सूक्ष्म ध्वनि प्रवाह को सुनें व समझें

June 1994

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मानवी काया अनंत शक्तियों का भाँडागार है । इसका सूक्ष्म ढाँचा वीणा एवं सितार के ढाँचे से बिलकुल मिलता जुलता है । जिस प्रकार काष्ट एवं तारों से बनी वीणा एवं सितार के भिन्न-भिन्न अंग हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में सिर, जिह्वा, उदर, तंत्रिकाएं, स्पर्श, शब्द तथा त्वचा आदि अंग-अवयव हैं । संगीत में जिसे स्वर कहा गया है ‘गात्र-वीणा’ में उनकी संज्ञा ‘चक्र’-प्लेक्सस से है । स्वर साधक काष्ठ निर्मित सितार के तारों को छेड़ते और उन से सुमधुर लहरियाँ एवं विविध राग-रागनियां निकलते तथा उनके भरपूर आनंद उठाते हैं । इसी तरह योग-विद्या के ज्ञाता नाद ब्रह्म की साधना से अपने आँतरिक तारों को झंकृत कर षट्चक्रों को जगाने और उनकी प्रवृत्तियों को रूपाँतरित कर उनमें सन्निहित क्षमताओं को विकसित करके ऋद्धि-सिद्धियों के स्वामी बनते हैं । अपने इसी शरीर में सप्त देव, सप्त ऋषि, सप्त लोक, सप्त सागर, सप्तमेरु, सप्त तीर्थ, सप्त साधना के रूप में-सप्त स्वरों के-सप्त झंकृतियों के रूप में प्रतिक्षण तरंगित होते रहते हैं जिससे सारा अंतर्जगत संगीतमय बना रहता है । इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है । नाद ब्रह्म की साधना द्वारा यदि इन्हें नियमित, सुव्यवस्थित एवं लयबद्ध बना लिया जाय तो न केवल शारीरिक और मानसिक जगत की सूक्ष्म शक्तियों को जगाया और उनसे लाभ उठाया जा सकता है, वरन् आत्मिक जगत की विभूतियों से भी लाभान्वित हुआ जा सकता है ।

टोरोंटो के मूर्द्धन्य वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में गहन अध्ययन एवं अनुसंधान किया है । उनने एक ऐसा साउंड ग्रूफ कक्ष तैयार किया है जिसमें साँस लेने छोड़ने की व्यवस्था तो है, परंतु यदि कोई व्यक्ति इसके अंदर जाकर बैठे तो उसे अपनी श्वास-प्रश्वास की गतियाँ, हृदय की धड़कन, पाचन तंत्र की क्रियायें आदि सब कुछ घड़ी की टिक-टिक की तरह स्पष्ट सुनाई पड़ने लगती हैं । इस आधार पर व्यक्ति स्वयं ही आँतरिक हलचलों का निरीक्षण परीक्षण कर अपने आँतरिक वीणा से झंकृत होने वाली स्वर लहरियों का पता लगा सकेगा । चिकित्सा विज्ञानी अंदर की इन्हीं ध्वनियों को विशेष यंत्रों के माध्यम से सुन और देख कर रोगों का पता लगाते और उपचार का तारतम्य बिठाते हैं । अध्यात्म में आँतरिक ध्वनियों एवं नादयोग के रूप में पराध्वनियों का उपयोग आत्मिक विकास के लिए प्रयुक्त करने की व्यवस्था है । नादयोग के अभ्यास द्वारा न केवल शारीरिक मानसिक विकृतियों को दूर किया जा सकता है, वरन् जीवात्मा को परमात्मा से मिलन की अनुभूति भी प्राप्त की जा सकती है ।

शरीर-वीणा की सूक्ष्म ध्वनि तरंगों को यदि सुना और उन्हें लयबद्ध किया जा सके तो जीवन के उस गुह्य रहस्य को जाना-समझा जा सकता है जिसके लिए उच्चस्तरीय तप एवं योग साधनाओं की कष्ट साध्य प्रक्रिया का अवलंबन लेना पड़ता है । मूर्द्धन्य भौतिक विज्ञानी चार्ल्स जी. वान राइपर ने अपनी पुस्तक “ऐन इन्ट्रोडक्सन टू जनरल अमेरिकन फोनेटिक्स” में जीवनोपयोगी ध्वनि विज्ञान की इस क्षमता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि शरीर में समाविष्ट स्वर लहरियों के अविरल प्रवाह को समझे बिना मनुष्य चेतना की रहस्यमय परतों से अनभिज्ञ ही बना रहेगा और उसकी विलक्षण क्षमताओं से कोई लाभ नहीं उठा सकेगा । अब तो कानों से सुनी जा सकने वाली तथा न सुनी जा सकने वाली ध्वनियों के अध्ययन-अनुसंधान के लिए “श्रोत ध्वनि विज्ञान” नाम से एक पृथक शाखा ही बन चुकी है जिसमें श्रवण और श्रवणातीत दोनों ही प्रकार की ध्वनि तरंगों का वैज्ञानिक ढंग से विवेचन-विश्लेषण किया जाता है । राइपर का कहना है कि ध्वनि एक निश्चित भौतिक प्रक्रिया एवं सृष्टि की एक महत्त्वपूर्ण शक्ति है । जिस प्रकार प्रकृति और प्राणि जगत में प्रकाश, गर्मी, चुँबकत्व एवं गुरुत्वाकर्षण शक्तियों का प्रभाव होता है और उससे उनके शरीर बढ़ते पुष्ट और स्वस्थ बनते हैं, उसी प्रकार ध्वनि में भी तापीय और प्रकाशीय ऊर्जा होती है और वह प्राणियों के विकास में उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है जितना वायु, अन्न और जल । रक्ताभिषरण,श्वास-प्रश्वास, आकुँचन-प्रकुँचन का शरीर में निरंतर चलने वाला क्रिया कलाप विभिन्न प्रकार की स्वर लहरियाँ उत्पन्न करता है और उन्हीं के तरंग प्रवाह से जीवन गतिमान रहता है ।

माँसपेशियाँ देखने में भले ही रक्त माँस के रेशे भर लगती हों पर उनसे निकलने वाली ध्वनियाँ इतनी अद्भुत एवं आश्चर्य जनक होती हैं जिन्हें सही प्रकार सुनने-समझने पर काया की विलक्षणता का रहस्य सहज ही खुल जाता है । इनके फैलने और सिकुड़ने की क्रिया संपन्न होते समय कुछ ध्वनि तरंगें निकलती हैं, जिन्हें यदि कानों को हाथ के दोनों अंगूठे से बंद करके सुना जाय तो वे स्पष्ट सुनाई देती हैं । अब तो कई ऐसे वैज्ञानिक यंत्र उपकरण भी आविष्कृत कर लिये गये हैं जिनके माध्यम से शरीर के किसी भी हिस्से की ध्वनि कंपनों को देखा,सुना और मापा जा सकता है । शारीरिक स्वस्थता एवं मानसिक प्रसन्नता अथवा ध्यान आदि दशा में ये ध्वनियाँ दिव्य वीणा से निकलने वाली मधुर स्वर लहरियों की तरह सुनने में कर्णप्रिय लगती हैं, किंतु उत्तेजना, तनावग्रस्तता आदि की स्थितियों में वे बेसुरी हो जाती हैं और कोलाहल जैसी प्रतीत होती हैं । सामान्यतया ये ध्वनियाँ कानों को 25 हर्ट्ज (साइकल प्रति सेकेंड) तक ही सुनाई देती हैं । सह सब ‘आहत’ ध्वनियाँ हैं, जो कानों से सुनी जा सकती हैं । विज्ञान की पकड़ में अब वे ध्वनियाँ भी आ गयी हैं जिन्हें हमारे खुले कान नहीं सुन सकते । इन्हें ‘पराश्रव्य’ ध्वनियाँ कहते हैं ।

आधुनिक युग की नव विकसित तकनीकी के फलस्वरूप वैज्ञानिकों ने शारीरिक माँसपेशियों की स्वर लहरियों को सुनने-समझने में बहुत कुछ सफलता प्राप्त कर ली है । माउंट सिनाई स्कूल आफ मेडिसीन के सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ. जोशुआ एफ. जैफे ने मैकनिकल इलेक्ट्रानिक स्टेथोस्कोप के माध्यम से 1000 हर्ट्ज तक की ध्वनि तरंगों को पकड़ा है जिसके अंतर्गत हृदय की ‘लप-डप-लपडप वाली लय-ताल युक्त मधुर गुनगुनाहट और फेफड़ों की घुरघुराहट को सरलतापूर्वक सुना-समझा जा सकता है । यह प्रकृतिगत ध्वनियाँ हैं। कर्णेंद्रियों की पकड़ से बाहर होने के कारण ही इन्हें सूक्ष्म कहा जाता है, अन्यथा यह स्थूल ही हैं, क्योंकि यंत्रों के माध्यम से उन्हें हमारे कान भी सुन सकते हैं । कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के गणितज्ञ जी. आई. टेलर ने ‘आटोकोरिलेशन’ जैसी नवविकसित गणितीय प्रणाली के माध्यम से इन ध्वनियों की गणना करने में सफलता प्राप्त की है । इसी तरह प्रिन्स्टन यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ अनुसंधान कर्ता जेम्स डब्ल्यू. कूली ने कम्प्यूटर की फास्ट फोरियर ट्राँसफार्म्स तकनीकी द्वारा माँस पेशियों की लयबद्ध और क्रमबद्ध रूप से निकलने वाली ध्वनि तरंगों को रिकार्ड करके दिखाया है । उनका कहना है कि हमारे शरीर की स्वर लिपियाँ संगीत में मामूली सा व्यतिरेक उत्पन्न होने पर भी समूचा काय तंत्र लड़खड़ाने लगता है । शरीर की इन स्वर लहरियों को यदि समझा जा सके तो आंतरिक अवयवों की हलचलों, रक्त प्रवाह, हृदय की धड़कन, पाचन संस्थान आदि की जानकारी बिना किसी यंत्र-उपकरण के भी आसानी से प्राप्त की जा सकती है और तद्नुरूप उपाय-उपचार किया जा सकता है ।

इटली के वैज्ञानिक फ्राँसिस्को मैरिया ग्रिमाल्डी ने अपनी कृति “फीजीकोमैथिस डी लूमाइन” में शरीर-वीणा से निकलने वाली ध्वनि तरंगों की रहस्यपूर्ण जानकारी दी है । उन्होंने इस संबंध में मानवी मस्तिष्क एवं उसको आन्दोलित करने वाली विचारणाओं एवं भावनाओं से जोड़ा है । भारतीय तत्ववेत्ता ऋषियों ने इसे ही प्राण चेतना के नाम से संबोधित किया है और उसके परिष्कार एवं अभिवर्धन के लिए विविध-विधि साधनात्मक उपाय उपचारों को सृजन किया है । विज्ञानवेत्ता भी अब इसी तथ्य को पुष्टि कर रहे हैं । ब्रिटेन के विख्यात भौतिक विज्ञानी एवं रसायन शास्त्री विलियम हाइडे वोलेस्टन ने भी अपने अनुसंधान निष्कर्षों में बताया है कि शरीर की समस्त हलचलों और गतिविधियों का संचालन प्राण चेतना द्वारा ही होता है । यदि उसकी लयबद्धता को अभ्यास द्वारा नियमित बना लिया जाय तो जीवन की रहस्यमय विलक्षणताओं को, जिन्हें अतींद्रिय क्षमतायें भी कहा जाता है, साक्षात्कार किया जा सकता है । उनके अनुसार अंदर की सूक्ष्म ध्वनियों को सुनने के लिए सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय को विकसित करने की आवश्यकता है । तभी हम ब्रह्मांडीय चेतना से उद्भूत होने वाली संबंध जोड़ने में सक्षम हो सकते हैं ।

कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के डॉ. नेल्सन की गणना मूर्द्धन्य प्राणि शास्त्रियों में की जाती है । उनने अपने प्रयोग-परीक्षणों से यह सिद्ध कर दिखाया है कि मानवेत्तर प्राणियों में भी उनके शरीर से निकलने वाली ध्वनि तरंगों का विशेष महत्व है । उनने पाया है कि पानी के भीतर रहने वाली शार्क मछलियाँ संकटग्रस्त परिस्थितियों में एक-दूसरे की माँसपेशियों की सूक्ष्मतर ध्वनि कंपनों को सुगमता से सुन लेती हैं और उससे एक दूसरे को बचाने का उपाय ढूँढ़ती और उसमें सफल भी होती हैं । इसी तरह के अनुसंधान ब्रिटेन के मार्टरेट ए. डवन्सी ने किया हैं । जापानी बटेर के अंडों पर किये गये अनुसंधान के आधार पर उनने यह निष्कर्ष निकाला है कि चूजा निकलने के चार दिन पूर्व ही अंडे की ध्वनियाँ जन्मदात्री को स्पष्टतः सुनाई देने लगती हैं । इतना ही नहीं उनने यह भी सिद्ध कर दिखाया है कि भ्रूण को पारदर्शी प्लास्टिक में रखकर यदि किसी ऐसे अंडे के पास रखा जाय जिसमें से बच्चा निकलने का प्रयत्न कर रहा हो, पर कुछ अड़चनों की वजह से बाहर निकलने में असमर्थ रहा हो, तो उस भ्रूण की माँसपेशियों की लयबद्ध ध्वनियों को सुनकर वह अपने कवच को सुगमता पूर्वक तोड़कर बाहर निकल आता है । जन्तु विज्ञानी जी. गौल्डपिंक के अनुसार यह सारा खेल प्राणी के अंदर विद्यमान सचेतन प्राण विद्युत का है जो निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त विश्व चेतना का एक छोटा सा घटक है ।

अध्यात्म साधनाओं में आसन-प्राणायाम से लेकर ध्यान-धारणा तक की समस्त प्रक्रियायें व्यष्टि चेतना को ब्रह्मांडीय चेतना से ऐक्य स्थापित करने के लिए विनिर्मित हुई हैं । स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली अपने अंदर की ध्वनि कंपनों स्वर लहरियों को जिन्हें विज्ञानवेत्ता ‘फिजियोलॉजिकल टैमर’ के नाम से संबोधित करते हैं, उन्हें हर व्यक्ति सुन और क्रमबद्ध कर सकता है । इससे न केवल जीवनी शक्ति की अभिवृद्धि की जा सकती है, वरन् चेतना के उच्च सोपानों पर आरुढ़ हुआ जा सकना संभव है । मंत्र-जप में इन्हीं स्वर लहरियों का तादात्म्य सूक्ष्म जगत की ध्वनियों से बिठाया जाता है, फलस्वरूप सूक्ष्म जगत की हलचलों को आसानी से सुना जा सकता हे ।

शरीर की स्थूल ध्वनियों को व्यवस्थित एवं लयबद्ध कर लेने पर न केवल शारीरिक आरोग्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है, वरन् मानसिक एवं आत्मिक स्तर की प्रतिभा और विभूतियाँ अर्जित की जा सकती हैं, क्योंकि सृष्टि के विभिन्न क्रिया-कलापों को संचालित करने वाली भौतिक शक्तियाँ तथा भावनात्मक अभिव्यंजनायें सूक्ष्म प्रकृति के अंतराल में मूलतः ध्वनि प्रवाह बन कर ही कार्य कर रही हैं । यह ध्वनि हर व्यक्ति के शरीर से भी उत्पन्न होती है, पर बहिर्मुखी प्रवृत्ति होने के कारण हम उन्हें सुन नहीं पाते । यदि अभ्यास किया जाय और नाद योग-साधना से सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों की शक्ति को जगाया जा सके, तो अनंत ब्रह्मांड के सूक्ष्म रहस्यों को आसानी से जाना-समझा जा सकता है । नादयोग सूक्ष्म ध्वनि प्रवाह को सुनने समझने की क्षमता का विकास करने की विधा है । इसके नित्य नियमित अभ्यास से स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का विकास होता और जीवन की सफलता का रहस्य खुलता जाता है ।


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