जैसे-जैसे हम स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करते हुए आगे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे हमें संकटों और अभावों के वास्तविक कारणों को समझने में सुविधा मिल रही है। मोटी बुद्धि सदा संकटों का कारण बाहर ढूँढ़ती है। व्यक्तियों परिस्थितियों पर ही प्रस्तुत विपन्नताओं का दोष थोपकर चित्त हलका करने की विडंबना चलती रहती है। समझदारी बढ़ने पर ही यह पता चलता है कि घटिया व्यक्तित्व ही पिछड़ेपन से लेकर समस्त संकटों के घाट हैं। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थिति बनती है उसे विचारशील ही स्वीकार करते हैं। अन्यथा आमतौर से कठिनाइयों के कारण बाहर ही ढूँढ़े जाते हैं। गहराई में प्रवेश किए बिना न तो वास्तविकता जानी जा सकती है और न उनके निवारण का कारगर उपाय ही बन पड़ता है। व्यक्तित्व का घटियापन सूझ ही न पड़े-उसके सुधार की कोई योजना बने ही नहीं तो परिस्थितियों की विपन्नता का समाधान हो नहीं सकता । वे एक से ही दूसरा रूप भर बदलती रहेंगी।
बहुत समय पहले शारीरिक रोगों को बाहरी भूत-पलीतों का आक्रमण माना जाता था। पीछे बात, पित्त, कफ, का ऋतु प्रभाव का कारण उन्हें माना गया। उसके बाद रोग कीटाणुओं के आक्रमण की बात समझी गयी। रोगों की शोधों का अगला चरण यह बना कि आहार की विकृति से पेट में सड़न पैदा होती है और उस विष से रोग उत्पन्न होते हैं। यह क्रम अधिकाधिक गहराई में प्रवेश करने का, अधिक बुद्धिमत्ता का-स्थूल से सूक्ष्म में उतरने का है। इस प्रगतिक्रम में उतरते-उतरते इन दिनों आरोग्यशास्त्र के क्षेत्र में इस तथ्य को खोज निकाला गया है कि शारीरिक रोगों के संदर्भ में आहार-विहार, विषाणु, आक्रमण आदि को तो बहुत ही स्वल्प मात्रा में दोषी ठहराया जा सकता है। रुग्णता का असली कारण व्यक्ति की मनःस्थिति है। मनोविकारों की विषाक्तता यदि मस्तिष्क पर छाई रहे तो उसका अनुपयुक्त प्रभाव नाड़ी संस्थान के माध्यम से समूचे शरीर पर पड़ेगा। फलतः दुर्बलता और रुग्णता का कुचक्र बढ़ते-बढ़ते अकाल मृत्यु तक का संकट खड़ा कर देगा। नए अनुसंधान जीवनीशक्ति का केन्द्र हृदय को नहीं मस्तिष्क को मानते हैं। रक्त की न्यूनाधिकता या विषाक्तता को रुग्णता का उतना बड़ा कारण नहीं माना जाता जितना कि मानसिक अवसाद एवं आवेश को “साइको न्यूरा इम्यूनलॉजी” की पूरी अवधारणा इसी पर आधारित है।
सुविख्यात मनः शास्त्री एच. एलेनवर्गर के शोधग्रंथ “ए हिस्ट्री ऑफ डाइनैमिक साइकियाट्र” के अनुसार शरीर की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्रियाओं पर पूरी तरह मानसिक अनुशासन ही काम करता है। अचेतन मन की छत्र छाया में रक्ताभिषरण, आकुँचन, प्रकुँचन, श्वास-प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, ग्रहण विसर्जन, निद्रा जाग्रति आदि की अनैच्छिक कहलाने वाली क्रियाएँ चलती रहती है। चेतन मन के द्वारा बुद्धिपूर्वक किए जाने वाले क्रियाकलापों और लोक व्यवहारों का ताना-बाना बुना जाता है। शरीर की परोक्ष और प्रत्यक्ष क्षमता पूरी तरह अचेतन और चेतन कहे जाने वाले मनः संस्थान के नियंत्रण में रहती है। उसी के आदेशों का पालन करती है। शरीर का पूरा-पूरा आधिपत्य मन मस्तिष्क के ही हाथों में रहता है। उस क्षेत्र की जैसी भी कुछ स्थिति होती है उसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है। यदि मस्तिष्क आवेशग्रस्त होगा तो शरीर के अवयवों में उत्तेजना और बेचैनी छायी रहेगी। इस स्थिति के ऐसे रोग उत्पन्न होंगे जिनसे शरीर के उत्तेजित होने, गरम होने, फटने फूटने जैसे अनुभव होने लगें। यदि मस्तिष्क, उदास, हताश, शिथिल हो जाएगा तो उस अवसाद का प्रभाव अंग अवयवों की दुर्बलता के रूप में देखा जा सकेगा।
यह मोटा निष्कर्ष हुआ। बारीकी में उतरने पर पता चलता है कि अमुक शारीरिक रोग अमुक मनोविकार के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं और वे तब तक बने ही रहते हैं जब तक कि मानसिक स्थिति में कारगर परिवर्तन न हो। मनीषी एस पी0 ग्रासमैन के शोध पत्र “न्यू होरिजाँन्स आँव साइकोलॉजी” में प्रकाशित इस अनुसंधान ने उस असमंजस को दूर कर दिया है जिसके अनुसार रोगियों को चिकित्सकों के दरवाजे-दरवाजे ठोकरें खानी पड़ती है। नित नई दवाएँ बदलनी पड़ती है। किंतु आशा-निराशा के झूले में झूलते हुए समय परन बीतता रहता है। रोग हटने का नाम नहीं लेते। तेज औषधियाँ अधिक से अधिक इतना कर पाती है कि बीमारी के स्वरूप और लक्षण में थोड़ा बहुत फेर बदल प्रस्तुत कर दें। जीर्ण रोगियों में से अधिकाँश का इतिहास यही है। जिससे औषधि उपचार की निरर्थकता ही सिद्ध होती रहती है।
आहार-विहार जन्य साधारण रोग तो शरीर की निरोधक जीवनी शक्ति ही अच्छी करती रहती है। उसी का श्रेय चिकित्सकों को मिल जाता है। सच्चाई तो यह है कि एक भी छोटे या बड़े रोग का शर्तिया इलाज अभी तक संसार के किसी भी कोने में किसी भी चिकित्सक के हाथ नहीं लगा है। कोई भी औषधि अपने आश्वासन को पूरा कर सकने में सफल नहीं हुई है। अंधेरे में ढेले फेंकने जैसे प्रयास ही चिकित्सा क्षेत्र में चलते रहते हैं। उसी भगदड़ में कभी-कभी किसी अंधे के हाथ बटेर लग जाती है। यदि ऐसा न होता तो कम से कम चिकित्सकों को खुद तो रुग्ण रहना ही न पड़ता । उनके घर वाले संबंधी तो बीमारियों से ग्रसित नहीं ही रहते । देखा यह गया है कि दवाओं की भरमार बीमारियों को घटाती नहीं वरन् उस नई विषाक्तता के शरीर में घुस पड़ने से नए-नए उपद्रव और खड़े होते हैं। सच तो यह है कि चिकित्सकों के शरणागत रहने वाले की अपेक्षा वे कहीं अधिक नफे में रहते हैं जिन्हें चिकित्सा का सौभाग्य या अभिशाप प्राप्त कर सकने का अवसर ही नहीं मिल सका।
शरीर शास्त्री भी अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आरोग्य और रुग्णता की कुँजी मनः क्षेत्र में सुरक्षित है। मानसिक असंतुलन और प्रदूषण का निराकरण किए बिना किसी को भी स्वस्थ शरीर का आनंद नहीं मिल सकता। जीवनीशक्ति का पिछले दिनों बहुत गुणगान होता रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए आकाश-पाताल के कुलावे भी मिलाये जाते रहे है। टानिकों हारमोनों और ग्रंथि आरोपणों जैसे प्रयोग परीक्षणों की भरमार रही है। किन्तु गरीबों की बात तो दूर करोड़पतियों, शासनाध्यक्षों एवं स्वयं चिकित्सकों तक को उस प्रयास में कुछ पल्ले न पड़ा। अब यह निर्णय निकला है कि जीवनीशक्ति कोई शरीरगत स्वतंत्रता क्षमता नहीं है वरन् जिजीविषा की मानसिक प्रखरता ही अपना परिचय जीवनीशक्ति के रूप में देती रहती है। मानसिक स्थिति के उतार चढ़ावों के अनुरूप यह जीवनी शक्ति भी घटती-बढ़ती रहती है। शरीर की बलिष्ठता, सक्रियता, स्फूर्ति ही नहीं कोमलता, सुन्दरता और काँति तक मानसिक स्थिति पर अवलंबित है। विपन्नता की मनःस्थिति में भय, शोक, क्रोध आदि के अवसर आने पर तो तत्काल आकृति से लेकर शरीर की सामान्य स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ते प्रत्यक्ष देखा जाता है। यदि मनोविकार जड़ से जमालें तो समझना चाहिए कि शरीर एक प्रकार से विपन्नता में फँस ही गया और उस दलदल से निकल सकना चिकित्सा उपचार के बलबूते की बात नहीं रह गई है।
टब आरोग्य की दशा और रोग निवृत्ति की दोनों ही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनः संस्थान की खोजबीन करना आवश्यक हो गया है ? और समझा जाने लगा है कि यदि मनुष्य के चिंतन क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों की ओर ध्यान नहीं दिया गया। वहाँ जमी हुई वितृष्णाओं और विपन्नताओं का समाधान न किया गया तो आहार-विहार का संतुलन बनाये रखने पर भी रुग्णता से पीछा छूट नहीं सकेगा। चिकित्सा उपचार से भी मन बहलाने के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन सिद्ध हो नहीं सकेगा। अब क्रमशः औषधि उपचार का महत्व घटता जा रहा है और मानसोपचार को प्रमुखता दी जा रही है। मानसिक बीमारियों की पिछले दिनों अलग से गणना होती रही है और उनका क्षेत्र अलग रहा है । अब नए शोध प्रयोजनों ने कुछ दुर्घटना जैसे आकस्मिक कारणों से उत्पन्न होने वाले रोगों को ही शारीरिक माना है और लगभग समस्त बीमारियों को मनः क्षेत्र की प्रतिक्रिया घोषित किया गया है। गहरी खोजों के फलस्वरूप आरोग्य जैसे मानवी जीवन के अतिमहत्वपूर्ण प्रयोजन पर नए सिरे से विचार करना होगा ओर आहार-विहार के ही गीत न गाते रहकर यह देखना होगा कि मनस्विता बनाए रहने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है ?
मानव मन के विशेषज्ञ ऐरिक फ्राम के ग्रंथ “मैन फार हिमसेल्फ” के अनुसार मानसिक विकृतियों में से सामयिक उलझनों के कारण तो बहुत थोड़े से होते हैं। अधिकतर उनका कारण नैतिक होता है। छल, दुराव एवं ढोंग, पाखंड के कारण मनुष्य के भीतर दो व्यक्तित्व उत्पन्न हो जाते हैं। एक वास्तविक दूसरा पाखंडी। दोनों के बीच भयंकर अंतर्द्वन्द्व खड़ा रहता है। दोनों एक दूसरे के साथ शत्रुता बनाए रहते हैं और विरोधी को कुचलकर अपना वर्चस्व बनाने का प्रयत्न करते हैं। यह अंत कलह सारे मनः क्षेत्र को अशाँत बनाए रखता है। इस विग्रह के फल स्वरूप अनेकों रोग उठ खड़े होते हैं और वे वैसी ही मानसिक स्थिति बने रहने तक हटने का नाम नहीं लेते। ,
शारीरिक रोग प्रत्यक्ष होते हैं। इसलिए उनकी जानकारी भी मिल जाती है और दवादारु से इनका इलाज होने के भी साधन मौजूद रहते हैं। मानसिक रोगों के विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त स्तर के ऐसे लोग गिने जाते हैं जो अपना सामान्य काम काज चला सकने में असमर्थ हो गए हों। जिनका शरीर निर्वाह और लोक व्यवहार लड़खड़ाने और लटपटाने लगा हो। जो अपने लिए और साथी संबंधियों के लिए भार बन गए हों। ऐसे रोगियों की संख्या भी लाखों से आगे बढ़कर करोड़ों की संख्या में अपने ही देश में छूने लगी है। ऐसों की संख्या का तो कोई ठिकाना ही नहीं जो रोजी रोटी तो कमा लेते हैं। और खाते-सोते समय भी साधारण लगते हैं, पर उनका चिंतन विचित्र और विलक्षण होता है । कितने ही दुष्टता की भाषा में सोचते हैं। और हर किसी पर दोषारोपण करते हुए शत्रुता की परिधि में लपेटते हैं। कितने ही आशंकाओं, संदेहों, आक्षेपों के इतने अभ्यस्त होते हैं कि इतने अभ्यस्त होते हैं कि उन्हें अपनी पत्नी, बेटी, बहिन तक के चरित्र पर अकारण संदेह बना रहता है। संबंधियों और पड़ोसियों को अपने विरुद्ध कुचक्र रचते हुए देखते हैं। दुर्भाग्य और ग्रह-नक्षत्रों के प्रकोप से कितने ही हर घड़ी काँपते रहते हैं और विपत्ति का पहाड़ अपने ऊपर टूटता अनुभव करते रहते हैं। शेखचिल्लियों के मनसूबे बाँधते रहने वाले, संभव, असंभव का विचार किए बिना अपने सपनों की एक अनोखी दुनिया बनाए बैठे रहते हैं। न अपनी पटरी दूसरों के साथ बिठा पाते हैं न किसी और को अपना घनिष्ठ बनने का अवसर देते हैं।
परिस्थिति का मूल्याँकन कर सकना दूसरों की मनःस्थिति और परिस्थिति समझ सकना उनके लिए संभव नहीं होता। अटपटे अनुमान लगाते और बेतुके निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। विचार जो भी उठें वे एक पक्षीय सनक की तरह बिना किसी तर्क वितर्क का आश्रय लिए बेलगाम घोड़े पर चढ़कर दौड़ते चले जाते हैं। जो सोचा जा रहा है उसका आधार क्या है-और उस सनक पर चढ़े रहने का अंततः परिणाम क्या निकलेगा इतना समझ पाना उनके क्षत विक्षत मस्तिष्क के लिए संभव नहीं होता। यह सनक कभी-कभी आक्रामक हो उठती है तो जो भी उनकी चपेट में आता है उसे सताने में कसर नहीं छोड़ते । मित्र को शत्रु, शत्रु को मित्र समझने में उनकी अदूरदर्शिता पग-पग पर झलकती है। आयु बड़ी जो जाने पर भी सोचने का तरीका बालकों जैसा ही बना रहता है। अपनी कार्य पद्धति को किसी उद्देश्य के साथ जोड़ सकना उनसे बन नहीं पड़ता। जैसे-तैसे समय गुजारते हुए ज्यों-त्यों करके ही मौत के दिन पूरे कर लेते हैं। इन्हें पागल तो नहीं कह सकते, पर व्यक्तित्व की परख की दृष्टि से उनसे कुछ अच्छी स्थिति में भी उन्हें नहीं समझा जा सकता।
मनीषी एल.के. फ्रैंक के ग्रंथ “सोशल एनालिसिस” के अनुसार विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त और विक्षिप्तता के सन्निकट सनकी लोगों के प्रायः आधा समाज भरा पड़ा है। मूढ मान्यताओं-कुरीतियों अंधविश्वासों में जकड़े हुए लोगों में तर्क शक्ति एवं विवेक बुद्धि का अभाव रहता है। उनके लिए अभ्यस्त ढर्रा ही सब कुछ होता है। उस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाने में उन्हें भय लगता है। स्वतंत्र चिंतन के प्रकाश से उनकी आँखें चौंधिया जाती हैं और औचित्य को समझने स्वीकारने जैसा साहस उनके जुटाये जुट ही नहीं पाता। इस वर्ग के लोगों को मानसिक दृष्टि से अविकसित नर पशुओं की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।
शरीर से असमर्थों, दुर्बलों और रुग्णों की तरह मानसिक पिछड़ेपन और विकारग्रस्तता के दल-दल में धँसे हुए लोगों का ही बाहुल्य अपने समाज में दृष्टिगोचर होता है। यह विक्षिप्तता भी एक प्रकार की बीमारी ही है। जिसमें प्राणियों को तिरस्कार, असंतोष, अभाव एवं चित्र-विचित्र प्रकार के दुःख सहने पड़ते हैं।
विचारणीय है कि यह सब होता क्यों है ? मनुष्य का प्रत्यक्ष कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता। जान-बूझ कर ऐसा कुछ किया हो जिससे उन शारीरिक व्याधियों और मानसिक आधियों का दुःख सहना पड़े ऐसा कुछ सूझ नहीं पड़ता। फिर ईश्वर ने ऐसी विचित्र संरचना क्यों की। किसी को ऐसा किसी को वैसा क्यों बनाया? इसका भी कोई उत्तर नहीं हो सकता ? ईश्वर न तो अन्यायी है न उसकी सृष्टि में अंधेरगर्दी, अव्यवस्था। दूसरी ओर इन व्याधिग्रस्त लोगों का ऐसा कोई प्रत्यक्ष कसूर भी नहीं दीख पड़ता, जिसका दंड भुगतने जैसी बात कही जा सके।
इस असमंजस का समाधान मनःशास्त्र के आचार्य कोरनहार्नी के शब्दों में कहें तो अनैतिक एवं असामाजिक चिंतन और कर्तृत्व से उत्पन्न होने वाला अंतर्द्वंद्व दुहरा व्यक्तित्व रच देता है और उससे निरंतर उठने वाली आँतरिक कलह सारी मनोभूमि को क्षत-विक्षत करके रख देती है। संचालक के आहत-घायल, उद्विग्न होने पर उसके आधीन काम करने वाले तंत्र की दुर्दशा होना स्वाभाविक है। शरीर के अनाचार और मस्तिष्क के मनोविकार ही वे कारण है जिनके कारण आत्मसत्ता का संचालित तंत्र अनेकानेक प्रकार के आत्म दंडों की व्यवस्था अपने आप कर देता है।
ये आत्मदंड ही शारीरिक रोग, मानसिक उद्वेग और असफलताओं के रूप में प्रकट होते हैं। यह त्रिविध समन्वय कितना कष्टकर और संताप दायक होता है उसे भुक्तभोगी ही जानता है। जिन्हें इन संकटों का त्रास सहना पड़ता है उनके लिए इस विपन्नता का प्रत्यक्ष नरक के रूप में ही अनुभव होता है। यमलोक के अधिपति चित्रगुप्त को अचेतन में नहीं समझा जाना चाहिए। उनका कार्यक्षेत्र यमलोक वह मनः संस्थान है जिसमें प्रतिफल को परिणत कर सकने की ईश्वर प्रदत्त क्षमता मौजूद है। यम, नियमन, व्यवस्था एवं अनुशासन को कहते हैं। मस्तिष्क को यमलोक और उसकी मूलभूत सत्ता को, चित्त को, चित्रगुप्त की संज्ञा देकर शास्त्रकारों ने स्थिति का सर्वथा सही चित्रण किया है। ईश्वर ने सर्वत्र स्व संचालित पद्धति रखी है। ताकि न्याय व्यवस्था का अलग अतिरिक्त झंझट न उठाना पड़े। अपनी ही सत्ता का एक पक्ष कर्म करता है और दूसरा उसका प्रतिफल गढ़ कर तैयार कर लेता है। बाहर के न्यायाधीश को तो भ्रम में भी डाला जा सकता है । परन्तु अंतस् में बैठे हुए हर द्रष्टा की निष्पक्ष न्यायशीलता को झुठलाना तो किसी के लिए भी संभव नहीं हो सकता।
इतना सब जान लेने के उपराँत हमें एक ही निश्चय-निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि चेतन की मूलसत्ता अंतःकरण को प्रभावित करने वाले नैतिक और अनैतिक विचार एवं कर्म ही हमारी भली और बुरी परिस्थितियों के लिए पूर्णतया उत्तरदायी हैं। इसी उद्गम से हमारे उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा होता है और यहीं से विपत्तियों के जाल गिराने वाली दुखद सम्भावनाएँ विनिर्मित होती हैं। इस मूल केन्द्र का परिशोधन करना ही एक प्रकार से आँतरिक कायाकल्प जैसा प्रयास है। प्रस्तुत संकटों से छुटकारा पाने और निकट भविष्य में फलित होने वाले संचित प्रारब्धों का निराकरण करने के लिए आँतरिक परिशोधन का प्रयास इतना अधिक आवश्यक है कि उसे अनिवार्य की संज्ञा दी जा सकती है और कहा जा सकता है कि वृक्ष की जड़ें काटने से ही काम चलेगा। टहनियाँ तोड़ने और पत्तियाँ गिराने से स्थायी समाधान बन नहीं पड़ेगी।