अहंकार नहीं, स्वाभिमान ही वरेण्य

August 1994

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“लगता है आपने तो पूर्ण-ज्ञान प्राप्त कर लिया है।” किसी व्यक्ति ने ‘सर आइजक-न्यूटन’ से कहा।

“मेरे सामने ज्ञान का अथाह-समुद्र फैला हुआ है, जिसके किनारे बैठकर कुछ ही घोंघे और सीपियाँ उठा पाया हूँ।” विज्ञान जगत के गणमान्य मनीषी ने उत्तर दिया। उनकी निरभिमानता का कैसा सुन्दर उदाहरण है यह।

जीवन में उन्नति, समृद्धि व सफलता चाहने वाले व्यक्ति को घमंड से दूर रहना चाहिए। मनुष्य के वाँछित लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में यह बड़ा बाधक तत्व है। अहंकारग्रस्त व्यक्ति का विकास रुक जाता है। उसकी प्रगति की सारी संभावनाएँ धूमिल पड़ जाती हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर विद्वानों ने इसे हेय एवं त्याज्य बताया है।

समीपवर्ती अन्य व्यक्तियों से अपने आपको असाधारण विशिष्ट उच्चस्तर का मान लेने की मान्यता ही अहंकार है। अहंकार अनेक दुर्गुणों का जनक है। अपनी बुद्धि, ज्ञान, कला-कौशल, रंग-रूप, सामर्थ्य शक्ति किन्हीं विशेषताओं का अहंकार मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है। व्यक्ति के जीवन में अहंकार का संचरण होते ही उसकी क्रियाएँ एवं चेष्टाएँ बदल जाती हैं। वह नशाग्रस्त व्यक्ति की तरह असंतुलित एवं अव्यवस्थित कार्य व्यवहार करने लगता है। उसमें विवेकशीलता दूरदर्शिता का ह्रास होता जाता है।

किसी ने ठीक ही कहा है- “अभियान वह विषबेल है जो जीवन की हरियाली, सौंदर्य, बुद्धि-विस्तार, विकास को रोककर उसे शुष्क कर देती है।” “अहंकार एक ऐसी विष-बुझी तलवार है, जो अपने तथा दूसरे के लिए घातक सिद्ध होती है।” “अहंकार व्यक्ति को क्रूरता, शोषण, अनाचार की ओर प्रवृत्त करता है। फलतः व्यक्ति और समाज दोनों का अनिष्ट होता है।

गणित और विज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान न्यूटन महोदय की-गणित संबंधी महत्वपूर्ण खोज एक पत्र में प्रकाशित हुई। इससे अनेक लोगों से प्रशस्ति-पत्र धन्यवाद, ज्ञापन, अभिनंदन उनके पास आने लगे। इस पर खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था-”अब मेरी प्रसिद्धि तो खूब बढ़ेगी, किंतु विद्या, जिसके लिये मैंने जीवन भर का समय लगा दिया, उसका विकास रुक जायेगा।”

उपरोक्त कथन से ध्वनित होता है कि-प्रशंसा और प्रसिद्धि अभिमान के पोषक तत्व हैं। जिसे अपनी ही पढ़ाई और ख्याति की बात सूझती है, वह प्रगति की दिशा में कदम कैसे बढ़ा सकता है ? श्रम एवं साधना की महत्ता को वह भूल जाता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर सपफली लेखक, कवि, वैज्ञानिक, कलाकार, दार्शनिक एवं महापुरुषों ने अपनी साधना की पूर्णता के पूर्व अपने क्रियाकलापों को गुप्त रखा, प्रशंसा प्रसिद्धि से अपने को अछूता रखा और अहंकार के शिकंजे से कोसोँ दूर रहे।

‘अभियान’ और ‘स्वाभिमान’ में आकाश-पाताल का अंतर है। अभियान का जन्म अपने संकीर्ण दृष्टिकोण के फलस्वरूप होता है। जबकि स्वाभाविक का उदय व्यक्ति के उदात्त एवं विशाल आत्मीयतापूर्ण दृष्टिकोण के कारण। जहाँ अभियान व्यक्ति के ओछेपन की निशानी है, वहाँ स्वाभिमान उसके उच्चता और महानता की। अपने देश, जाति, धर्म, आदर्श मानवता की आन-बान और शान की रक्षा के लिये प्राणों की बाजी लगा देना स्वाभिमान का परिचायक है।

अभिमान भौतिक पदार्थों का होता है। धन, शिक्षा, रूप, बल, पद आदि नश्वर संपदाओं एवं विशेषताओं पर इतराने वाले व्यक्ति अहंकारी कहे जायेंगे। स्वाभिमान वे हैं, जो आदर्शों के पालन में

दृढ़ता प्रकट करते हैं और मानवी गरिमा को आदर्शवादी परंपराओं को समाज में जीवित रखने के लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगा देते

है। अहंकारी जहाँ अपना तनिक सा अपमान भी सहन नहीं कर सकता है और चोट खाये सर्प की तरह दूसरों पर टूट पड़ता है, वहाँ स्वाभिमानी व्यक्तिगत लाभ हानि का-मानापमान का ध्यान न करके अपनी अहंता आदर्शों के साथ जोड़कर रखता है और स्वस्थ परंपराओं की रक्षा में ही अपनी सफलता एवं प्रशंसा मानता है। हमें अहंकारी नहीं स्वाभिमानी बनना चाहिए।


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