परंपराओं की तुलना में विवेक सर्वोपरि

June 1994

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सोच और आकाँक्षा मानवी प्रगति के महत्वपूर्ण आधार स्तंभ है । यदि समय के साथ-साथ नई सोच और इच्छा न जगे, तो मनुष्य कल वाली पिछड़ी स्थिति में पड़ा रहे । उसकी आज की विकसित स्थिति विगत के प्रगतिशील चिंतन की ही परिणति है ।

एक समय था, जब स्वतंत्र चिंतन पर पूर्ण पाबंदी लगी हुई थी । तब इस पर धर्मतंत्र का कठोर नियंत्रण था । धार्मिक केन्द्र ही सत्य-तथ्य का, सही-गलत का निर्णय निर्धारण करते थे । जो इन्हें चुनौती देते, वे यातना-गृहों में गंभीर यंत्रणा के शिकार होते अथवा जान से ही हाथ धो बैठते । इतने पर भी लोग इन धर्मध्वजियों की परवा किये बिना अपनी स्वतंत्र विचार-चेतना समय-समय पर प्रकट करते रहे । यह बात और है कि इसका दुसह्य दुष्परिणाम उन्हें भुगतना पड़ता, किंतु इतने से ही सत्य के प्रसार को न तो रोका जा सका है, न आने वाले समय में ही ऐसा किया जा सकेगा । जो इसका दुस्साहस करेंगे वे प्रबल झंझावातों के समक्ष तिनके की तरह अपना अस्तित्व खो बैठेंगे । वैज्ञानिक प्रगति का इतिहास इसका साक्षी है । मध्य युग में जब विज्ञान फल-फूल रहा था, उन दिनों पश्चिमी जगत में धार्मिक कट्टरता इस कदर बढ़ी-चढ़ी, थी कि बात-बात पर वैज्ञानिकों को धार्मिक न्यायालयों, गिरिजाघरों की शरण में जाना पड़ता और वहाँ नियुक्त धर्माध्यक्षों की सलाह सम्मति लेनी पड़ती । जो बात धर्म के विरुद्ध होती अथवा तत्कालीन स्थापित मान्यता के विपरीत जान पड़ती, उस पर कड़ी आपत्ति प्रकट की जाती और उक्त प्रसंग को अपने विचार और पुस्तक से निकाल देने की सलाह दी जाती । जो इस सुझाव को मान लेने के लिए राजी हो जाते, उन्हें माफ कर दिया जाता, पर जो सच्चाई की दुहाई देते हुए प्रचलित अवधारणा को स्वीकारने से इनकार कर देते, अपनी ही बात पर अड़े रहते, उन्हें एक प्रकार से जीवन से हाथ धोना पड़ता, क्योंकि तब ऐसे प्रकरणों के एकमात्र न्यायकर्ता चर्च ही होते । राजा भी इन मामलों में निरपेक्ष बने रहते । ऐसी स्थिति में अधिकृत व्यक्तियों को इसका पूर्ण अधिकार होता कि प्रचलन के विरुद्ध बोलने-चलने वालों को चाहे जो दंड सुना दिया जाय, उस पर आपत्ति करने की किसी की हिम्मत नहीं होती, भले ही आवाज उठाने वाले व्यक्ति के मत मान्यता पूर्णतः सही क्यों न हों, पर तब सही-गलत की किसे चिंता थी ! जहाँ काना राजा और अंधी पूजा हो, वहाँ के लिए वह एक आँख वाला ही सर्वोच्च व सर्वोपरि होता है और फिर सिर के ऊपर लटकती नंगी तलवार ! यह दोहरी स्थिति बोलने कहाँ देती ! मुँह बंद करने के लिए ही विवश करती है । यह सब होते हुए भी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि प्रखर सत्य को बनावटी बादल देर तब ढके रह सकेंगे । ग्रहण तो सूर्य में भी लगता है, पर वह होता क्षणिक ही है, उसकी जाज्वल्यता को देर तक छिपाये रखने की सामर्थ्य पृथ्वी में कहाँ है ! रात आती और बीत जाती है । क्षणभंगुर अंधड़ देर तक नहीं टिकती । शाँत हवा उसके जोश को क्षणमात्र में दुरुस्त कर देती है । कठिनाइयाँ आती और अपनी मौत मरती हैं । टिकाऊ तो वही होते, जो सत्य और शाश्वत हैं । असत्य का संसार में स्थान कहाँ है ? अंधविश्वासों के बाजार कुछ दिनों तक गर्म अवश्य होते हैं, किंतु स्थिर विश्वासों के आगे उनकी चलती कहाँ है ?

विज्ञान के समझ पिछले दिनों ऐसी ही समस्याएँ प्रस्तुत हुई । जो सत्य था, उसे पुरातन पंथियों ने प्रचलित मान्यता के आधार पर असत्य घोषित कर दिया और मिथ्या की विजय-पताका फहरायी जाने लगी । इतने पर भी वैज्ञानिक सच्चाई को सामने लाने वाले मूर्द्धन्य पीछे हटें नहीं, निर्भीक सेनानायक की तरह अपने अन्वेषण - अनुसंधान के दौरान अपने उपलब्ध तथ्य पर वे अड़े रहे। परिणाम ? जैसी आशा थी, वैसा ही हुआ । काँपरनिकस से लेकर ब्रूनों तक को असह्य त्रास झेलने पड़े । गैलीलियो को अस्सी वर्ष की अवस्था में बंदी-ग्रह की राह पकड़नी पड़ी, जो अंततः मृत्यु-गृह भी साबित हुआ । ब्रूनो को तो कट्टरतावादियों ने जिंदा जला दिया । इनका दोष मात्र इतना था कि इनने मूढ़मतियों को मूढ़ बात जाँचा-परखी विज्ञान सम्मत बात बताने की कोशिश की थी, जो उनके गले न उतरनी थी, न उतर सकी किंतु इन वैज्ञानिकों का बलिदान अकारथ चला गया, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । जल्द ही वह समय भी आया, जब तथ्य को तर्क और प्रमाण की कसौटियों पर कसने के उपराँत ही सत्य-असत्य घोषित करने पर बल दिया जाने लगा । इस क्रम में एक समय ऐसा आया, जब किसी भी बात को तर्क की तराजू और प्रमाण के पैमाने पर तौलने-नापने के पश्चात् ही उसे तथ्य-सत्य की मान्यता मिल पाती । जो इन मानदंडों पर खरे नहीं उतरते, उन्हें ठुकरा दिया जाता । इस प्रकार उपजी वैज्ञानिक सोच और प्रगति की आकाँक्षा ने विज्ञान को आज की उस अति विकसित अवस्था में पहुँचा दिया, जहाँ मूढ़ता के रहते न तो पहुंच पाना सरल था, न संभव । आज भी उसमें इतना लचीलापन विद्यमान है कि जिसे सम्प्रति सौ टंच खरा माना गया है, उसे ही कल यदि किसी प्रकार त्रुटि पूर्ण ठहरा दिया जाय तो उसे भी त्यागने के लिए वह हर वक्त तैयार रहता है । उन्नति-प्रगति का यही रहस्य है । उत्तुँग ऊंचाइयों वाली नई मंजिल तक पहुँचने का यही राजमार्ग है ।

शल्य-चिकित्सा के प्रगति क्रम की भी कुछ ऐसी ही कथा-गाथा है । रोमन साम्राज्य के पतन के साथ ही सर्जरी ने उस काल में जो समृद्धि अर्जित की थी, धीरे-धीरे कर वह लुप्त होती चली गई । बाद के युग में उसका जो अस्थि-अवशेष बचा, उसने भी अपनी मर्यादा खो दी । वैज्ञानिक सोच पर तो एक प्रकार से अंकुश लग चुका था । चहुँ ओर अंधमान्यता और अंधपरंपरा के घनघोर घटाटोप थे । ऐसे में उपचार के साधन मात्र औषधियाँ और अंधविश्वास रह गये थे, पर जटिल रोगों का इलाज केवल दवाइयों के सहारे तो हो नहीं सकता । यह जरूरी तो है, किंतु उनसे भी अधिक आवश्यक उन सड़े-गले अंगों की काट-छाँट है, जो श्रीर में विषाक्तता पैदा करते हैं । इस अपरिहार्यता की अनुपस्थिति में दवा भी नगण्य जितनी साबित होती है । जब इस जटिलता के कारण बड़े पैमाने पर मौतें होने लगीं, तो तत्कालीन लोकमानस पर दबाव पड़ा । इससे बचने-बचाने के तरीके सोचे जाने लगे । ऐसे में समय की माँग ने एक नई किस्म के शल्य-चिकित्सकों को जन्म दिया । कुछ हज्जामों ने नाई का अपना पैतृक धंधा छोड़कर सर्जरी अपना ली । उस्तरा चलाना तो उन्हें भली-भाँति आता ही था । शरीर संरचना संबंधी रही-सही ज्ञान की कमी कब्रिस्तानों के शवों पर हाथ साफ कर पूरी कर ली । इस प्रकार वे काम चलाऊ सर्जन बन गये । अब उनका काम हजामत बनाना नहीं, औरों की जेबें हल्की करना हो गया । नुक्कड़- चौराहों पर वे मजमा लगाते और कष्ट पीड़ितों को त्रास देते, भले ही उस तथाकथित त्राण के पीछे उनके प्राण क्यों न निकल जायँ, इसकी उनको तनिक भी चिंता नहीं थी, वह जेबें गर्म करना होता,पर इसमें उनका दोष ही क्या था ? उन्हें न तो आपरेशन के दौरान होने वाले रक्तस्राव को रोकने का तरीका मालूम था, और न चीर-फाड़ के मध्य रोगाणुओं-विषाणुओं के संक्रमण का ही ज्ञान था । एक प्रकार से तब मध्ययुगीन सर्जरी की यह शैशवावस्था थी और इस प्रकार का दृश्य तत्कालीन समय में फ्राँस और इंग्लैंड में एक आम बात थी, क्योंकि उन दिनों वहां मूत्राशय की पथरी एक गंभीर समस्या बनी हुई थी, जिसका एक मात्र उपचार आपरेशन ही था ।

धीरे-धीरे अनुभव, क्षमता और शिक्षा के आधार पर इन तथाकथित ‘बार्बर सर्जनों’ की तीन श्रेणियां बन गई । योग्यता क्षमता के आधार पर उन्हें पृथक्-पृथक् आपरेशनों की छूट दी गई, साथ ही एक आचार-संहिता का भी निर्माण हुआ, जिसमें अन्य अनेक बातों के अतिरिक्त इस बात का भी उल्लेख था कि किस आपरेशन की कितनी फीस हो । पीछे तत्संबंधी जानकारी उपलब्ध कराने वाले अनेक मेडिकल स्कूल भी खुल गये । इनमें पेरिस का ‘सेण्ट काँम कॉलेज’ विख्यात था । समय के साथ-साथ अभ्यास और अनुभव में निखार आया । फलतः सर्जरी में दिन-दिन नई सोच, नई तकनीक व खोजें जुड़ती चली गई । इसी का सुफल आज सर्जरी की कितनी ही अभिनव समृद्ध शाख के रूप में हमारे सामने हैं । तब तब बार्बर सर्जन एब्रोस पारे ने यदि इस क्षेत्र को नवीन विचारणा और प्रणाली न दी होती, तो कदाचित् आज सर्जरी इतनी विकसित स्थिति में कभी न पहुँच पाती और न वे स्वयं आधुनिक शल्य चिकित्सा के पितामह कहलाने का गौरव प्राप्त कर पाते।

यह भौतिक उत्कर्ष के क्रमिक विकास की कहानी हुई । आत्मिक व आध्यात्मिक उन्नयन कभी प्राचीन समय में चरमोत्कर्ष पर थे, पर इन दिनों तो वह रोते-कलपते अपने अपकर्ष का ही उल्लेख करते सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं । प्रश्न यह है कि आत्मिकी की यह दुर्दशा क्यों और कैसे हो गई ? उत्तर के रूप में इतना ही कहा जा सकता है कि बदले परिवेश और परिस्थिति के कारण उत्पन्न परिवर्तित चिंतन के अनुरूप अध्यात्म की व्याख्या की आवश्यकता अनुभव नहीं की गई, फलस्वरूप मृत ढकोसले को ढोते रहने की लकीर भर पीटी जाती रही । यही कारण है कि आजकल अध्यात्म वेश-दरवेश की साज-सज्जा मात्र बन कर रह गया है । पुराने जमाने में सुविधा और साधन दोनों की कमी थी, इसीलिए ऋषि-महर्षि चित्र-विचित्र वेश-विन्यास अपना लेते थे । आज न तो किसी प्रकार का अभाव है, न असुविधा ही । ऐसी दशा में अजीबोगरीब रूप-राशि की कोई आवश्यकता रह नहीं जाती । जिसकी जरूरत है, वह अब बहिरंग न होकर अंतरंग की उत्कृष्टता है । चरित्र, चिंतन, व्यवहार ही अब वे पक्ष है, जिनमें परिवर्तन की सुधार-संशोधन की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इन्हीं संभावनाओं को साकार करने के लिए युग ऋषि द्वारा ‘विचार क्रान्ति अभियान’ के रूप में एक अभिनव आँदोलन का सूत्रपात हुआ है, जिसमें लोगों से खुली अपील की गई है कि अब पुरानी प्रथाओं और मान्यताओं से-सड़ी सोच एवं विकृत आकाँक्षाओं से चिपके रहने का समय लद गया । शरीर के आकार प्रकार में बदलाव के साथ-साथ परिधान में भी परिवर्तन करना पड़ता है । यही बात इन दिनों आध्यात्मिक अवधारणाओं के लिए लागू होती है, जिसे पूरा करने के लिए लोकमानस को हर प्रकार से तैयार रहना चाहिए। इससे कम में समाज और अध्यात्म की उन्नति किसी भी प्रकार संभव नहीं । यही समय की माँग है ।


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