उपदेश एक ही सार्थक है, यदि हृदयंगम हो जाय

August 1994

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आचार्य धर्मघोष अपने शिष्या के सहित प्रव्रज्या करते हुए आगे बढ़ रहे थे। परिव्राजक जीवन जहाँ लोकसेवा का माध्यम है वहाँ आत्मोन्नति का साधन भी । इसलिए एक अनिवार्य धर्म कर्तव्य की भांति उसे जीवन के तृतीयाँश के साथ जोड़ दिया गया था। आचार्य धर्मघोष उसी धर्माचरण का पालन कर रहे थे। तभी आ गया आषाढ़ का पहला दिन। आकाश मेघों से घिर गया, पुरवाई बहने लगी, विद्युत चमकने लगी, मोर कूक कर वर्षा के आगमन की सूचना लगे। निर्धारित नीति के अनुसार आचार्य को प्रव्रज्या का त्याग कर चातुर्मास करना चाहिए था।

‘क्षुद्रमति!’ गाँ का नायक-जहाँ वे ठहरे हुए थे-आचार्य प्रवर बोले “तात! वर्षा आ गई। हम बढ़कर आगे के गाँव भी नहीं जा सकते । चार महीन यहीं विश्राम करना होगा ? आपको कुछ कष्ट तो नहीं होगा, हमारी व्यवस्था में।”

कष्ट !.......... क्षुद्रमति बोला-आर्य श्रेष्ठ आप जैसे सर्वथा त्यागी और तपस्वी के आतिथ्य में कष्ट क्या हो सकता है किंतु एक बात है कहने में संकोच होता है और उसे छिपाया भी नहीं जा सकता। इस गाँव के सभी लोग दस्यु कर्म करते हैं। मुझे संदेह है कि आपके चार माह यहाँ ठहरने पर कहीं बंधु बांधवों की मति न पलट जाए। हम ठहरे दुष्टकर्मा व्यक्ति आप साधु संत। यदि आप वचन दें कि चार मास यहाँ रहते हुए आप और चाहे जो कुछ कर ग्राम वासियों को उपदेश न दें-यदि ऐसा कर सकते हों-तो आप इस गाँव में सहर्ष चातुर्मास कर सकते हैं।

धर्मघोष ने विचार किया। नीच साधनों से अर्जित कमाई पर जीवित रहना पड़ेगा यह ख्याल आते ही वह कुछ चिंतित हुए पर धर्म के साधन शरीर का जिंदा रखने और धार्मिक मर्यादा का पालन करने के लिए इस शर्त को आप धर्म के रूप में स्वीकार कर लेने के अतिरिक्त कोई चारा भी तो नहीं था। उन्होंने तरुण सरदार क्षुद्रमति की शर्त स्वीकार कर ली।

चार मास बीत गए, धर्मघोष ने किसी प्रकार का प्रवचन नहीं किया। चातुर्मास समाप्त होते ही साधु जन वहाँ से चल पड़े। ग्रामवासी और स्वयं क्षुद्रमति उन्हें कुछ दूर तक पहुँचाने आए। आचार्य धर्मघोष आँखों में अरु भरे चल रहे थे। एक ओर वे विचार कर रहे थे मनुष्य जीवन की अज्ञानता पर मनुष्य थोड़े समय के लिए धरती पर आता है जानते हुए कि यह शरीर कुछ ही दिन का मेहमान है - दुष्कर्म करता है - दूसरी ओर उनकी कर्तव्य भावना कचोटती थी कहती थी तुमने चार मास तुच्छ सही सही पर इनके परिश्रम और जीवन संकट में डालकर कमाए द्रव्य से अपनी जीवन रक्षा की है सो बदले में उनका कुछ उपकार तो करना चाहिए।

गँ की सीमा ऐसे ही विचार करते पार हो गई। धर्मघोष रुके क्षुद्रमति ने उनके पुण्य चरणों में प्रणियात कर क्षमा याचना करते हुए कहा भगवान् ? हमसे जो भूलें हुई हो क्षमता करना कभी इधर आना हो तो फिर सेवा का अवसर देना।

आचार्य की आँखें छलक उठी। उन्होंने स्नेहपूर्वक क्षुद्रमति को हृदय से लगाते हुए और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-”तात! तुम्हारी सेवा से जितना हम प्रसन्न हैं उतना ही इस बात के लिए दुखी कि आप लोगों के अन्न पर चार मास बिताए उसका कुछ भी ऋण चुकाए बिना जा रहे हैं। हमारे पास धर्म शिक्षा के अतिरिक्त और है ही क्या ? अब तो चातुर्मास बीत चुका है, अब हम आपके गाँव की सीमा से भी बाहर है आप कहें तो एक उपदेश चलते समय देते जायँ।

क्षुद्रमति ने एक बार साथियों की ओर दृष्टि डाली-दूसरे क्षण कहा-”महामहिम आप मात्र एक उपदेश दें। हम उसका जीवन भर पालन करेंगे। “

ठीक है अबुस! आचार्य बोले-आज से तुम लोग व्रत लो सूर्यास्त के बाद कभी कुछ खाना मत-रात्रि के समय भोजन को हिंसा कहा गया है उससे कई बार विषैले कीटाणु पेट में चले जाते हैं हानि पहुँचाते हैं। इसलिए विज्ञजनों ने रात्रि में भोजन ग्रहण करना वर्जित किया है।

क्षुद्रमति और उनके साथियों ने इस उपदेश को स्वीकार कर लिया। साधुगण आगे बढ़ गए और क्षुद्रमति साथियों सहित बसती वापस लौट आया। कुछ दिन ऐसे ही बीते ग्रामवासियों ने सूर्यास्त से पूर्व ही भोजन करने का नियम बना लिया। फिर एक दिन दस्युकर्म की योजना बनाई गई। क्षुद्रमति अपने साथियों को लेकर प्रातःकाल से ही निकल गया। निकटवर्ती राज्य के एक गाँव में डकैती डाली उन्होंने। बहुत साधन लेकर वे लोग रातों-रात लौट पड़े। कुछ दूर बाहर आकर थे हारे दस्यु दल ने भोजन और विश्राम की व्यवस्था की। दो दस्यु सामग्री जुटाने के लिए भेजे गए। उन दोनों के मन में पाप आ गया उन्होंने मदिरा खरीदी उसमें विष मिला दिया और सारी सामग्री लेकर आ पहुँचे, दूसरे दस्यु जब सुरापान करने लगे क्षुद्रमति ने प्याला हाथ में ले लिया भोजन पर दृष्टि डाली तभी उसे याद आया वह वचन जो अपने आचार्य को दिया था उसने भोजन एक ओर रख दिया। पापगति दस्युगणों ने वचन पर कुछ भी ध्यान दिए बिना भोजन और सुरापान प्रारंभ कर दिया। विष के प्रभाव से वे सभी एक-एक करके मृत्यु के मुख में जाने लगे। क्षुद्रमति के सामने सारी स्थिति स्पष्ट हो गई। एक ओर उसे आचार्य के उपदेश से जीवन रक्षा की याद आ रही थी, दूसरी ओर उसे अपने ही स्वजनों की इस पाप बुद्धि पर पश्चाताप हो रहा था।

उसका अंतःकरण हाहाकार कर उठा-”लोभ पाप अंततः पतन का पथ ही प्रशस्त करता है। धर्म की एक चिनगारी रक्षा ही करती है। फिर क्यों न धर्म का आश्रय लिया जाय, ऐसा पवित्र और महान जीवन क्यों व्यर्थ गँवाया जाय।”

क्षुद्रमति की बुद्धि पलट गयी। उसने दस्यु कर्म छोड़ दिया। गाँव में रहकर कृषि करने लगा-परिश्रम से कमाकर खाने लगा। उसके जीवन में आयी धर्म की एक किरण सुख शाँति के प्रकाश पुँज की तरह जीवन में छा गई।


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