विशेष लेख- - एक माँ की अंतः वेदना एवं अपेक्षा भरी गुहार

August 1994

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दो शरीर व एक मन- दूध व पानी घुल-मिल कर जिस प्रकार एक हो जाते हैं, ऐसी जीवन यात्रा हमारी एवं पूज्य गुरुदेव की रही जिसमें हम दोनों ने एक दूसरे के पूरक बनकर अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के लिए जो भी कुछ संभव था किया तथा बदले में असीम स्नेह-प्यार भरी संवेदना तथा अकथनीय सम्मान पाया। गुरुदेव का जीवन एक समिधा की तरह तिलतिल कर जला व जीवन यज्ञ की इस प्रतिक्रिया में अपनी सुगंध बिखेरता हुआ अपने अस्सी वर्षीय जीवनकाल के एक-एक क्षण को मानव मात्र के लिए नियोजित होता चला गया। कैसे भुलाऊँ मैं अपने साथ बिताए गए उनके उन क्षणों को जिनमें उनने न केवल मुझे असीम स्नेह दिया, वरन् करोड़ों पुत्रों की माता के सर्वोच्च शिखर पर पदासीन कर दिया।

समष्टि की पीड़ा-उसके निवारण हेतु साधनात्मक पुरुषार्थ में ही जीवन की हर साँस लग जाए यही शिक्षा उनके साथ जुड़ने के बाद पहले दिन से मिली यथा संभव मैंने उनके कंधे से कंधे मिलाकर चलने का प्रयास किया। यही क्रम पिछले कई जन्मों में भी तो चला आ रहा था अतः कोई भी अटपटापन अनुभव नहीं हुआ। बदले में असीम शाँति-चरम आनन्द की अनुभूति होती रही । रोतों के आँसू पोंछने, उनकी पीड़ा बँटाने, उनके प्रारब्ध को हलका करने, के लिए जितना भी कुछ संभव था, वह गुरुदेव की साधना के साथ अपनी समर्पण साधना जोड़कर करते रहने का प्रयास किया। परिजन स्वयं ही इस तथ्य के साक्षी हैं कि ममता के असीम सागर पूज्य गुरुदेव जिनका अंतः कारण करुणा से लबालब था, कितना कुछ उन्हें देकर गए है। किसी को भौतिक उपलब्धि के रूप में मिला तो किसी को कष्टों से मुक्ति के रूप में किन्तु इस रिजर्व बैंक में कही कोई कमी नहीं रही।

मुझे अभी तक स्मरण है। विवाहित जीवन के बीस वर्ष ही बीते थे कि उनने मुझे एक बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी। वह थी हिमालय जाते समय अज्ञातवास की अवधि में ‘अखण्ड-ज्योति’ पत्रिका के संपादन की। साथ ही 1958 के ऐतिहासिक 1008 कुण्डीय यज्ञ की ऊर्जा से विनिर्मित गायत्री परिवार रूपी नन्हें पौधे की सुरक्षा ताकि कोई भी परिजन इस एक डेढ़ वर्ष की अवधि में अपने को एकाकी अनुभव न करें। पूज्यवर की दी हुई शक्ति से ही वह दायित्व निभा, उनने इस अवधि में कठोर तप के साथ वेदों का भाष्य किया तथा एक साधक की डायरी के पृष्ठों के रूप में अपने अज्ञातवास के अनुभव लिख भेजे, जो ‘सुनसान के सहचर’ पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। मैं तो एक कठपुतली मात्र थी, नचाने वाला कलाकार वह था जो मेरा इष्ट था, आराध्य, मेरा गुरु, मेरा सब कुछ जिसे समर्पित था। निजी परिवार से बढ़कर समष्टि परिवार का दायित्व जिस सत्ता ने मुझे सौंप दिया था।

विश्व मात्र पर आसन्न विभीषिकाओं के गहन घटाटोप बादल जब उनने अपनी दिव्य दृष्टि से देखते तो’ महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया’ के अंतर्गत आगामी साधनात्मक पुरुषार्थों की व उसमें जन-जन की सहभागिता की घोषणा की तथा स्वयं मथुरा की अपनी कर्मभूमि स्थायी रूप से छोड़कर 1971 में हरिद्वार सप्तसरोवर में मेरे लिए शान्तिकुँज नामक एक साधना स्थली का निर्धारण किया तथा स्वयं हिमालय तप-पुरुषार्थ हेतु जाने की घोषणा की। विदाई की अवधि आयी एवं पुनः मुझे उनसे विलग होकर हृदयवेधी मर्मांतक वेदना झस्लते हुए सप्तसरोवर के शाँतिकुँज से 20 जून 1971 को उन्हें विदाई देनी पड़ी। निविड़ एकाँत का निवास, कुछ तपस्विनी कुमारी कन्याएँ तथा मात्र तीन सहयोगियों के साथ चौबीस करोड़ गायत्री जप का अनवरत क्रम आरंभ हुआ। मिशन की गतिविधियों ने तब एक नया मोड़ लिया, जब पूज्य गुरुदेव तप अर्जित रक्ताभ लालिमा के साथ एक वर्ष बाद लौटे एवं प्राण प्रत्यावर्तन सत्रों की-जीवन साधना सत्रों की तथा ऋषि परंपरा के बीजारोपण तथा क्रियान्वयन की घोषणा उनने की। उनका आना व मुझे उनका समर्थ अवलंबन मिला मेरे लिये संजीवनी का काम कर गया गायत्री परिवार व उसकी गतिविधियाँ दुर्गति से बढ़ती चली गयीं। फिर भी एक प्रत्यक्ष परिवर्तन सभी ने देखा कि पूज्यवर ने अपने को पृष्ठभूमि में रखा तथा मुझे ही आगे आकर सारे परिवार की लालन-पालन की व्यवस्था सँभालने हेतु आगे कर दिया। कई बार मैं कहती भी थी कि यह भार मुझ से संभलेगा नहीं उनने कहा कि शक्ति हमारी है, तुम प्यार बाँटती चलो, सभी को एक सूत्र में बाँधती चलो, महाकाल ने ही इस मिशन को माध्यम बनाया है-धरती के भाग्य को बदलने का। इसके लिए हम तुम जितना भी कर सकें, किया जाना चाहिए।

वही हुआ भी एवं फिर एक और परीक्षा घड़ी सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान आयी जब उनने एक-दो परिजनों व मेरे अलावा सभी से मिलना बंद कर कठोर तप आरंभ कर दिया। आहार न के बराबर एवं सारा ध्यान जगती पीड़ा पर। 1986 की वसंत पंचमी पर यह क्रम समाप्त हुआ। मिशन बढ़ता चला गया चक्रवृद्धि गति से नवयुग के मत्स्यावतार का रूप जो था एवं सभी आशा भरी दृष्टि से सतयुग की वापसी की प्रक्रिया के लिए शाँतिकुँज-इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री की ओर निहारने लगे।

जिससे चोली-दमन का संबंध था, जिसके साथ आत्मा के सूत्र अविच्छिन्न गहराई से जुड़े थे, उसी गुरुसत्ता ने मेरे भगवान ने जब 1990 वसंत पंचमी पर स्वेच्छा से गायत्री जयंती पर स्थूल काया के बंधनों से मुक्त हो सूक्ष्म व कारण में संव्याप्त हो कार्य को द्रुतगति से बढ़ाने की घोषणा की तो यह शरीर मन टूटता सा दीखने लगा। जीवन की नैया कैसे उस सत्ता के बिना खिवैया के बिना आगे बढ़ेगी-मानों आँखों के सामने अँधकार सा छा गया। किंतु हिम्मत उनने ही दी। ‘ज्योति कभी बुझेगी नहीं’ शीर्षक से लिखे गए लेख से लेकर 2 जून को दिये गए उनके अंतिम संदेश तक छाती पर पत्थर बाँधकर मैंने वह किया जिसकी मेरे आराध्य ने मुझ से अपेक्षा की थी। प्रत्यक्षतः उनकी स्थूल काया से उनसे बिछुड़ना इस प्रकार, मानों जल से निकली गयी मछली का पीड़ा से तड़पना। मेरे बच्चों को, करोड़ों गायत्री परिजनों को पूज्यवर सूक्ष्म व कारण सत्ता से जो देना चाहते थे- सवारी जगती पर छाये संकटों के निवारण हेतु साधनात्मक पुरुषार्थ का माध्यम बनाना चाहते थे, वह उनके गायत्री जयंती 2 जून 1990 के महाप्रयाण के बाद संभव होता चला गया। श्रद्धाँजलि समारोह, शक्ति साधना सत्र, शपथ समारोह एवं संस्कार महोत्सवों के उपक्रमों के बाद देवसंस्कृति दिग्विजय के क्रम में अठारह अश्वमेध महायज्ञों द्वारा भारत व पूरी धरित्री पर देव संस्कृति का अलख जगाने की जो प्रक्रिया विगत 4 वर्षों में संपन्न हुई है, उसने करोड़ों व्यक्तियों की चेतना को प्रभावित ही नहीं किया है, सतयुग का स्वप्न साकार होने की पूर्व भूमिका भी बना दी है। प्रत्येक महायज्ञ में पच्चीस-तीस लाख व्यक्तियों का जुड़ना, उनके द्वारा संस्कृति विस्तार का संकल्प लिया जाना, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन सत्प्रवृत्ति संवर्धन के कार्यक्रम आरंभ होना-यह सभी बताते हैं कि महाप्रयाण के बाद गुरुदेव की सूक्ष्म व कारण सत्ता ने कितना कुछ कर दिखाया है। जो विगत साठ वर्षों में नहीं बन पड़ा था, उससे कई गुना अधिक विगत तीन वर्षों में संपन्न हुआ है। यह शक्ति का चमत्कार है।

किन्तु पीड़ा-पतन-पराभव से भरी इस दुनिया को आमूलचूल सही करने तथा 2005 तक उज्ज्वल भविष्य से भरा सतयुग लाने का संकल्प पूरा करने के लिए अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। भारत भूमि ही नहीं, सारी विश्व वसुधा इन दिनों अनैतिकता-आपराधिकता-द्वेष-उन्माद के आतप से झुलस रही है। मैंने सारी धरती की परिक्रमा विगत 3 वर्षों में की है तथा प्रत्यक्षतः देखा है कि व्यक्ति-व्यक्ति के मनों में दुख, पारिवारिक जीवन के विग्रहों तथा समाज की विषमताओं-तोड़−फोड़ भरी विपन्नताओं से भरी परिस्थितियाँ कैसे परोक्ष जगत को प्रदूषित किये जा रही है। नारी पर हो रहा दमन, दहेज के नाम पर जलती बहुएँ, यौन शोषण बढ़ोत्तरी पर है। वैभव के बढ़ते चले जाने-तकनीकी प्रगति के बावजूद हर व्यक्ति आज बेचैन है, क्षुब्ध है तथा भविष्य के प्रति उसके मन में अनिश्चितता है। अपहरण-फिरौती के मामले बढ़ते जा रहे हैं, व्यक्ति संवेदनहीन होता जा रहा है व ऐसा लगता है कि समाज के इस बढ़ते कैंसर के लिए कोई सूक्ष्मतम स्तर का उपचार शीघ्र ही खोजना होगा ताकि सभी को शरीर, मन, अंतःकरण से पवित्र बना उन्हें आगामी कष्टों से जूझने के लिए एक सुरक्षा कवच दिया जा सके। दैवी प्रकोप भी तेजी से बढ़े है। शूमेकर-लेवी धूमकेतु जैसे क्षुद्रग्रह की बृहस्पति को टक्कर व उससे अंतरिक्ष जगत में परिवर्तनों के बारे में वैज्ञानिक जो नहीं बता सकते, वह आज से बारह वर्ष पूर्व पूज्यवर अखण्ड-ज्योति में जुपीटर इफेक्ट की व्याख्या के समय बता गए। विमान दुर्घटनाएँ बढ़ रही है व बाढ़-भूकम्प-महामारी-दुर्भिक्ष-ज्वालामुखी विस्फोट का संकट वृद्धि पर है। कहने को तो तृतीय युद्ध का खतरा टल गया पर उत्तर कोरिया के पास आधुनिक हथियारों व आणविक बमों का जखीरा तथा विभाजित हुए रूस के एक-एक देश के पास विद्यमान अणुबम इस्लामिक बम की आसन्न आपत्ति अभी भी शीतयुद्ध का वातावरण बनाए हुए है। कहने का आशय यह है कि अभी भी सूक्ष्म स्तर पर एक बड़ी व्यापक तैयारी होनी है जिससे कि नव-सृजन को संकल्पित आत्मबल संपन्न देवमानवों की उत्पत्ति संभव हो सके एवं विनाश को टाला जा सके।

यह सब कब व कैसे होगा, कौन करेगा ? इसकी चिंता परिजन न करें। महाकाल ने इस मिशन को युग परिवर्तन का निमित्त बनाने हेतु ही कौरवों की सेना के बीच ला खड़ा किया है। बुझती शमा जब भी लपलपाती है, कइयों को लगता है कि यह तो और बढ़ गयी है किन्तु यह क्षणिक चमक कुछ ही पल में ओझल हो जाती है। मरणासन्न व्यक्ति तेजी से सांसें लेता है तो पास बैठे रिश्तेदारों की आँखों में चमक आ जाती है कि संभवतः अब यह पुनः प्राणदान पा लेगा। किंतु चिकित्सक जानते हैं कि यह अंतिम वेला है। प्राण अब शरीर छोड़ने ही वाले हैं ऐसा ही कुछ इन दिनों हो रहा है। हमें मनोबल खोना नहीं, सँजोना है तथा नीति से मोर्चा लेने वाली ताकतों को एक जुट करना है। परिजन मात्र इतना ही करें कि अपने साधनात्मक पुरुषार्थ में वृद्धि कर दें तथा समष्टि में संव्याप्त महाकाल की सत्ता से एकात्मता स्थापित करने का प्रयास करें ताकि श्रेष्ठ वातावरण बनने में मदद मिले।

मेरी अपनी स्थिति इन दिनों परम पूज्य गुरुदेव की सूक्ष्म व कारण सत्ता के साथ पल-पल स्पंदन लेती हुई सी है। हर श्वास में मेरे आराध्य-गुरु मेरे भगवान ही मुझे दिखाई देते हैं। उन्हीं के निर्देशों से विगत चार वर्ष की जीवन नौका चलती रही। अब आगे भी उन्हीं के इशारों पर चलते चले जाना है। परिजन तनिक भी परेशान न हों, मन को दुखी न करें, न ही उद्विग्न हों कि हम विगत दो माह से अपनी आध्यात्मिक माता के स्थूल दर्शन न कर पाए। यह शरीर तो शक्ति का वाहक हाड़ माँस का चोला भर है। इसे जितने दिन कार्य करना है, करेगा पर अपना वह आश्वासन वह अपनी गुरुसत्ता के साथ मिलकर अवश्य पूरा करेगा कि जब तक अपना एक भी बालक दुखी है, उसे दिलासा देने साँत्वना देने उसकी माँ उसके पास ही कहीं विद्यमान है। उसके डैने इतने बड़े हैं कि सारी जगती के दुखी जनों को वह अपनी संरक्षण छाया में रख सकती है।

मात्र गायत्री परिवार के परिजनों के दुख कष्ट ही नहीं सारी धरित्री के कष्ट जहाँ मिटाने का प्रसंग समक्ष हो, दैवी विधान बनकर वह सामने आया हो तो अपना एक ही कर्तव्य रह जाता है कि जो भी निर्देश आ रहा है, वह स्वीकार किया जाय। बच्चे अपनी माँ के स्थूल कष्ट को देखते हैं तो अपनी पूरी कोशिश करते हैं एवं उसे यथा संभव आराम देने का प्रयास करते हैं। आवश्यकता पड़ने पर उच्चतम स्तर पर उपलब्ध सहायता भी देने का प्रयास करते हैं। पर अपनी निजी इच्छा तो यही है कि स्वयं को प्रकृति के प्रवाह के अंतर्गत महाकाल की सत्ता के अधीन कर दिया जाय, वह जो चाहे करे’-जैसा चाहे करे।

इस मिशन का भविष्य निश्चित रूप से उज्ज्वल है। इसे वह भागीरथी पुरुषार्थ करना है जिसमें साठ लाख सगर पुत्रों को शाप मुक्त किया गया था। अब तो यह संख्या बढ़कर 600 करोड़ तक जा पहुँची है। हम लोग अभी मात्र छह करोड़ हैं। सौ गुना होने के लिए मानवी पुरुषार्थ काफी नहीं इसे अतिमानवी स्तर पर ही पूरा करना होगा। प्रत्यक्षतः यह कार्य कोई भी करता दिखाई पड़े किंतु शक्ति का प्रवाह सूक्ष्मजगत से ही चलेगा। अश्वमेधिक पुरुषार्थ ने मेरी उम्मीदें और भी प्रबल बनादी है। एवं पूरी आशा है कि मजबूत कंधों वाले मेरे बच्चे हमारे सौंपे गए दायित्वों को जरूर निभाएँगे। जो इस समय इस प्रवाह में जुड़ा रहेगा वह आगामी 11-12 वर्षों में स्वयं को श्रेय-सम्मान का अधिकारी होता पाएगा। देवसंस्कृति दिग्विजय का यह उपक्रम जो पिछले दिनों चला है, उसने आशाएँ प्रबल कर दी हैं कि यदि सत्प्रयोजनों के लिए कुछ सज्जन जुट पड़े तो परिवर्तन होकर ही रहता है। यह समय भी कुछ ऐसा ही विशिष्ट है।

संधिकाल की वेला वाला यह समय है, वह बार-बार नहीं आने वाला। सारी धरती के भाग्य को जब नये सिरे से लिखा जा रहा हो तब कंधा मचकाकर उपेक्षा दिखाने वाले निश्चित ही अभागे कहलाये जायेंगे। विशिष्ट समय की जिम्मेदारियाँ भी विशिष्ट ही होती है। यदि हमारे परिजन यह समझ सके तो शक्ति की प्रक्रिया के साथ स्वयं को जोड़कर स्वयं को अर्जुनों, सुग्रीव-हनुमानों की श्रेणी में ला खड़ा कर सकेंगे। चुनाव उन्हें ही करना है।

अब हमारी भूमिका परोक्ष जगत में अधिक सक्रियता वाली होगी। गुरुसत्ता का आमंत्रण तीव्र व तीव्र होता चला हाता है तथा एक ही स्वर हर श्वास के साथ मुखरित होता जा रहा है-युगपरिवर्तन के लिए और अधिक और अधिक समर्पण। ऐसे में प्रत्यक्ष रंगमंच की भूमिका अपने वरिष्ठ बच्चों के कंधों सौंपकर कभी भी हमें सूक्ष्म व कारण सत्ता के रूप में सक्रिय होना पड़ सकता है। शक्ति का प्रवाह कभी अव( नहीं होता इस तथ्य को जानने वाले कभी भी लौकिक स्तर पर चिंतन नहीं करेंगे तथा अपने पुरुषार्थ में साधना पराक्रम में कोई कमी न आने देंगे, ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।

एक माँ जिसके स्तनों में दूध इतना भरा पड़ा हो कि वे फटे जा रहे हों, अपना स्नेह लुटाना चाहती है-बदले में समर्पण चाहती है परिजनों से लोभ-मोह अह के बंधनों से मुक्ति चाहती है। क्या हमारे परिजन यह हमें दे सकेंगे व जिस मिशन रूपी शकट को हम व गुरुदेव खींचकर यहाँ तक लाए थे, आगे बढ़ाते रह सकेंगे-यह प्रश्न प्रत्येक को अपनी अंतरात्मा से आज व अभी पूछना है। किसी परिस्थिति में किसी को अपना मनोबल न खोकर शक्ति के अजस्र चले आ रहे प्रवाह पर पूरा विश्वास रखते हुए आगे ही आगे बढ़ते चले जाना-सिंह शावकों की तरह-वीर पिता व माँ के पुत्रों की तरह। हमारी अंतः वेदना में जो हिस्सा बँटा सकें, उन्हें आमंत्रण है कि वे शाँतिकुँज की रचनात्मक प्रक्रिया से स्थायी रूप से अथवा आँशिक समयदानी के रूप में ओर अधिक गहन स्तर पर जुड़ें। जो मोह को त्याग सकें वे अधिक से अधिक समय व उपार्जन का अंश भगवान के काम के लिए निकाले। जो आने वाले दिनों में संपन्न होने वाले देवसंस्कृति दिग्विजय क्रम के अंतर्गत छोटे बड़े कार्यक्रमों के लिए अपनी प्रभाव क्षमता-सामर्थ्य का सुनियोजित कर सकते हों करें।

परिजनों की इस माँ ने अपने जीवन का हर क्षण एक समर्पित शिष्य की तरह जिया है। अपने आराध्य की हर इच्छा को पूरा करने का अथक प्रयास किया है। प्रत्यक्ष दृश्य पटल पर यदि हम दिखाई न भी पड़े तो हमारा कर्तृत्व जो अब तक गुरुसत्ता की अनुकंपा से बन पड़ा है-सबके लिए प्रेरणा का केन्द्र बना रहेगा एवं हमारे बच्चे सच्चे उत्तराधिकारी बनते हुए आदर्शों के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा करते हुए उज्ज्वल भविष्य समीप लाते दिखाई पड़ेंगे, ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।


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