अगली सदी नारी की होगी

August 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपना हितसाधन हर किसी को अभीष्ट है, पर थोड़ी समझदारी विकसित होने पर यह अपना ‘अपनों’ के प्रति ममत्व के रूप में विकसित हो जाता है। छोटा बच्चा अपनी भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सहायता, खेल आदि तक ही सीमित रहता है, पर जब वह वयस्क हो जाता है, तो परिवार के अन्य लोगों के साथ-मित्र मण्डली के प्रति भी ममता उड़ेलता है और उनकी सुविधा-असुविधा का ध्यान रखने लगता है। मात्र उनसे लाभ ही लेने की इच्छा नहीं संजोए रहता, वरन् सहायता करने में भी प्रसन्नता अनुभव करता है।

जब जिम्मेदारी का अधिक अनुभव होने लगता हे तो अभिभावकों के रूप में पत्नी, बच्चों का भी बहुमुखी दायित्व निभाता है। बहिन, भाइयों का भी ध्यान रखता है। भाई-बहिनों के प्रति, घर के बड़े-बूढ़ों के प्रति भी ध्यान देता है और उस समुदाय की यथा-भाँति, यथा-रीति, सहायता करने में भी उत्साह प्रदर्शित करता है। यही आत्म विकास है जो और भी अधिक परिष्कृत होने पर निकटवर्ती एवं दूरवर्ती समाज के साथ जुड़ जाता है। तब व्यक्ति एकाकीपन अनुभव नहीं करता, परिवार तक ही सीमित नहीं रहता, वरन् संपर्क क्षेत्र के लोगों के दुःख-सुख में भी भागीदारी बनने लगता है। देश-विदेश में अन्यत्र बिखरी हुई घटनाओं के साथ भी अपनी भाव संवेदनाओं को जोड़ता है और ऐसा कुछ सोचने करने लगाता है जिसमें बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की बात बनती है। किन्तु यदि क्षुद्रता ही मान्यताओं में घुस कर बैठी रहे तो मात्र अपना निजी सुख और लाभ ही सब कुछ दीखता है। देश, समाज, पड़ोस, परिवार आदि का हित साधन तो दूर, मात्र अपनी निज की वासना और तृष्णा ही सब कुछ बनकर रह जाती है। अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करने में भले ही कितना ही धन, समय लग जाय, पर उपलब्ध क्षमताओं में से किसी को कुछ देने के लिए सहज सहमत नहीं होता। मजबूरी बाधित करें, तो बात दूसरी है।

समझदार सद्गृहस्थ अपनी कमाई को स्वयं ही नहीं हड़पते रहते, वरन् कम से कम कुटुँबियों को तो उसमें सहभागी बनाते ही हैं। बाहर वालों के लिए कुछ भले ही न बन पड़े, पर घर वालों के लिए तो आदान-प्रदान के मौलिक स्वार्थ को ध्यान में रखकर तो किसी कदर उदारता अपनाये ही रहते हैं। संतान को स्वस्थ, प्रसन्न रखने, पढ़ाने तथा उनकी भावी प्रगति को ध्यान में रखते हुए कुछ न कुछ सोचते करते भी हैं। कारण कि उन्हें बड़ा होने पर बदले में सहायता, सम्मान, सुरक्षा की सींवना ध्यान में रहती ही। इस समुदाय में यदि महिला आती हैं तो उनके संबंध में नैतिकता एवं सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए उदार सहायता का रुख अपनाना पड़ता है। उन्हें सद्भाव एवं सम्मान भी किसी न किसी रूप में दिया जाता है। भले ही वे नगद कमाई के रूप में बदला चुका सकने की स्थिति में न होती हों।

पुत्री के विवाह में अच्छी खासी रकम खर्च करनी पड़ती है, भले ही वह अपनी सामर्थ्य से अधिक ही क्यों न हो। बहिन के बारे में भी यही सोचा जाता है कि अच्छा घर, वर मिले और भावी जीवन सुविधा, प्रसन्नता और सम्मान जनक परिस्थितियों में बिताये। कन्या के विवाह में बहुत दिन दौड़ धूप करने और महँगा दायित्व उठाने की व्यवस्था भी उसी कारण बन पड़ती है। माता के प्रति उसके उपकारों के बदले कृतज्ञता का परिचय दिये बिना भी आत्म संतोश नहीं होता। इस प्रकार परिवार के हर सदस्य का उत्कर्ष अपने निज के स्वार्थ साधन का ही एक अंग बन जाता है।

इस संदर्भ में एक विचित्र बात यह देखने को मिलती है कि पत्नी या पुत्रवधू के रूप में पराये घर से आने वाली महिलाएँ ससुराल के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर देने पर भी ‘अपनों’ की गणना में नगण्य सा स्थान बना पाती हैं। उनकी अहिर्निशि सेवा साधना को भी नर द्वारा अपना अधिकार समझा जाता है। अमेरिका में जब दास प्रथा का बाहुल्य था तब खरीदे हुए गुलामों से मन चाहा काम लेना और कमी देखने पर प्रताड़ना देना प्रचलन जैसा बन गया था। भले ही पीछे उसे अमानवीय माना गया हो और कानूनन उस प्रथा को समाप्त किया गया हो। पराये घर से आई महिलाओं से मन माना लाभ उठाते रहने पर भी अपने समुदाय पर न जाने क्या प्रेत-पिशाच चढ़ा रहता है कि वधू वर्ग की महिलाओं के हिस्से में पक्षपात ही आता है। उन्हें पराई समझा जाता रहा । ये अविश्वास की-संदेह की भाजन भी रहती है। और घर में घुसते ही उन्हें घूँघट डाले रहने, किसी से खुलकर बात न करने जैसे सामान्य मानवी अधिकार पर भी प्रतिबंध लग जाता है। घर से बाहर जाना है तो उनकी निगरानी, चौकीदारी करने के लिए कोई न कोई प्रहरी साथ रहना चाहिए। इसमें सुरक्षा कारण नहीं होती, वरन् आशंका का गहरा पुट रहता है, जिसके कारण यह वहम उठता है कि इसका अन्य कोई समर्थक-सहायक न बन जाय और शील न गँवा बैठे। वधुओं को ससुराल में किस प्रकार दिन काटने पड़ते हैं, इसे देखा जाय, तो प्रकट होता है कि यदि पति का आशीष, आश्रय, और संतान के प्रति वात्सल्य उन्हें पकड़े-जकड़े न रहता, तो वे ससुराल का त्रास और असम्मान सहने की अपेक्षा कहीं मेहनत-मजदूरी करके पेट पालना हजार गुना अच्छा समझती। ऐसी है अपने देश में वधू स्तर की महिलाओं की सामाजिक स्थिति, जिसे निंदनीय और अमानवीय ही कहा जा सकता है। कई तो इसी घुटन में मिरगी (मृगी) जैसे रोगों की शिकार हो जाती हैं, तो कई मानसिक संतुलन गँवा बैठती हैं।

पुत्री और बहिन को पराये घर का कूड़ा समझते हुए भी सहानुभूति का इतना अंश तो रहता ही है कि पितृगृह में रहते हुए उसे घूँघट निकाल कर रहने या किसी से भी बात न करने, सहेलियों से हँसने-बोलने पर प्रतिबंध नहीं रहता और उनके भविष्य की इतनी चिंता तो रहती है कि वह कही अंधकारमय न बन जाय, उसे दबायी-दबोची जिंदगी न जीना पड़े, किंतु वधुएँ अपने पितृ परिवार का परित्याग करके आजीवन दासों की स्थिति में स्वेच्छा-समर्पण करने के बाद भी वह सद्भाव और विश्वास अर्जित नहीं कर पाती, जो उस घर की लड़कियों को सहज ही मिलता रहता है। यह पक्षपात अखरने वाला भी है और असह्य स्तर का अनैतिक भी ।

पिता के घर में लड़कियाँ बड़ी उम्र की हो जाने पर भी अपनी पढ़ाई आगे जारी रख सकती हैं, ताकि उनके स्वावलंबन का रास्ता खुला रहे, सम्मान में भी कमी न पड़े, पर वधुओं से यह सुविधा प्रायः उसी दिन छिन जाती है, जब वे विवाहित होकर दूसरों के घर में प्रवेश करती है। इसमें न्याय और औचित्य कितना है, यह गंभीरतापूर्वक विचार जाने योग्य है। लड़की से ऐसा क्या गुनाह बन पड़ा, जिससे विवाह होने के उपराँत अपना वह विश्वास भी गँवा बैठी जो उसे चार दिन पहले तक मिलता रहा था। ऐसा उसके सिर पर गजब का गोला कहाँ से टूटा कि वह शिक्षा स्वावलंबन जैसी मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की इच्छा करने तक पर दुत्कारी जाने लगी। क्या वधू मात्र क्रीत दासी ही है। उसके सम्मान, स्वावलंबन या भावी उत्कर्ष का सारा ही क्षेत्र किस कारण अवरुद्ध हो गया ?

शिक्षित पुत्र, भाई अथवा पुत्री बहिन यदि कोई अच्छी सफलता प्राप्त करता है, आगे बढ़ता है, यशस्वी होता है, तो सारा घर फूला नहीं समाता। अपनों की उन्नति में प्रतिष्ठा में समूचे परिवार का प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है और वह चरितार्थ भी होता है, पर वधुओं के संदर्भ में ऐसा कुछ सोचा जाना, किया जातक सहन नहीं होता। यह बुद्धि विपर्यय क्यों ? यह पक्षपात किस कारण ? अधिकाँश वधुओं का भावी उत्कर्ष उसी दिन से असंभव बना दिया जाता है, जिन दिन से कि वे ससुराल के पिंजड़े में कस दिये जाने के लिए विवश होती हैं। क्या यही परंपरा है ? क्या इसी को संस्कृति कहते हैं, जिसके कारण सेवाधर्म स्वीकार करते ही उसे अनेकानेक संदेहों के-अविश्वास के घेरे में रहना पड़े, हर ओर से झिड़की मिले, हर कोई अपने कार्य में उसे लगाये रहना अपना अधिकार समझे। हे भगवान! तेरा ऐसा प्रकोप भारत की नारियों पर ही किस कारण उतरा कि वे विवाह होते ही अपने भविष्य को सँजोने सँभालने की आकांक्षा रखने तक का अधिकार खो बैठे?

समय आ गया कि अब इस अवांछनीय प्रचलन को पूरी तरह बदल दिया जाय ? वधू या बहिन-बेटी को ससुराल में एक ही जैसी सुविधाएँ और स्नेह-सम्मान पाने का अधिकार मिलता रहे। उनकी भावी प्रगति के मार्ग में कोई किसी प्रकार बाधक न बने। उन्हें श्रेय मिलने की दिशा में अग्रसर होने पर जैसे पिता के परिवार में प्रसन्नता का अनुभव होता है, वैसा ही वातावरण ससुराल में भी उपलब्ध रहे। समय और न्याय की यही ऐसी प्रबल माँग है, जिसे न तो आगे झुठलाया जा सकेगा और न अमान्य किया जा सकेगा। अनीति के रहते विग्रह उभरने की आशंका बनी ही रहेगी और कल नहीं तो परसों मनोमालिन्य का कारण बन कर पारिवारिक संतुलन के मार्ग में अपना व्यवधान खड़ा करेगी। उस दुराग्रह के रहते हमारे घर-परिवार ही विघटन की, विग्रह की दिशा में मुड़ चलेंगे। इसलिए अच्छा यही है की समय रहते गलतियों को सुधार लिया जाय और ऐसा प्रचलन आरंभ किया जाय, जिसके आधार पर व्यक्ति, परिवार और समाज में प्रगति और प्रसन्नता का वातावरण अक्षुण्ण बना रहे।

इक्कीसवीं सदी नारी प्रधान शताब्दी के रूप में नई साज-सज्जा के साथ अवतरित होने जा रही है। योगी अरविंद ने इसे “मदर सेंचुरी” - मातृ शताब्दी के नाम से प्रतिपादित और घोषित किया है। विज्ञ मनीषा ने भी इसे सुनिश्चित संभावना के रूप में मान्यता दी है। आधी जनसंख्या को भी वे मानवाधिकार मिलने जा रहे हैं, जिसे अचिंत्य चिंतन ने लंबे समय से अनेकानेक बंधनों से जकड़ा और वंचित रखा है।

मनुष्य का वरिष्ठ पक्ष नारी भी अब शिक्षा, स्वावलंबन और सम्मान का लाभ उसी प्रकार उपलब्ध करेगी, जैसा कि सर्वसाधारण को बिना किसी जाति भेद, लिंग भेद के मिलना चाहिए। न्याय तुला अब डंडी की हरकतें सहन नहीं करेगी। धर्म काँटे पर औचित्य को ही स्थापित किया जायगा और वस्तुस्थिति को यथावत् प्रकट करने में किसी को भी छद्म अपनाने न दिया जायगा।

अपने देश में यह शुभारंभ ग्राम पंचायतों के जिले के उस भाग से आरंभ हुआ है जिसे धरती के नीचे दबी हुई जड़ कह सकते हैं। पंचायती राज्य में नारी को 30 प्रतिशत आरक्षण मिला है। विपक्षी पार्टियाँ पचास प्रतिशत की माँ करती हैं। युग निर्माण योजना की माँग है कि जब नर और नारी दोनों की जनसंख्या बराबर है, तो नारी को 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व इस सुअवसर पर क्यों नहीं मिलना चाहिए ?

सरकारी प्रतिनिधित्व अभी चुनावों तक सीमित रहे तो भी बात आगे बढ़ेगी। वह पंचायतों में पंच चुने जाने तक सीमित नहीं रहेगी। क्षेत्रीय, प्राँतीय और केन्द्रीय स्तर के अधिकार क्षेत्र में भी उन्हें न्यायोचित स्थान मिल कर रहेंगे। भले ही इस जद्दो-जहद या उचित प्रतिष्ठापन में कुछ समय भले ही लग जाय। जन प्रतिनिधित्व की सार्थकता तब तक बनती ही नहीं, जब तक कि चुना हुआ प्रतिनिधि शिक्षा और विनयशीलता के क्षेत्र में आवश्यक दक्षता उपलब्ध न कर सका हो। अँगूठा छाप लोगों की विचारशीलता इस स्तर पर विकसित नहीं हो पाती कि वे समस्याओं का सही स्वरूप समझने और उनका सही समाधान कर सकने में समर्थ हो सकें। इसलिए जहाँ अधिकार मिलने की बात है, उसके साथ ही यह शर्त भी जुड़ी हुई है कि चुना हुआ प्रतिनिधि समझदारी की दृष्टि से पिछड़ा हुआ नहीं है। उनने शिक्षा और उसके साथ जुड़ी हुई है अन्यान्य जानकारियाँ पर्याप्त मात्रा में अर्जित की हों।

हर परिवार को इसमें प्रसन्नता अनुभव करनी पड़ेगी कि उसके परिवार की कोई महिला भले ही वह पुत्री, भगिनी, वधू या माता में से कुछ भी क्यों न हो, अपने क्षेत्र के लोगों के विश्वास और सहयोग की अधिकारिणी बनी और चुनाव जीता। इसमें यह भेदभाव नहीं चला कि वधुओं को घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं निकलने दिया जायगा। उसे किसी के सामने मुँह खोलने का अधिकार न होगा। अपनी पुत्री या भगिनी ही तो किसी घर की वधू बन कर गई। अपने घर की वधुओं पर प्रतिबंध लगाने का तात्पर्य है कि प्रकाराँतर से वही प्रतिबंध पुत्रियों या बहिनों पर भी दूसरे परिवार के लोग लगा ही देंगे। तब महिला एक अनबूझ पहेली बन जायेगी। घोषित प्रतिनिधित्व की बात हवा में उड़ जायगी, क्योंकि प्रतिगामिता उसे राहत न देगी और नारी को सहस्राब्दियों बाद मिले अवसर को भी हाथ मलते गँवाना पड़ेगा।

अगले कदम सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में उठेंगे। जिस आधार पर अनुसूचित जातियों-जनजातियों को आरक्षण देकर समान स्तर पर लाया जा रहा है, वैसा ही न्याय नारी को न मिले, यह हो नहीं सकता। समुन्नत देशों में महिला अधिकारियों या अफसरों का बाहुल्य है। मर्दों के कंधे पर तो अधिक श्रमसाध्य कार्य ही उनकी प्रजनन दायित्व से बचे रहने की सुविधा के कारण सौंपे जाते हैं। इस लिए स्वभावतः कम श्रम वाली अधिकाँश नौकरियाँ प्रायः महिलाओं को ही सँभालनी पड़ती हैं। वे अच्छा वेतन भी पाती है। सम्मान और अधिकार की दृष्टि से भी पीछे नहीं रहती। ऐसी स्थिति में पुत्रियों, बहिनों, माताओं या पुत्र-वधुओं को हस्तगत हो तो उन पुरुषों को अभागे ही कहा जायगा जो अपने परिवार के महिला सदस्यों की प्रगति देखकर जल-भुन कर ईर्ष्या से खाक होते रहे और उस सुयोग में वैसे ही अड़ेंगे अटकाते रहे जैसे कि पिछले दिनों इस अनीति को परंपरा का नाम देकर चलाया जाता रहा है।

सरकारी क्षेत्रों तक ही प्रगति का सारा क्षेत्र समाप्त नहीं हो जाता। आर्थिक, व्यावसायिक, शिल्प, उद्योग, कलाकारिता के भी अपने सुविस्तृत क्षेत्र है। अब तक मात्र पुरुषों को ही यह भारी भरकम वाले बोझिल दायित्व वहन करना पड़ता रहा है। यदि नारी भी उस वजन को हलका करने के लिए अपना कंधा लगाने की इच्छुक है तो संबद्ध पुरुषों को अपना वजन बढ़ने से उत्पन्न कठिनाई को हलका होते देखने का अवसर मिलेगा। अच्छा हो अब तक जो समुदाय मात्र खाना पकाने और बच्चों को जनने, पोसने जितने छोटे क्षेत्र में सीमाबद्ध रहा है, उसको उपार्जन के क्षेत्र में भी सहयोग देने पर उसका स्वयं का नहीं, समूचे परिवार को और समाज को उस प्रगति का भारी लाभ मिलेगा। इस लाभ से आधी जनसंख्या को वंचित ही रखे रहने का दृढ़ सोच या निर्धारण हर दृष्टि से अनुचित ही ठहराया जायगा और जो इस मार्ग में आड़े आ रहे होंगे, उनकी समझदारी को धिक्कारा जाता ही देखा जायेगा।

नारी की अपनी विलक्षणता और वरिष्ठता है। उसे स्रष्टा ने श्रद्धा, सद्भावना, सेवा, सहानुभूति और कला-कोमलता की बहुमूल्य सामग्री के साथ गढ़ा है। यह उसकी स्वाभाविक प्रकृति भी है और मनुष्यों में पाई जाने वाली भाव संवेदनाओं में सबसे उत्कृष्ट भी। पुरुष की श्रमशीलता और उलझनों में गर्वोक्ति करने की प्रकृति भी कहीं न कहीं, कभी न कभी काम आती रहती है, पर समूचे समाज की संरचना उत्कृष्ट आदर्शवादिता के उन्हीं तत्वों के आधार पर होनी चाहिए जिससे कि नारी की सत्ता समग्र रूप से परिपूर्ण है पुरुषों की गौरवगाथा-इतिहास के पृष्ठ युद्धों में खपने वालों की ही श्रेणी में गिने जाते हैं। अधिकारों के नाम पर अनाचार के क्षेत्र में उनकी ही करतूतें प्रमुख रही हैं। अपराधियों और नशेबाजी जैसे दुर्व्यसनों में लिप्त भी उसी वर्ग को अग्रगामी देखा जा सकता है। समाज में अगणित दुष्प्रवृत्तियाँ उन्हीं दुर्गुणों के कारण पनपी और बढ़ी हैं, जिन्हें पुरुषों की बघौली कहकर बलिष्ठता का श्रेय दिया जाता है।

अगले दिनों समाज की अभिनव संरचना होने जा रही है। उसमें अनाचारों, आक्रमणों, अपराधों और आतंकों का वर्चस्व घटता ही चला जायगा। जिस नवयुग की-सतयुग की वापसी के रूप में चर्चा हो रही है, उस पर वही चिंतन, प्रचलन और वातावरण छाया रहेगा जिनका कि प्रतिनिधित्व नारी करती है। इसलिए नवयुग के समाज संरचना में काम आने वाले महत्वपूर्ण तथ्य नारी के द्वारा ही आगे बढ़कर रोपे और सींचे जायेंगे। समूची मनुष्य जाति का अस्तित्व और वर्चस्व मातृशक्ति की अनुकंपा से ही विकसित हुआ और अक्षुण्ण रहा है। इसी तथ्य को अगले दिनों नारी और भी अधिक कुशलता के साथ व्यापक रूप में कर सकने के लिए अवसर प्राप्त करेगी, तो कोई कारण नहीं कि अपने इसी खिन्न उद्विग्न और विपन्न समुदाय को पुरातन काल की सतयुगी व्यवस्था के अंतर्गत जा पहुँचने का सुयोग उपलब्ध न हो।

कला को विकृत करने में पुरुष वर्ग की ही प्रायः भूमिका रही है। उसी के द्वारा विनिर्मित साहित्य में, संगीत में, अभिनय में, विकृतियों से भरा हुआ काल्पनिक स्वरूप गढ़ा गया है। रमणी, कामिनी, भोग्या, वेश्या के रूप में उसका अश्लील चित्रण करने वालों में उन तथाकथित कलाकारों की, व्यवसाइयों की प्रधान भूमिका रही है जो अपनी प्रतिभा का इस संरचना में गर्वपूर्वक उल्लेख करते हैं। नारी अश्लील हो ही नहीं सकती। वह प्रकृतितः भगिनी है, पत्नी है, माता है और मनुष्य का शालीन संवेदनाओं से भरा पूरा उज्ज्वल पक्ष है। वह किस प्रकार अपने पिता, भाई और पुरुष के रूप में जाने जाने वाले अपने उत्पादन के समक्ष अश्लीलता प्रदर्शन की धृष्टता कर सकती है। ति की भी वह अर्धांगिनी है, सहचरी, गृह लक्ष्मी और करुणा, ममता की गंगोत्री है। यौनाचार का भी इस सहयोग में राई-रत्ती जितना स्थान हो सकता है। पर उसमें भी शालीनता का ही समर्थक पक्ष प्रधान है। अश्लीलता के लिए तो दाँपत्य जीवन में भी स्थान नहीं है। फिर सर्वसाधारण के सम्मुख निर्लज्ज बनने में वह अपनी मूल प्रकृति को ध्यान में रखने पर सहमत हो ही नहीं सकती। जिस कामुकता ने हमारी पारिवारिकता, शालीनता और नारी गरिमा का निकृष्ट रूप में चित्रण किया है, उसका बोलबाला तभी तक है, जब तक पुरुष के हाथ में कला को किसी भी दिशा में मोड़ देने का स्वेच्छाचार हथियाया हुआ है। नारी प्रधान समाज की संरचना आने पर उसे केवल श्रद्धा की अधिष्ठात्री के रूप में ही सार्वजनिक मान्यता मिलेगी। अबला और कामिनी जैसे हीनता बोधक लाँछनों से उसे कोई भी लाँछित न कर सकेगा। ऐसा परिवर्तन काल अब सन्निकट ही समझना चाहिए।

प्रदूषण, युद्ध, नशा, दुर्व्यसन, अपराध, अभाव, दरिद्रता, शोषण, विग्रह जैसी अनेकानेक समस्याओं से घिरा हुआ समाज तब पूरी तरह राहत की सांस लेगा, जब नारी का नेतृत्व उसे प्राप्त होगा। उद्दंडता किसी भी क्षेत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों से वंचित बन चलेगी।

इन दिनों करने योग्य काम एक ही है कि नारी को अधिकाधिक शिक्षित, समर्थ, स्वावलंबी, साहसी और समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए सर्वत्र भाव भरे प्रयास चल पड़ें। समर्थ महिलाएँ अपने पिछले समुदाय को अधिक शिक्षित, सुयोग्य बनाने के लिए अपनी क्षमता का अधिकाधिक समय समर्पित करें। हर पति को चाहिए कि अपनी सहचरी को बच्चों को गोद में न लादकर उसे अपने समान ही नहीं, अपने से भी अधिक सुयोग्य कहलाने योग्य बनाने में अपने सच्चे प्रेम का परिचय दे। ऐसा होने पर ही आधी जनशक्ति को अभ्युदय के पथ पर बढ़ा पाना संभव हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118