प्राणशक्ति संवर्धन हेतु ब्रह्मचर्य अनिवार्य

August 1994

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विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि जिन्हें जीवन में कुछ कहने लायक सफलता अर्जित करनी हो, उन्हें ब्रह्मचर्य के महत्व को समझ लेना चाहिए। भौतिक जीवन में जहाँ इससे संकल्प और प्रतिभा का जागरण होता है, वहीं आध्यात्मिक जीवन को विभूतिवान बनाने में इसकी महती भूमिका है।

यों ब्रह्मचर्य का प्रचलित अर्थ तो इंद्रिय संयम है, पर इसका शब्दार्थ इससे बिल्कुल भिन्न है। जो चर्या ब्रह्म के गिर्द चलती हो, वह ब्रह्मचर्य कहलाती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए काम सेवन पर नियंत्रण प्राप्त करना प्राचीन काल में एक आवश्यक अनुबंध के रूप में स्वीकार किया गया था और इस मार्ग को ‘ ब्रह्मचर्य’ कहा गया था। चूँकि इसमें अहिर्निशि ब्रह्मचर्चा और चिंतन ही प्रमुख थे, अस्तु क्रिया बोध नाम रखा गया। उपासना के क्षणों में ईश्वर का गुणानुवाद तो अभीष्ट था ही, इसके अतिरिक्त दिनचर्या के अन्य कामों में भी दिव्य सत्ता का सतत् स्मरण और समीपता का अनुभव किया जाता । इस प्रकार हर कार्य में ब्रह्मसत्ता के बराबर मनन के कारण ही यह मार्ग ब्रह्मचर्य कहलाया।

आज इसकी लकीर भर पीटी जा रही है। तथाकथित भगवद्परायण लोग संयम के नाम पर स्खलन को तो किसी प्रकार रोक लेते हैं, पर मानसिक निग्रह के न बन पड़ने से जो ऊर्जा ऊपर चढ़कर व्यक्ति को उर्ध्वरेता बना सकती थी, वह दूसरे मार्ग से क्षरित होकर उन्हें खोखला बनाती रहती है। इस तरह सत्चिंतन के अभाव में शारीरिक नियमन आधे-अधूरे स्तर का बना रहता है। शायद इसी कारण से प्राचीन आचार्यों ने इस बात की आवश्यकता अनुभव की थी कि मन को सदा उदात्त भूमिका में बनाये रखा जाय। इससे इंद्रिय संयम स्वतः निभता चलेगा। निश्चित ही तब वे इस मनोविज्ञान से पूर्ण-रूपेण परिचित रहे होंगे कि म नहीं कामुकता की जड़ है। उसे यदि किसी श्रेष्ठ चिंतन में लगा दिया गया, तो फिर ‘काम ‘ का ‘उल्लास’ में उदात्तीकरण संभव है। वर्तमान में सर्वत्र इसके विपरीत आचरण हो रहा है, अतः ‘काम’ को परिष्कृत कर पाने में न तो सफलता मिल पाती है, न कोई वास्तविक ब्रह्मचारी बन पाता है।देखा गया हे कि क्षरण को रोक लेना ही संप्रति ब्रह्मचर्य की कसौटी बनी हुई है, भले ही चिंतन कितना ही अश्लील और कामोत्तेजक क्यों न हो । प्राचीन समय में ऐसी बात नहीं थी। तब विचारणा को प्रमुख और बिंदु क्षरण को गौण माना जाता था। विचारणा यदि ठीक-ठीक सध गई, तो फिर काम-क्रीड़ा पर नियंत्रण कोई बहुत कठिन नहीं कहा जा सकता। और यदि इन दोनों पर विजय प्राप्त कर ली गई, तो लक्ष्य तक पहुँचना सरल हो जाता है। यहाँ जानने योग्य तथ्य यह है कि काम-कौतुक से जितनी ऊर्जा बरबाद होती है, उससे कई गुनी अधिक शक्ति मानसिक काम-सेवन से नष्ट होती रहती है। इसलिए आत्मोत्थान के लिए ऊर्जा क्षरण के उक्त दोनों मार्गों को बंद करना पड़ता है, तभी यथार्थ उन्नति करतलगत कर पाना संभव है, अन्यथा दूसरों पर बड़प्पन जताने हेतु येन-केन प्रकारेण भले ही काम-वृत्ति पर रोक लगा दी गई हो, पर इससे कोई बड़े लाभ की आशा नहीं की जा सकती। आत्मोत्कर्ष जैसा महत्वपूर्ण प्रयोजन तो इतने भर से सध ही नहीं सकता। यह तो वैसा ही करना हुआ, जैसे किसी पात्र में रखे पानी के एक मार्ग को बंद कर दूसरे को खोल देना। इससे अंतर इतना ही पड़ सकता है कि जो संग्रह कुछ ही दिनों में समाप्त होने वाला था, अब वह धीरे-धीरे कर खत्म होगा और थोड़े अधिक समय तक चलेगा। यहाँ महत्वपूर्ण यह नहीं है कि शक्ति क्षरण के कितने रास्ते बंद है ? महत्ता इस बात की है कि पथ पूर्णतया बंद है या नहीं ? यदि नहीं, तो फिर यही समझना चाहिए कि धीमी आत्महत्या जैसी प्रक्रिया चल पड़ी, जिसमें व्यक्ति की मृत्यु तो नहीं होती, पर शनैः-शनैः प्राण शक्ति के क्षीण होते जाने से अंत में खोखली काया भर शेष रह जाती है। इस अवस्था में कलेवर पुतलोँ की तरह चलता-फिरता दिखाई तो पड़ता है, पर कुछ कर-धर पाने में असहाय स्तर का बना रहता है। यह मरण से भी बुरी दशा है। ऐसी स्थिति में आत्मोन्नति तो क्या, भौतिक प्रगति भी भारी पड़ने लगती है और जैसे-तैसे कर जर्जर शरीर को खींचा-धकेला जाता है। इस दोहरी हानि से बचने के लिए ही असंयम से विरत रहने का उपदेश किया गया है, जबकि संयम पालने वाले न सिर्फ शरीर की दृष्टि से बलिष्ठ ओज और तेजवान होते हैं, अपितु चेतना की दृष्टि से भी प्राणवान होते हैं। प्राणबल के लगातार इकट्ठा होते चलने से व्यक्ति अपने चरम लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता और अंततः उसे प्राप्त कर लेता है। यह समग्र प्रक्रिया ही ब्रह्मचर्य के अंतर्गत थी, पर इसे विडंबना ही कहना चाहिए। जिसमें आधे को पूर्ण मान लिया गया हो ? “सेलिबेसी-व्हाट डज इट रियली मीन ?” नामक ग्रंथ में जान ट्रेबर लिखते हैं कि वीर्य वस्तुतः एक प्रकार का रसायन है, जिसकी क्षति-पूर्ति शरीर द्वारा बराबर होती रहती है। महत्वपूर्ण इस रसायन को रोक रखना नहीं, वरन् उस अपव्यय की सुरक्षा है, जो सद्पात के साथ प्राण के एक बड़े हिस्से के रूप में बरबाद होती रहती है। यदि प्राण निर्गमन को रोक कर वीर्य को गिरा पाना किसी प्रकार संभव हो, तो फिर रतिक्रिया में किसी प्रकार की कोई हानि जैसी बात नहीं, पर ऐसा कर पाना शक्य नहीं इसीलिए उस क्षति को टालने के लिए वीर्यपात को ही रोकना पड़ता है।

‘काम’ का अपना एक आनन्द है। शरीर उसे भोगना चाहता है, पर जब व्यक्ति हट पूर्वक उसको रोकता और उस मुख से देह को वंचित करता है, तो अंदर से एक तीव्र प्रतिरोध उभरता है। यही खतरनाक है। दुःख और पागलपन यहीं पैदा होते हैं । ऐसी दशा में यदि कोई दूसरा बड़ा सुख मिल जाय, तो विक्षिप्तता टल जाती और एक अनिर्वचनीय आनंद मिलने लगता है। पागलपन तो उस स्थिति में आता है, जब मनुष्य उपलब्ध सुख को त्याग दे, किंतु सामने कोई दूसरा सुख नहीं हो। यदि कोई दूसरा बड़ा सुख मिल जाय, तो निश्चय ही वह पहले वाला छोटा और गौण हो जायेगा,? एवं उसकी महत्ता नगण्य जितनी रह जायेगी, ठीक वैसे ही, जैसे छोटी रेखा के आगे कोई बड़ी लकीर खिंच जाय, तो पहले वाली अप्रधान और दूसरी प्रमुख हो जाती है।

इसकी उपलब्धि के लिए ऋषियों ने एक सारगर्भित सूत्र दिया है। यदि उसे जीवन में उतारा गया, तो निस्संदेह उस बड़े आनंद की प्राप्ति की जा सकेगी, जिसके आगे काम-सुख तुच्छ हो जाता है। यह सूत्र है-अंतर्यात्रा का ? बहिर्यात्रा व्यक्ति को ‘काम’ में उलझाती है, जबकि अंतर्यात्रा उसे ‘राम’ तत्व का रसास्वादन कराती है। इस अंतर्यात्रा का सही ढंग से अभ्यास किया गया, तो भोग से भी अधिक रस इस अंतर्योग में आने लगेगा। यदि इसके पीछे की वैज्ञानिकता को समझ लिया जाय, तो बात और भी स्पष्ट हो जायेगी। यथार्थ में हम जिसे सुख मानते और बाहरी वस्तुओं में तलाश करते हैं, वह वास्तव में अंदर की मन की चीज है। बाहरी जगत से उसका रंचमात्र भी संबंध नहीं। यदि ऐसी बात नहीं रही होती, तो किसी सामग्री के उपभोग के पश्चात् वह फीकी लगती प्रतीत नहीं होती और रस की खोज में मन फिर किसी अन्य की माँग नहीं करता, पर दैनिक जीवन में अनुभव इसके विपरीत होते जान पड़ते हैं। इससे स्पष्ट है- मन ही सरसता और नीरसता के लिए जिम्मेदार है। इस मन के सुख की जो व्याख्या आप्तवचनों में की गई है, उसके अनुसार जब मन का योग एक विशेष प्रकार की विद्युत धारा से होता है, तो सुख की अनुभूति होती है और जब दूसरे प्रकार के प्रवाह से होता है, तब दुःख का कारण बनता है। अर्थात् दोनों स्थितियों के लिए आँतरिक तरंगें ही उत्तरदायी हैं। ब्रह्मचर्य के दौरान इन्हीं में से एक तरंग को जगाना पड़ा है, पर यह जगे कैसे ? इसकी भी प्रक्रिया बतायी गई है।

विज्ञान के अनुसार यह तरंगें सिर के पीछे स्थित दो छोटी परस्पर सटी ग्रंथियों के कारण पैदा होती है। विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि इनमें से यदि सुखोत्पादक ग्रंथि जाग जाय, तो फिर चाहे कितना भी दारुण कष्ट उपस्थित हो जाय, भयंकर घटना घट जाय, व्यक्ति का कभी भी दुःख नहीं होगा। इसी तरह क्लेश पैदा करने वाली ग्लैण्ड के जाग्रत होने से आदमी कदापि सुखी नहीं रह पायेगा, भले ही उसे कुबेर जितनी संपत्ति मिल जाय, साधनों का अंबार लग जाय, अनुकूलता की अट्टालिका खड़ी हो जाय, पर इन सबके बावजूद वह पीड़ित बना रहेगा, कारण कि उक्त ग्रंथियों से संबंधित अंतस् की जो संवेदना थी, वह जाग गई। यह जागरण व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण भी हो सकता है, परंतु यहाँ से मात्र संवेदना को जगाने का निमित्त बनते हैं, सुख दुःख का नहीं। सुख-दुःख का निमित्त तो वह भीतरी स्पन्दन ही है, जिसके कारण ग्रंथियाँ सक्रिय बनती और तत्सम भाव की प्रतीति कराती हैं। इसे संवेदना का विज्ञान कहा गया है। ब्रह्मचर्य के दौरान इसी का संयम करना पड़ता है। इसके मर्म को जिसने समझ लिया, वही ठीक-ठीक उसका पालन कर सकता है, अन्यथा इसके रहस्य को जाने बिना वह बाहरी पदार्थों में ही भटकता रहेगा, संसार से पलायन करेगा, इस उम्मीद में कि शायद कंदरा में ब्रह्मचर्य सध जाय, पर वहाँ भी उसे दुःख के अतिरिक्त कुछ भी हस्तगत नहीं होगा, और जीवन यों ही बरबाद होता चला जायेगा।

यहाँ तनिक उस शरीर शास्त्र को समझ लेना जरूरी है, जो काम वासना का निमित्त है। ज्ञातव्य है कि शरीर की अधिकाँश क्रियाएँ रस-स्रावों पर निर्भर है। यह स्राव यदि ज्यादा हुआ, तो तत्संबंधी क्रिया भी असामान्य स्तर की हो जाती है और कम होने पर भी वह असामान्य बनी रहती है। इन दोनों के स्तर में अंतर होता है। अधिकतम बनने से क्रियाविधि काफी तीव्र हो जाती है, जबकि कम होने पर मंद पड़ जाती है। सामान्य भूमिका में वह तभी रह पाती है, जब हारमोन संतुलित मात्रा में निकलें। यही सहज स्थिति है। वासना की दशा में यौन हार्मोन्स के स्राव पर पहले पिट्यूटरी का कठोर नियंत्रण होता है। यही कारण है कि बालकों को आरंभ के कुछ वर्षों तक काम-लिप्सा का ज्ञान तक नहीं होता, उसके सताने की बात तो दूर है, किंतु जब वह 14-15 साल की अवस्था के हो जाते हैं, तो निसर्ग के नियमानुसार यौन हारमोन्स पर पिट्यूटरी ग्रंथि का नियमन ढीला पड़ने लगता है। उसके ढीला पड़ते ही ‘काम’ संबंधी रसस्राव गोनैड (काम केन्द्र) को प्रभावित करने लगता है। यही वह आरंभिक अवस्था है, जिसमें ‘काम’ संबंधी जानकारी का प्रथम उदय बालकों में होता है। बाद में जिसमें जिस अनुपात में कामरस पैदा होता है, उसमें उसी अंश में उसके प्रति ललक देखी जाती है। कई व्यक्तियों में कई बार यौन के प्रति भयंकर अतृप्ति पायी जाती है, जबकि कुछ सामान्य ढंग की अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं, तो कइयों की इसके प्रति एकदम अरुचि होती है। इन भिन्न-भिन्न मात्रा की ही भूमिका होती है।

इन यौन प्रवृत्ति को नियंत्रित कैसे किया जाय ? इसके दो तरीके हैं-एक दमन का तरीका है, दूसरा उदात्तीकरण का है। जैसा कि पहली कहा जा चुका है, दमन से विक्षिप्तता आ सकती है, व्यक्ति असामान्य बन सकता है, किन्तु उदात्तीकरण से आनन्द की उपलब्धि होती है। यह एक व्यापक आध्यात्मिक प्रयोग है, जिसमें काम वृत्ति को इतना परिष्कृत और विशाल बना दिया जाता है कि सताने जैसी कोई शेष रह नहीं जाती।

काम नियंत्रण के द्वारा जब प्राण शक्ति को संवर्धित किया जाता है, तो वही प्रतिभा, प्रखरता, साहस, मनोबल, पुरुषार्थ, पराक्रम, विवेक सहिष्णुता जैसी कितनी ही धाराओं के रूप में प्रकट और प्रस्फुटित होती है। धृति, स्मृति, आत्मविश्वास, शारीरिक स्वास्थ, कायिक बलिष्ठता, ओज तेज-यह सब ब्रह्मचर्य के ही सत्परिणाम है। जो इसे जितने अंशों में धारण करेगा, उसी परिमाण में हाथों-हाथ यह विभूतियाँ मिलती चली जायेंगी।


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