सच्च सौंदर्य क्या है ? इसकी सही जानकारी एवं आसानी से साक्षात्कार न हो पाने के कारण बहुत से व्यक्ति एक विडंबना में जकड़े मृगतृष्णा में भटकते रहते हैं। पाप का स्वरूप भी ऐसा है जिसमें सौंदर्य व प्रत्यक्षतः आनन्द ही आनंद प्राप्त हो जाने का आकर्षण छिपा होता है, ऐसा आकर्षण जैसा एक शलभ के लिए दीपशिखा में होता है। शिखा की ज्योति का आकर्षण सम्मोहक होता हे, जिसमें फँसकर पतंग अपने पंख जलाकर भी उसी की ओर रेंगता रहता है। अंततः अपनी जान भी जलकर खाक होने के रूप में गंवा बैठता है।
सोचने योग्य बाते हे कि ऐसा क्या है, इसका क्या कारण है कि मनुष्य पाप के प्राणहंता सौंदर्य की ओर सतत् दौड़ता रहता है। यदि मनुष्य को सच्चे सौंदर्य के जो सत्य भी है तथा शिव-कल्याणकारी भी, तो वह पाप के झूठे आकर्षण की ओर कदापि प्रेरित न हो। आत्मा के सौंदर्य की ओर-परमात्मा के चारों ओर संव्याप्त प्रकृति के रूप में विद्यमान सौंदर्य की ओर एक बार मनुष्य जी भरकर दृष्टि डाल ले तो फिर उसे सारे झूठे सौंदर्य भरे पाप के आकर्षणों से घृणा हो जाए व वह निताँत निर्विकार हो बैठे।
सौंदर्य विषयक इस भ्राँति ने ही हर मनुष्य को एक प्रकार की माया में जकड़ रखा है। ‘माया’ अर्थात् वह जो नहीं है पर प्रतीत होती है। इस भ्राँति को कौन समझ पाता है, कौन नहीं, इसी पर मनुष्य जीवन का सारा खोल चल रहा है। मनुष्य की इसी भ्रांति ने इस स्वर्ग तुल्य पृथ्वी को बहुसंख्य व्यक्तियों के लिए नारकीय बना दिया है। ऐसे लोग ईश्वर की इस सुन्दर कृति को अपनी पाप दृष्टि से कलुषित कर देते हैं। उनको प्रतिक्षण अपने निम्न स्तरीय स्वार्थ, पाशविक वासना, जघन्य रुचि की पूर्ति के अतिरिक्त और कोई विचार मन में आता ही नहीं। फलतः वे स्वयं तो पतन के गर्त में गिरते ही हैं, अपने निकटवर्ती जनों के लिए भी काँटे बोते हैं। जिसे आत्मकल्याण की इस चोले में मिले इस विशिष्ट अवसर का सदुपयोग कर आत्मोत्थान की तनिक भी इच्छा है, उसे सदैव पाप से घृणा कर सद्वृत्तियों का चिंतन करते रहना ही अभीष्ट है।