्गीय भाव संवेदनाओं का रसास्वादन करता रहे। पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि वह पथ भूले बनजारे की तरह कँटीली झाड़ियों में उलझता, पग-पग पर ठोकरें खाता किसी प्रकार समय गुजारता है । भूल भुलैयों में जिसे उलझाना पड़ रहा है मृगतृष्णा में भटकते, थकते, खीजते ही दम तोड़ना पड़ता है ।कई तो और भी निकृष्ट दुष्टता पर उतरते देखे गये हैं । उन्हें मरघट के प्रेत पिशाचों की तरह जलने जलाने, डरने डराने वाली दुष्टता और भ्रष्टता को चरितार्थ करते देखा है। जिस प्रयोजन के लिए देव मानव स्तर का मनुष्य जीवन किसी महान सौभाग्य की तरह उपलब्ध हुआ था, उसकी ऐसी बरबादी होने पर अपार कष्ट ही सहना पड़ता है ।

खजाँची, उच्च अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र में बहुत कुछ सँजोए रहते हैं । पर वह सारा वैभव, नियुक्ति कर्ता द्वारा निर्धारित किये प्रयोजनों के लिए ही होता है । यदि उनमें से कोई हस्तगत वैभव को मनमर्जी से स्वार्थ प्रयोजनों के लिए खर्च करने लगे तो समझना चाहिए कि अब इसे भर्त्सना ही नहीं प्रताड़ना भी सहनी पड़ेगी । पदच्युत होकर अप्रामाणिक लोगों की तरह तिरस्कृत होते हुए ही भटकना पड़ेगा । इतनी छोटी बात भी जो अपने संबंध में न सोच सके और दुनिया भर की जानकारी बटोरने का घमंड करते हुए बुद्धिमान होने का अहंकार जताता रहे तो उसे मूढ़ मति के अतिरिक्त और क्या कहा जाएगा ?

जन्मा कुछ दिन खेला कूदा, किशोरावस्था आने पर कल्पना की रंगीली उड़ानें उड़ना, युवा होते होते विवाह बंधनों में बँधा जो बोझ लादा है उसे वहन करते रहने के लिए दिन रात कमाने के लिए खटते रहना, बढ़ाये हुए परिवार की बढ़ती समस्याओं को जिस तिस प्रकार किसी हद तक सुलझाना,ढलती आयु के साथ अशक्तता और रुग्णता का चढ़ दौड़ना समर्थ संतानों द्वारा समस्त वैभव पर कब्जा जमा लेना-स्वयं को असहाय, अपमानित स्थिति में दिन गुजारने के लिए बाधित होना और रोते कलपते मौत द्वारा दबोच लिया जाना, आम लोगों की नियति ? इस बीच सुखद संभावनाओं की आशा तो जब तब बँधती रहती है, पर उसकी झलक-झाँकी तो क्षण भर के लिए सामने प्रकट हस्तगत होने से पहले ही तिरोहित हो जाती है जिंदगी का बोझ तो किसी प्रकार बहन कर लिया जाता है । पर उसके साथ अपने को, विशाल विश्व को और भारी अरमानों के साथ निहाल करने वाले स्रष्टा को क्या मिला ? इस प्रकार विचार करने पर एक ही उत्तर प्रतिध्वनित होता है कि जो सुयोग-सौभाग्य उपलब्ध हुआ था वह जलने भूनने पर उठने वाले काले धूएँ की तरह कुछ बना तो सही पर अदृश्य अंतरिक्ष में एक विस्मृत तथ्य बन कर न जाने कहाँ तिरोहित हो गया ?

इस संसार में मात्र इतनी साधन सामग्री है कि सभी लोग मिल बाँट कर खा सकें और समता एवं एकता अनुभव करते हुए हँसते-हँसाते जी सकें । पर जिन्हें बड़प्पन बटोरने की हविस चढ़ी है, जो इन्द्र से कम शक्तिवान और कुबेर से कम संपन्न नहीं रहना चाहते, उन अतिवादियों के लिए मात्र एक ही काम शेष रहता है- अनाचार के अवलंबन का । दीवार ॐ ची उठानी हो तो कहीं न कहीं से मिट्टी खोदनी पड़ेगी, गड्ढा बनेगा ।अनेकों को अभाव के गर्त में धकेले बिना कोई सुसंपन्न नहीं बन सकता । महत्वाकाँक्षी तो सर्व साधारण की तुलना में बहुत बढ़ा चढ़ा रहना चाहता ही है । इस तृष्णा की सुरसा की तृप्ति तो कोई नहीं कर पाया, पर इस विभ्रम में अपना और दूसरों का अहित इतना अधिक कर लेता है कि उस असीम ललक-लिप्सा को मात्र धिक्कारा ही जा सकता है । भले ही कुछ चाटुकार-चापलूस उस अनर्थ संचय को सौभाग्य और पराक्रम कह कर बखानते रहे ।

यही है वह समूचा भ्रम -जंजाल जिसमें उलझ कर जीवन संपदा को फुलझड़ी जलाने जैसा कौतुक कुतूहल मात्र बनकर रह जाना पड़ता है । नशेबाजी जैसी अर्ध विक्षिप्तता जब तक सिर पर चढ़ी रहती है तब तक तो कुछ पता नहीं चलता है कि अपने ही हाथों अपने ऊपर कितना अनर्थ लादा जा रहा है । पर जब आँख खुलती है तब बहुत देर हो चुकी होती है, न पीछे लौटना बन पड़ता है और न सुधार करके नए सिरे से गिनती गिनते ही बन पड़ता है ।

मनुष्य जीवन की संपदा निरर्थक विडंबनाओं में गँवा देने पर भावी संभावनाएँ घोर संकट से भरी पूरी ही सामने आ खड़ी होती हैं ।चौरासी लाख योनियों में फिर से कष्ट साध्य परिभ्रमण पापों के दंडों से भरी पूरी लंबे समय तक को नारकीय यातना, सताये-बहकाये गये लोगों की अभिशाप भरी हाय, अपयश की लंबे समय तक चलने वाली भर्त्सना बस इतना भर शेष रह जाता है । जीवन की पूर्णाहुति हो जाने पर पीछे के लिए क्या बुद्धिमानी, पुरुषार्थ-परायणता, और सफलता इसी समूचे जाल जंजाल को कहते हैं, जिस पर मूर्खों को लज्जित होने तक आवश्यक प्रतीत नहीं होता और मरते-मरते भी मुँह मरोड़ते और शेखी बघारते हैं ।

अच्छा होता यदि सघन अंधकार में भटकती हुई जीवनचर्या को कहीं से प्रकाश की एक किरण हस्तगत होने का सुयोग बनता और भ्राँतियों की भयानकता से उबरने का सुयोग प्राप्त हो पाता । अपने संबंध में विचार करने और जो बचा है, उसका सही सदुपयोग करके कुछ तो बना लेने का परामर्श प्राप्त होता । पर वह भी कहाँ बन पाता है । कदाचित कहीं से उपयोगी सुझाव उभरता है तो उसे अनसुना कर दिया जाता है । प्रकाश की ओर से मुँह मोड़ लिया जाता है । इस दयनीय दुर्मति और उसके साथ जुड़ी हुई दुर्गति का आकलन करने वाला विवेक “हा हन्त” कहकर , पेट में घूँसा मारकर, मुँह को हाथ में छिपाकर किसी कोने में जा बैठता है । जहाँ लाभ को हानि और हानि को लाभ समझने की सनक ठंडे उन्माद की तरह सिर पर सवार हो रही हो । वहाँ कोई करे भी क्या ? कहे भी क्या ?

इस भौंड़े संसार में ऊपर से नीचे गिरने का ही प्रचलन दिखाई पड़ता है । हर वस्तु ऊपर से नीचे गिरती है । आकाश में विचरने वाली उल्काएं यदा-सदा जमीन पर आ गिरती हैं । ऊंचाई में उड़ने वाले बादल तक गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर जमीन पर आ गिरते और धूल चाटते देखे जाते हैं । आदम-हौवा तक ऊपर से नीचे कूद पड़े थे । हिमालय के बर्फ पिघल कर गहरे गड्ढों वाली नदी बनकर ढलान की दिशा में बहने लगती है , और अंत में उस खारे समुद्र में जा मिलती है, जिसका पानी पशु-पक्षी तक नहीं पीते । यही है इस संसार का पतनोन्मुख प्रचलन, जिसका अनुसरण करके लोग अधोगामी चिंतन और प्रयास अपना तो लेते हैं । ऐसे ही लोग बड़ी संख्या में पाये और अपने इर्द-गिर्द मक्खी, मच्छरों की तरह विद्यमान दिखाई पड़ते हैं । इन बहुसंख्यकों का अनुसरण करके भला कोई अपना क्या हित साधना कर सकता है ? उनके परामर्श भी ऐसे ही अधोगामी होते हैं । तथाकथित स्वजन संबंधी भी ऐसे ही सुझाव देते और आग्रह करते देखे जाते हैं । इनका बुलावा अपने जैसी काक मंडली में आ बैठने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता । अपने संचित कुसंस्कार भी उसी कीचड़ में लौट चलने के लिए प्रेरित करते हैं , जिनमें मुद्दतों रहना पड़ा । दूसरे अधिकांश लोग भी अंधी भेड़ों की तरह उसी दिशा में बढ़ते चले जा रहे है ।

सोचा अपने स्वयं के बारे में भी जाना चाहिए । ज्ञान, अपने भूत, वर्तमान, और भविष्य के संबंध में से भी उपलब्ध करना चाहिए । देखना मात्र अधोगामियों को ही नहीं चाहिए वरन् नजर उठा कर उस ओर भी निहारना चाहिए, जिस दिशा धारा को महामानवों ने अपनाया और उत्कृष्ट आदर्शवादिता पर चलते हुए पीछे वालों के लिए ऐसा मार्ग छोड़ना है । जिसका अनुकरण करने पर अपने को और साथी सहचरों को धन्य बनाया जा सके तो पहुँचा इस निष्कर्ष पर जाना चाहिए कि पतन से विमुख होकर उत्थान का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर है । नाविक अपने को, अपनी नाव को, उसमें बैठे यात्रियों को खेकर इस पार से उस पार पहुँचाता है । क्या उस स्तर का मनोरथ अपने भीतर नहीं उठ सकता है ? क्या नर पामरों जैसी दुर्गंध भरी जिंदगी जीने के अपेक्षा ऊपरी लोक में रहने वाले देवताओं की स्थिति में जा पहुँचने के लिए अपने को उल्लसित तरंगित नहीं किया जा सकता ? क्या इस स्तर की साहसिकता और दूरदर्शिता अपना सकना अपने लिए संभव नहीं हो सकता ? यह सब भी अपने ही हाथ की बात है, जिसे अपने भाग्य का निर्माता माना गया है, वह उत्थान-पतन में से किसी को भी चुन सकता है । स्वर्ग या नरक में से किसी भी दिशा में चल पड़ने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है । दूसरों का न सही अपना भविष्य निर्माण करने के संबंध में कोई भी बात अपनाना और किसी भी राह पर चल पड़ना पूरी तरह अपनी आकाँक्षा और निर्धारण पर अवलंबित है ।

जो बीत गया वह यदि अनुपयुक्त रहा हो तो भी इतनी गुँजाइश अभी भी है कि शेष सदुपयोग करके बन पड़े अनर्थ का परिमार्जन किया जा सके । सूर, तुलसी, अम्बपाली, अंगुलीमाल, अजामिल, अशोक आदि आरंभ से ही वैसे न थे, जैसा कि विवेक का उदय होने पर पीछे हो गये । नये सिरे से अपनायी गयी श्रेष्ठता इतनी समर्थ होती है कि उसके दबाव से पिछले दिनों बरती गई अवाँछनीयता को दबाया-दबोचा जा सके । जो खाई पिछले दिनों खोदी गयी थी, उसे भरने का प्रयत्न नये सिरे से चल पड़े तो ऐसा समतल क्षेत्र विनिर्मित हो सकता है, जिस पर कुछ भी उगाया या खड़ा किया जा सके ।

उर्ध्वगमन का निश्चय बन पड़ने पर देवता लंबे हाथ पसारते और डूबते को उबारने में कोई कुछ भी कोर कसर नहीं रखते । ऊर्ध्वगामियों को भगवान ने सदा साहस दिया है और असमर्थता को असमंजस को समाप्त करने में पूरा-पूरा सहयोग दिया है । दिव्य जीवन जीने के लिए संकल्प, उभारने, साहस करने और ॐ ची छलाँग लगाने के लिए उद्धत समर्पित लोगों में से किसी को भी मझधार में डूबना नहीं पड़ा है । देवताओं के उदाहरण इस तथ्य की साक्षी देने के लिए अभी भी इतिहास के पृष्ठो पर यत्र-तत्र विद्यमान हैं । ईसा, बुद्ध, गाँधी, विवेकानन्द, दयानन्द, आदि की आरंभिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि इनसे कोई बड़ी आशा की जाती । पर जब वे उत्कृष्टता अपनाने के लिए तरंगित हो उठे तो दिव्य सत्ता ने उनकी भरपूर सहायता की । कठिनाइयों को सरल बनाया, आवश्यक सुविधा साधनों को जुटाया और उससे कहीं अधिक आगे पहुँचाया जहाँ तक उनने पहुँचने की अभिलाषा रक्खी और योजना बनायी । भगीरथ का गंगावतरण संकल्प आरंभ में असंभव जैसा लगता था, पर दैवी सत्ता ने उसे सर्वथा संभव करके दिखा दिया , साथ ही उस प्रवाह को भागीरथी नाम दिये जाने पर यह भी प्रसिद्ध कर दिया कि भगीरथ जनक और भागीरथी उनकी पुत्री भर थी । इस उपलब्धि की कदाचित् आरंभ में भगीरथ ने कल्पना तक न की होगी । पर उच्च, आदर्शों के लिए समर्पित होने पर दधीचि, हरिश्चन्द्र जैसे कितने ही बड़भागी बन चुके हैं । हनुमान, अर्जुन ने जो श्रेय प्राप्त किया उसकी पृष्ठभूमि तभी बनी जब उनने अपने आप को उत्कृष्टता के चरणों में समर्पित कर दिया । ऋषियों-तपस्वियों की ऋद्धि-सिद्धियों के पीछे यही तथ्य काम करते और चमत्कार दिखाते पाये जाते हैं ।

इन दिनों एक अद्भुत सुयोग-संयोग है,ईश्वर इस संसार की वर्तमान परिस्थितियों के कायाकल्प करना चाहता है। युग परिवर्तन की सुनिश्चित योजना उसने बना ली है । इक्कीसवीं सदी में उस नियोजन का अधिकाँश भाग पूरा हो चुका होगा । यही समय है जब भगवान के सहचर हो कर उसका हाथ बँटा सकते हैं और वह श्रेय पा सकते हैं जो कभी केवट, शबरी, गीध, गिलहरी ने भौतिक दृष्टि से असमर्थ होते हुए भी अपनी भावनाओं को क्रिया रूप में परिणित करके पाया था । उनमें से कोई घाटे में नहीं रहा । सुग्रीव और विभीषण भगवान के सहयोगी बनकर घाटे में नहीं रहे । सुदामा को अपनी बगल में दबी हुई चावल की पोटली तो सौंपनी पड़ी पर बदले में उसने फूस छप्पर वाली झोपड़ी को द्वारिका के रूप में परिवर्तित और सुसज्जित पाया । कल-परसों गुजरात बीरपुर के जलाराम बाबा अक्षय अन्न भंडार की झोली पा चुके हैं । उनने अपना समूचा साधन और वैभव भगवत् प्रयोजन के लिए समर्पित जो किया था ।

यशोधरा के पुत्र राहुल और अशोक की पुत्री संघमित्रा ने तथागत के संकेतों पर अपने को निछावर करके वह श्रेय पाया, जिसे कदाचित वे सामान्य जनों जैसा संकीर्ण स्वार्थ-परक का जीवन जीते हुए किसी प्रकार पा नहीं सकते थे । बुद्ध और गाँधी की सफलताओं के पीछे भी यही तथ्य काम करते हुए देखा जा सकता है । ईश्वरीय शक्ति तथा अनुकंपा को मनुष्य मात्र ने उपलब्ध किया है । अर्जुन का रथ हाँकने वाला अभी भी इस खोजबीन में है कि कोई ऐसा और मिले जिसका सारथी बनने में उसे सुयोग मिल सके । अपने जीवन को धन्य बनाने का ठीक यही मुहूर्त्त है । इसे न चूका जाय तो ही मनुष्य की समझदारी मानी जाएगी ।


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