अंतःकरण ही वास्तविक भाग्य विधाता

August 1994

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आधुनिक तकनीकी युग में व्यक्ति के मानसिक-बौद्धिक स्तर का विकास तो हुआ है, पर अंतः करण के गई-गुजरी स्थिति में पड़े रहने के कारण वह अनेकानेक प्रकार की समस्याओं में उलझा असहाय-अपंगों की तरह बेचैन दिखाई पड़ता है। जबकि मानवी अंतराल में शक्तियों का विपुल भाँडागार भर पड़ा है, पर मानसिक दुर्बलताओं के फलस्वरूप वह आत्मानुभव तथा अतिमानवी क्षमताओं का विकास नहीं कर पाता परिणाम स्वरूप तृप्ति, तुष्टि और शाँति से वंचित रहता है। आत्मोत्कर्ष को उपलब्धि एवं आत्मिक क्षुधा की निवृत्ति के लिए ही ऋषि मनीषियों ने विविध विधि योग साधनाओं और तपश्चर्या का आविष्कार किया और परामर्श दिया है कि अंतःकरण की भाव संवेदना को-उत्कृष्टता को जगाया-बढ़ाया जाय, कारण कि व्यक्तित्व के समग्र विकास की जड़ें अंतःकरण की गहराई में ही विद्यमान हैं। नर से नारायण बनने का उद्गम स्थल यही है। ऋद्धि-सिद्धियों के भंडार इसी की तिजोरी में बंद हैं। इसे ही विकसित करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

यों तो व्यक्तित्व के विकास में कई तथ्यों का समावेश रहता है। इनमें एक शरीर में जीवनी शक्ति का प्रकटीकरण भी है जिसमें वह हृष्ट-पुष्ट सुडौल-निरोग एवं सुन्दर आकर्षक बना रहे। आशा और उमंग मन में भरी रहे। उत्साह और साहस का स्वभाव में समावेश हो, हँसने-मुस्कुराने की आदत हो तो व्यक्ति की आकृति-प्रकृति में उच्चस्तरीय आकर्षण का विकास होता है, भले ही उसकी बनावट में कुरूपता का ही बाहुल्य क्यों न हो। चेहरा मनः स्थिति का प्रतिबिंब है। निश्छल भोले-भाले, सज्जन और चरित्रवान व्यक्ति अपनी विशेषता अनायास ही प्रकट करते रहते हैं। प्रकृति ने कुछ ऐसी व्यवस्था की भी है जिससे व्यक्ति की भाव भंगिमा, शिष्टता एवं कार्य-पद्धति को देखते ही यह पता लग सके कि वह कितने पानी में है। अपने को प्रतिभावान बनाने के लिए शरीर और मन को इस प्रकार ढाला जाना चाहिए कि वह सौंदर्य, सज्जा, शिक्षा, कौशल आदि के अभाव में भी अपनी विशिष्टता का परिचय दे सके। इसमें आदर्शवादी अवलंबनों को ग्रहण करना ही अधिक प्रतिभा को विकसित करने की भूमिका निभाता है।

शालीनता व्यक्तित्व को वजनदार बनाने की दूसरी शर्त है। इसी सत्प्रवृत्ति को सज्जनता शिष्टता, सभ्यता, सुसंस्कारिता आदि नामों से पुकारते हैं। यह गुण, कर्म, स्वभाव में इतनी गहराई तक घुली रहती है कि किसी के पास कुछ समय बैठने उसे सुनने-समझने का अवसर मिलने, निकट से रहन-सहन और स्वभाव-व्यवहार पर थोड़ी सी दृष्टि डालने भर से पता चल जाता है कि बचकानापन किस मात्रा में घट गया और वजनदार व्यक्तियों में पायी जाने वाली विशेषताओं का कितना उद्भव-समावेश हो गया।

व्यक्तित्व विकास की सबसे महत्वपूर्ण परत अपना अंतःकरण है। इसकी महत्ता को पाश्चात्य मनीषियों ने भी स्वीकार किया है। प्रख्यात मनोवेत्ता जुँग ने अंतःकरण की ऊर्जा ‘लिविडों’ की महत्ता समझने-समझाने का भरपूर प्रयत्न-प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं “कि न जाने क्यों यह तथ्य बुद्धिमानों के गले नहीं उतरता कि वे मस्तिष्कीय चमत्कारों की तुलना में कहीं अधिक विभूतियाँ अंतःकरण को विकसित एवं क्रियान्वित करते हुए प्राप्त कर सकते हैं। अंतःकरण को यदि उच्चस्तरीय बनाया जा सके तो फिर कहीं किसी चीज की कमी नहीं रहेगी और तब अपने पराये का भेद भी समाप्त हो जायगा।”

अंतःकरण के व्यापक विकास में किन-किन साधनों की आवश्यकता पड़ेगी क्या साधन जुटाने पड़ेंगे, यह सोचते समय एक ....................................... का ध्यान रखना होगा कि ........................ क्षेत्र की सबसे बड़ी प्यास उस घनिष्ठता-आत्मीयता की होती है, जिसे व्यवहार में सद्भाव संफा मैत्री कहते हैं। पुरातन भाषा में इसी को अमृत कहते थे। पुरातन भाषा इसी को अमृत कहते थे। अंतरंग प्रेम को ईश्वर भक्ति और बहिरंग प्रेम को उदार सेवा साधक कहा जाता रहा है। बहिरंग प्रेम पारिवारिक और सामाजिक जीवन में उगाया-बढ़ाया जाता है तो ईश्वर भक्ति अर्थात् अंतःकरण के विकास के लिए अध्यात्म परक साधना उपचारों का सहारा लिया जाता है।

महर्षि अरविंद कहते हैं कि सामान्य मनुष्य का व्यक्तित्व अनेकों जाल-जंजालों से बना हुआ अच्छा खासा तमाशा होता है। उसमें कुसंस्कारों, निकृष्ट अभिलाषाओं और उफनते उद्वेगों की भरमार होती है। ऐसे लोगों के लिए न तो एकाग्र होते बन पड़ता है और न अंतर्मुखी होने की स्थिति आती है। ऐसे लोग वस्तुओं को माँग, परिस्थितियों की शिकायत और साथियों पर आक्षेप करते-करते ही दिन गुजारते हैं। उन्हें यह सूझता ही नहीं कि अंतराल में विकृति भर जाने से ही अनेकानेक विपन्नताएँ उत्पन्न होती हैं। इस विषम स्थिति से छूटना कठिन नहीं है। मकड़ी की तरह स्वयं अपने हाथों बुने जाते को समेटने का साहस किया जा सके तो मुक्ति का आनंद ले सकना हर स्थिति के व्यक्ति को भी सरल हो सकता है।

मनःशास्त्री भी अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि व्यक्तित्व की उत्कृष्टता-निकृष्टता का केंद्रबिंदु मनुष्य के अंतराल का स्तर ही है। मनः संस्थान के इस सबसे गहरी-अंतिम परत को ‘सुपरचेतन’ कहा गया है। ‘सुपर’ इसलिए कि उसकी मूल प्रवृत्ति मात्र उत्कृष्टता से ही भरपूर है। उसे यदि अपने वास्तविक स्वरूप में रहने दिया जाय, अवाँछनीयताओं के घेरे में जकड़ा न जाय, तो वहाँ से अनायास ही ऊँचे उठने-आगे बढ़ने की ऐसी प्रेरणा मिलेगी जिन्हें आदर्शवादी उच्चस्तरीय ही देखा जा सके। प्रकाराँतर में ‘सुपर चेतन’ को ईश्वर के समतुल्य ही माना जा सकता है। वेदाँत दर्शन में ........................................................................................ ‘शिवोऽहम्’, ‘तत्वमसि’, आदि सूत्रों में जिस सत्ता को परमतत्व परमात्मा माना है वह परिष्कृत अंतःकरण ही है। उसी को विज्ञान की भाषा में ‘सुपर चेतन’ कहते हैं।

अंतःकरण की इसी गहन परत को विकसित करने के लिए भक्तियोग का आश्रय लिया जाता है। कर्म योग से शरीर , ज्ञान योग से मस्तिष्क और भक्ति योग से अंतःकरण की साधना की जाती है। अंतःकरण को ब्रह्म, मनः संस्थान को विष्णु और कायकलेवर को रुद्र की उपमा दी गयी है। यही तीनों व्यक्तिगत त्रिदेव हैं जिनके वरदान-अभिशाप पर उत्थान पतन की सारी संभावनायें अवलंबित हैं।

अध्यात्मवेत्ता अंतःकरण को कहीं अधिक महत्व देते हैं और उसे मनःसंस्थान से कहीं अधिक उच्चस्तरीय मानते हैं। कार्य कौशल से लोक व्यवहार बनता है। बुद्ध वैभव से उपयुक्त निर्णय होते हैं, किंतु अंतःकरण तो समूचे व्यक्तित्व का ही अधिष्ठाता है। उसकी परिष्कृत स्थिति ही सामान्य स्थिति में मनुष्य को महामानव, अतिमानव, ऋषि, देवता, देवदूत स्तर तक पहुँचाने हमें समर्थ होती है। अपने ही भीतर विद्यमान इस देवलोक का माहात्म्य ऋषि मनीषी सदा से ही बताते और उसकी अनुकंपा उपलब्ध करके जीवन लाभ देने वाले विभिन्न प्रतिपादनों द्वारा समझाते रहे हैं। सिद्धाँत और प्रयोग दोनों ही इन प्रयोजनों के लिए उनने गढ़े-परखे और प्रचलित किये हैं।

वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में अब भौतिकवादी, समाजशास्त्री, तत्वज्ञानी, नीतिशास्त्री, मनोविज्ञानी सभी इस मिले-जुले निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि पतन-पराभव से छूटने और वरिष्ठता, उत्कृष्टता उपलब्ध करने के लिए ‘सुपर चेतन’ की अर्थात् अंतःकरण की उच्चस्तरीय परतें खोजी-कुरेदी जानी चाहिए। परामनोविज्ञान, मेटाफिजिक्स आदि माध्यमों से भी पिछले दिनों मनःसंस्थान की अचेतन परतों की महत्ता बखानी जाती रही है और उसे जगाने उभारने के लिए तरह-तरह के प्रयोगों की चर्चा होती रही है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, विचार संचालन प्राण−प्रत्यावर्तन, भविष्य ज्ञान जैसी कितनी ही अतीन्द्रिय क्षमतायें इस संदर्भ में खोजी और परखी गयी हैं। इस दिशा में प्रयास चालू रखते हुए भी मूर्धन्य स्तर के मनीषी इस बात पर जोर दे रहे है। कि अचेतन से भी असंख्य गुनी उच्चस्तरीय संभावनाओं से भरे-पूरे ‘सुपरचेतन’ को नये सिरे से समझा-खोजा और उसके अभ्युदय का अभिनव प्रयास किया जाय। वे मानने लगे हैं कि अंतःक्षेत्र की उपलब्धियाँ व्यक्ति और समाज में उच्चस्तरीय परंपराओं का समावेश और नये युग का नया सूत्रपात कर सकने में समर्थ हो सकती है।

‘साइकोलॉजी ऑफ इंट्यूशन’ नामक अपनी कृति में प्रख्यात मनोवैज्ञानिक एमिली मारकाल्ट ने अंतःकरण की चर्चा करते हुए कहा है-”यह शरीर एवं व्यक्तित्व की चेतना का अतिसूक्ष्म एवं उच्चस्तरीय भाग है। ज्ञानेन्द्रियों और तर्क बुद्धि से जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं उनसे भी कही अधिक महत्वपूर्ण समाधान उच्च चेतन मन की सहायता से मिल सकता है। इस तंत्र को उजागर कर लेने का अर्थ है एक ऐसे देवता का साथ पा लेना जो उपयोगी सलाह ही नहीं देता, वरन् महत्वपूर्ण सहायता भी करता है। यही वह क्षेत्र है जहाँ से आदर्शवादी प्रेरणा में एवं उमंगे उभरती और मानवी को महामानव बनाने में सहायता करती हैं।

सुप्रसिद्ध मनीषी मार्टिन ट्रिनबी ने लिखा है विचार बुद्धि की उपयोगिता कितनी ही क्यों न हो, पर वह रहेगी अपर्याप्त ही। चेतना की पूर्णता का केन्द्र मस्तिष्क नहीं, अंतःकरण है। अब तक प्रकृति को खोजा, पाया और उसका दोहन किया गया, परन्तु अब परमात्मा की खोज और उसके पाने की बारी है। ऐसा संपर्क साधने के लिए एक मात्र स्थान मानवी अंतःकरण है। सहायता इसी केन्द्र में बसती है। हेनरी गाल्डर ने अपने ग्रंथ “एवोल्यूशन एण्ड मैन्स प्लेस इन नेचर” में इसी केन्द्र की विशालता को और अधिक गहरा बनाने पर जोर दिया है। उनका कहना है कि वस्तुओं का लाभ जिसे उठाना है, उसकी अंतः चेतना यदि निकृष्टता परायण रही तो संपदा का दुरुपयोग ही होगा। संपदा कितनी ही क्यों न बढ़े, पर यह ध्यान तो रहे कि उपभोक्ता की गरिमा ही साधनों का सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकती है।

जिस तरह परमाणु का ऊर्जा केन्द्र ‘यूक्लियस’ को माना जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य की स्थिति और संभावनाओं का केन्द्र बिंदु उसके अंतःकरण अंतराल को समझा जा सकता है। यहीं से मनः संस्थान को निर्देश मिलता है और वह एक अच्छे सेवक की तरह वैसा ही सोचना आरंभ कर देता है जिससे कि आकाँक्षा की पूर्ति संभव हो सके। मन की सोचने की दिशाधारा पूर्णतया अंतःकरण के संकेतों के ऊपर निर्भर है। वह तर्क तथ्य, प्रमाण, उदाहरण इसी स्तर के ढूंढ़ता और क्रमबद्धता करता है जिससे अपने अधिष्ठाता अंतःकरण की इच्छापूर्ण हो सके। इसके लिए वह चिंतन तंत्र को ही नियोजित नहीं करता है, वरन् शरीर-वाहन को भी इसी प्रयोजन के लिए नियोजित करता है। अंतः करण का आदेश मन मानता है और मन के इशारे पर चलने वाला शरीर स्वामी भक्त सेवक की भूमिका निभाने लगता है। इसमें उसे भला-बुरा सोचने या किसी प्रकार ननुनच करने की भी इच्छा नहीं होती। संक्षेप में अंतराल को ही मनः संस्थान और कायकलेवर का सूत्राधार कह सकते हैं। जो किया और सोचा जाता है उस समूचे क्रिया तंत्र का अधिष्ठाता अंतःकरण को ही कहा-माना जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी।

मनोविज्ञान की भाषा में अंतःकरण को ही ‘सुपरचेतन’ कहा गया है। अध्यात्मशास्त्र में इसी अंतराल को जीवात्मा का निवास स्थान कहा गया है। मनुष्य की व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने और उस पर अनुग्रह बरसाने वाला-वरदान देने वाला जो ईश्वर है और जो हर व्यक्ति के साथ रहता है वह इसी अंतःकरण में बसता है। उसी की अनुकूलता-अनुकंपा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना, मंत्र, जप, अनुष्ठान से लेकर तप एवं योग साधनाओं का सृजन हुआ है। अंतःकरण ही मनुष्य का भाग्य विधाता है। इस क्षेत्र को उच्चस्तरीय भाव संवेदनाओं-आस्थाओं आकाँक्षाओं से अनुप्राणित करने पर ही व्यक्ति और समाज को वर्तमान से उबारा और उज्ज्वल भविष्य के निकट पहुँचाया जा सकता है।


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