अहंकार एक भारी विपत्ति

June 1994

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इस संसार की हर वस्तु में अच्छाई के साथ-साथ कुछ बुराई भी मिलती है । कोई व्यक्ति या वस्तु यहाँ ऐसी नहीं बनी जिसमें न्यूनाधिक मात्रा में गुण दोष का समावेश न हो । प्रत्येक अच्छाई अपने साथ कुछ बुराई छिपाये रहती है और प्रत्येक बुराई के पीछे कुछ अच्छाई का भी तत्व छिपा रहता है । सफलता और असफलता के बारे में यही बात लागू होती है । यो आमतौर से हर आदमी सफलता चाहता है और उसे प्राप्त कर प्रसन्न होता है । असफलता में हानि एवं खिन्नता अनुभव होती है । यह स्वाभाविक है क्योंकि इच्छा पूर्ति में सुख और उसमें पड़ी हुई बाधा को दुख माना गया है ।

इतना होते हुए भी सफलता में कुछ हानि और असफलता में कुछ लाभ भी होता है । असफलता हमें भूलो पर विचार करने का मौका देती है और यह सिखाती है कि हम जहाँ गलती करते रहे है , वहाँ अधिक ध्यान दे और उसमें सुधार करे । सावधानी बरतने और अधूरे मन से काम करने पर आमतौर से काम बिगड़ते हैं । श्रम से जी चुराने, आलस में पड़े रहने, समय-कुसमय का ध्यान न रखने से भी असफलता की संभावना बढ़ जाती है । कटु स्वभाव और अशिष्ट व्यवहार से भी दूसरे लोग चिढ़ते हैं और असहयोगी बनते हैं , ऐसी दशा में भी अपनी इच्छा पूर्ति के मार्ग पर बाधा उत्पन्न होती है । असफलता मिलने पर आमतौर से मनुष्य दूसरे पर उसका उत्तरदायित्व डालकर स्वयं निर्दोष बनना चाहता है पर बुद्धिमता का अंश जब जाग्रत रहता है तब वह यह भी सोचता है कि मेरी भूल कहाँ रही और उसे सुधारा जाय ?

जिस प्रकार ऊधम मचाने और बताये हुए काम न करने पर बच्चे को धमका देने पर वह रुकता, सोचता और बदलता है, उसी प्रकार असफलता रूपी दैवी फटकार पड़ने पर मनुष्य को यह को यह भी सोचना पड़ता है कि उसके लिए क्या करना अनुचित था ? अपनी गतिविधियों को सुधार लेने पर जहाँ बिगड़े काम के बनने की संभावना बढ़ जाती है, वहाँ सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि मनुष्य को अपनी आदतों और गतिविधियों में सुधार करने का अवसर मिलता है यह सुधार उस बिगड़े काम को बनाने में ही सहायक नहीं होता वरन् भविष्य के लिए सफलताओं का एक व्यवस्थित शिक्षण देकर प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त कर देता है ।

सफलता की अच्छाई सर्व विदित है ही । उससे अभीष्ट लाभ प्राप्त होता है, दूसरे प्रशंसा करते हैं, अपना हौसला जानते हैं और इसलिए उसे चाहते हैं तथा पसन्द भी करते हैं । पर उसमें एक छोटी बुराई भी छिपी रहती है , यदि उसकी ओर से सावधान रहा जाय तो वह हानिकारक भी सिद्ध होती है । इस बुराई का नाम है मन या अहंकार । सफलता पा कर मनुष्य मदमत्त हो इतराने लगता है, अपनी औकात भूल जाता है और सफलता को पाकर वह यह सोचने लगता है-”मुझसे बड़ा बुद्धिमान, चतुर और पुरुषार्थ कोई नहीं, मैं हर दिशा में चुटकी बजाते जो चाहे वह प्राप्त कर सकता हूँ ।”

आत्मविश्वास होना अलग बात है । वह एक आध्यात्मिक गुण है । पर अहंकार तो उससे सर्वथा भिन्न वस्तु है। मोटे रूप में आत्मविश्वास तथा अहंकार एक से दिखते हैं पर उसमें जमीन आसमान जैसा अंतर रहता है । कायरता और अहिंसा बाहर से दीखने में एक सरीखी लगती है पर उनकी मनोदशा में दिन रात जैसा भेद रहता है । आत्मविश्वासी आत्मा की महत्ता मानते हुए भी सावधानी, परिश्रम, अध्यवसाय, परिस्थितियां, दूसरों का सहयोग, जागरुकता आदि बातों पर ही सफलता को अवलंबित समझता है और असफलता की परवाह न करके अपने सुनिश्चित पथ पर मजबूती से पैर बढ़ाना हुआ चला जाता है ।

आत्मविश्वास का अर्थ है अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहना और कठिनाइयों से तनिक भी विचलित न होना । अहंकार इससे भिन्न वस्तु है । इसे ‘ मद ‘ इसलिए कहा गया है कि नशीली चीजें खाकर जिस प्रकार उन्मत्तता आ जाती है, उसी प्रकार एक छोटी सफलता पा कर मनुष्य सोचने लगता है कि मैं ही सब कुछ हूँ , मुझमें कोई त्रुटि नहीं, मेरी बुद्धि सारी दुनिया से बढ़कर है । जो चाहूँ सो चुटकी बजाते पूरा कर सकता हूँ । छोटी स्थिति के आदमी जिनके दिल और दिमाग छोटे होते है-कोई मामूली-सा लाभ, श्रेय या महत्व पाकर इतराने और बौराने लगते हैं । उनकी अकड़, उद्दंडता और अशिष्टता के रूप में चेहरे पर झलकती रहती है । सरकारी अफसरों, रईसों, तथा कथित रईसों, नवधनाढ्यों में से कितने ही ऐसे होते हैं, जिनकी अकड़ और उद्दंडता देखकर यही सोचना पड़ता है कि छोटी सी उपलब्धि पाकर उन्होंने सज्जनता का मार्ग छोड़ दिया और उद्धतता को अपना लिया ।

उद्धतता सारी मनुष्य जाति का, सृष्टि की विधि व्यवस्था का सज्जनता का अपमान है । यह किसी से भी बर्दाश्त नहीं होती । मानव की स्वयं की आत्मा उसके प्रति विद्रोह करती है । जिन्हें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ हो उनकी बात दूसरी है । वैसे साधारणतया सभी को अहंकार बुरा लगता है । भले ही उसका कोई तुरंत विरोध न करे पर जब भी अवसर आता है अहंकारी व्यक्ति देखता है कि उसका एक भी सच्चा मित्र इस संसार में नहीं है। चापलूस और खुशामदी लोग जो अपने मतलब के हुए उसकी नाक का बाल बने हुए थे, अवसर पाते ही गिरे में लात लगाने का प्रयत्न करते हैं।

भगवान को मनुष्य के दुर्गुणों में सबसे अप्रिय अहंकार है। ईश्वर का अंश होने से जीवन महान है पर यह सारी महानता ईश्वर की है। अपनी सत्ता की दृष्टि से मनुष्य अत्यंत तुच्छ है वह कितनी ही बातों में पशु-पक्षियों से भी पिछड़ा हुआ है। दूसरों की सहायता के बिना उसका काम ही नहीं चलता। जो कुछ भी लाभ या सुख प्राप्त होता है उसमें उसकी निज की योग्यता का जितना महत्व है उसकी अपेक्षा दूसरों के सहयोग के अनुग्रह का सहस्रों गुना अधिक श्रेय सम्मिलित रहता है।

एकाकी रहने वाला मनुष्य तो लखनऊ अस्पताल में भरती हुए भेड़ियों द्वारा पाले गये रामू बालक जैसा ही अविकसित रह सकता है। रामू भी जैसा कुछ था भेड़ियों के पालने के कारण था। यदि मनुष्य के बालक को कोई न पाले, किसी का सहयोग न मिले तो वह सृष्टि के अन्य जीवों की तरह जीवित भी नहीं रह सकता। आठ-दस वर्ष की आयु तक तो उसे सर्वथा परावलंबी रहना पड़ता है। बीमारी, अशक्ति, स्वाभाविक ज्ञान की कमी आदि अनेकों खामियाँ उसमें ऐसी हैं जिसमें अन्य जीवों के बच्चे ग्रस्त नहीं होते। उनकी सारी उन्नति और सफलता सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक हुए मानवीय सामूहिक सत्प्रयत्नों का ही परिणाम हैं। समाज के ऋण और सहयोग का, दूसरों की कृपा और अनुकंपा का महत्व भूल यदि कोई इतराता है और अहंकारी बनकर मदोन्मत्त होता है तो यह उसकी तुच्छता ही मानी जायेगी। अहंकार का नाश करने का परमात्मा सदा प्रयत्न करते रहते हैं क्योंकि, यही दुर्गुण भव बंधनों में जीव को बाँधे रहने में सबसे बड़ी लोह शृंखला का काम करता है। अहंकारी के मन के सब सद्गुण उसी प्रकार विदा होने लगते हैं जैसे तालाब का पानी सूखने पर उसके तट पर रहने वाले पक्षी अन्यत्र चले जाते हैं। अहंकार से अन्य दुर्गुणों का पोषण होता है और घमंडी आदमी में वे सब बुराइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो गुंडों या आसुरी जीवों में होती हैं। असुर या गुंडों का अहंकार आरंभ में विकृत होता है, इसके पश्चात् वे दूसरों को तुच्छ समझते हुए उनकी हर क्रिया में अपना अपमान देखने लगते हैं और उसका प्रतिशोध लेने के लिये जहरीले साँपों की तरह अनर्थ करने पर उतारू हो जाते हैं।

अहंकार की उद्धतता मनुष्य के ओछेपन का चिन्ह है। महानता व्यक्ति के झुकने और नम्र बनने में है। उन्नति और सुधार उसी का संभव है जो अपनी त्रुटियों और दुर्बलताओं को जानता है। जो अपने को सर्वोपरि मान बैठा है उसे सुधार को बात सोचने का अवसर ही कहाँ है? ऐसे मनुष्य हवा भरे हुए पानी के तरह अंत में उपहास के पात्र बनते हुए नष्ट ही हो जाते हैं। इसलिए विज्ञजन अहंकार को बहुत ही हेय मानते रहे हैं। हर बार सफलता प्राप्ति के समय हमें यह आत्म निरीक्षण करते रहना चाहिए कि कहीं इससे हमारा अहंकार तो नहीं बढ़ा? यदि बढ़ा तो सोचना चाहिए की लाभ की अपेक्षा हमारी हानि ही अधिक हुई है। अहंकार को एक भारी हानि ही नहीं विपत्ति भी मानना चाहिए।


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