देवर्षि की माया

August 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“कुछ कर्मों के करने से पुण्य होता है, और कुछ के न करने से। कुछ कर्मों के करने से पाप होता है और कुछ के न करने से।” धर्मराज अपने अनुचरों को समझा रहे थे। “कर्म संस्कार का रूप धारण करके फलोत्पादन करते हैं। संस्कार होता है आसक्ति से और आसक्ति क्रिया एवं क्रियात्याग दोनों में होती है। यदि आसक्ति न हो तो संस्कार न बनेंगे। अनासक्त भाव से किया हुआ कर्म या कर्मत्याग न पुण्य का कारण होता है और न पाप का।”

बड़ी विकट समस्या थी। कर्म के निर्णय के लिए जो सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, दिशाएँ, संध्या, दिन-रात्रि, चन्द्रमा, इंद्रियाँ मन बुद्धि एवं काल से द्वादश साक्षी नियत किये गये थे। उनमें से केवल मन और बुद्ध ही आसक्ति अनासक्ति के साक्षी हो सकते थे। वे तो उसी जीव के है यदि उन्होंने कही पक्षपात किया तो!

“एक बात और” धर्मराज ने अपनी बात आगे बढ़ाई! बहुधा अधर्म भी धर्म बनकर धोखा देता है और परिस्थिति भेद से धर्म भी अधर्म हो जाता है। दूसरे के वर्णाश्रम धर्म अपने लिए परधर्म है। धर्म का केवल बाद्म नाटक तो दंभ है। शास्त्रों के शब्दों का जानबूझकर अन्यथा अर्थ करना छली है। जो अपने धर्म में बाधा डाले, वह किसी के लिए धर्म होने पर भी विधर्म है। अपने धर्म से भिन्न किसी भी धर्म की स्वेच्छा स्वीकृति धर्माभास है। ये पाँचों अधर्म यानि त्याज्य कर्म है।

बेचारे यमदूत-सिर पकड़ लिया उन्होंने। यह अटपटा परिभाषा समझ लेना सरल नहीं था और समझे बिना उनका कल्याण नहीं। यदि तनिक भी चूके, किसी भी जीव को भ्राँतिवश कष्ट मिला तो धर्मराज क्षमा करना जानते ही नहीं। उन्होंने जब कभी बूढ़े ब्रह्मा से पढ़ा होगा-पितामह बहुत व्यस्त रहे होंगे सृष्टि कार्य में। धर्मराज को क्षमा का पाठ पढ़ाना ही वे भूल गए।

विवश होकर किया गया त्याग, कष्ट, सहन, ये सब पुण्य नहीं हे और इसी प्रकार किसी विशेष परिस्थिति में या किसी के द्वारा बलपूर्वक कराया गया, “अनिच्छा पाप भी पाप नहीं है।” यही एक सीधी बात कही थी यमराज ने। दूतों ने बड़े आनन्द से सिर हिलाकर सूचित कर दिया कि वे यह अंतिम वाक्य समझ गए।

“अब तुम जा सकते हो।” उन्होंने देख लिया था कि दूतों के हाथ में पाश और दंड उपस्थित है। उनके दूत कभी प्रमाद नहीं करते। भूलें भी यदा-कदा ही उनसे होती हैं। कार्य क्षेत्र में ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान के उदय का सर्वश्रेष्ठ स्थान अनुभूति का क्षेत्र है। उन्हें उपदेश के लिए अवकाश भी कहाँ मिलता है ? अहिर्निशि अविराम न्यायाधीश का स्वरूप उन्हें दूसरी ओर कहाँ ध्यान देने देता है।

“अनुभूति के क्षेत्र में भ्राँति की सम्भावना तो रहती है।” डरते-डरते वक्रतुंड ने, जो सबसे अधिक धृष्ट हो गया था, बहुत ही नम्र शब्दों में निवेदन किया।” और उसका परिणाम होता है दंड।”

“भ्राँति ही तो चेतनता का लक्षण है। भूलें या तो पूर्ण पुरुष परमात्मा से नहीं होती या जड़ से।” कुछ रुष्ट होकर धर्मराज ने डाँटा । “तुम मनुष्यकृत जड़ यंत्र बनना चाहते हो या तुमने अपने को पूर्ण पुरुष मान लिया है।”

“दंड ?” यमराज ने फटकारा” मूर्ख हो तुम! दंड ही शिक्षा है। वही भ्राँति से सावधान करता है और प्रमाद को दूर रखता है।”

कोई फिर बोलने का साहस नहीं कर सकता था। सभी चुपचाप वहाँ से एक ओर खिसक कर सोचने लगे। उन्होंने अपनी एक बैठक कर ली थी। ‘व्रत उपवास, दान, सेवा, आदि कर्मों के करने से पुण्य है।’ वक्रतुँड ने धर्मराज के प्रथम वाक्यांश का भाव्य किया। हिंसा, चोरी, अनाचार आदि करने से पाप होता है। बड़ी सीधी बात कह दी भीम दर्शन ने।

“पागल, पशु और शिशु किसी कर्म से युक्त नहीं होते।” यही सबसे कठिन स्थल था। “किंतु बुद्धिमान पुरुष भी आसक्ति न रखकर कर्म करेगा और उसके फल का भागी न होगा” - बड़ा टेढ़ा प्रश्न है। ऐसे पुरुष का निर्णय कैसे होगा ? सबसे वृद्ध वृहदोदर ने मुख्य प्रश्न उठाया। इसी के निर्णयार्थ तो यह गोष्ठी बैठी थी। शेपाँश तो निर्णित ही थे। उन पर कुछ न भी कहा गया होता तो क्या हानि थी।

“महाराजाधिराज श्री धर्मराज..........। अग्रचर का उच्च स्वर इन सभी के कानों में पड़ा । सम्भवतः आज धर्मराज स्वयं किसी विशिष्ट पुरुष को अपनी पुरी दिखलाने उठ खड़े हुए थे।” महाराज इधर ही आ रहे हैं” दूतों ने शीघ्रतापूर्वक अपने पाश और दंड उठाए और अस्त-व्यस्त मर्त्यलोक की ओर चल पड़े।

थोड़ी ही देर में वे एक स्थान पर पहुँच कर विचार करने लगे “इनका क्या होगा ?” एक दिगम्बर अवधूत पड़े थे नदी के किनारे यों ही घास पर। खूब परिपुष्ट शरीर था और इतना मैल उस पर जम गया था कि मानों वर्षों से स्नान न किया हो। सिर के बढ़े बाल उलझ गए थे। श्मश्रु जाल में तिनके एवं धूल भरी थी। हाथ-पैर के नाखून खूब बढ़ गए थे। उनके मुख पर एक ज्योति थी और ने अधमुदे हो गए थे।

“इसने तो एक ओर से सभी कर्मों का त्याग कर दिया है।” वक्रतुँड ने महाहनु के उत्तर में कहा।” भोजनादि छोड़ा तो नहीं हे कोई लाकर खिला देता चाहे जो भी खा लेता। खाद्याखद्य का कोई विचार नहीं। विधि निषेध का तनिक भी ध्यान नहीं। पकड़ ले चलो! ठस प्रकार के कर्महीन तमोलोक के अतिरिक्त और कहाँ जाएँगे।”

“मुझे तो रंग-ढंग और ही दिखायी पड़ते हैं। यह आनंद यह मस्ती और मुख का यह तेज!” महाहनु ने प्रतिवाद किया” मुझे तो अजामिल के समय की मार अब भी कँपा देती है। दुष्कर्मियों के लक्षण तो इनमें है नहीं। मैं तो साहस नहीं करता आगे बढ़ने का। “

“पुण्यात्मा सही । ले चलो फिर भव्य रूप रखकर।” झल्ला पड़ा वक्रतुँड।” अंततः समय तो इनका हो ही गया है और ले चलना ही होगा किसी रूप में।”

“पुण्य भी कहाँ हैं इनके पास!” वृहदोदर ने खिन्न होकर कहा।” आज अपने सबके सब साक्षी मूक हो गए हैं। इनके मन और बुद्धि का तो कोष ही रिक्त पड़ा है।” आश्चर्य था स्वर में।

“राजा के कर्मों का षष्ठाँश गुरु के कर्मों का दशमाँश और शिष्य के कर्म का दशमाँश माता-पिता के कर्मों का भी कुछ भाग।’ महाहनु विस्मित हो रहे थे। मान लिया कि ये गृहस्थ नहीं पत्नी और पुत्र के कर्मांश इन्हें आबद्ध नहीं करते। संभव है गुरु न किया हो और न किया हो कोई शिष्य । माता-पिता के बिना आकाश से टपके न होंगे। किसी न किसी राजा का ही राज्य होगा यह इनके कर्मों का अंश भी यहाँ क्यों नहीं उपलब्ध होता ?”

‘समस्या सीधी नहीं है ? बृहदोदर ने गंभीरता से कहा। तीन ही यमदूत इधर आए थे। साक्षी मौन हैं। मन और बुद्धि को छोड़ दे तो संस्कारात्मक चित्त ही ढूँढ़े नहीं मिलता। अब इन्हें ले भी चलें तो किस रूप में ? यमदूतों कमी दृष्टि दूर से ही प्रत्येक के अंतःकरण को साक्षात कर लेती है।

“एक उपाय है” वक्रतुँड ने जब को किंचित आश्वस्त होने का अवकाश दिया। “ हम इनके सम्मुख प्रत्यक्ष हो जायँ । अपने आप निर्णय हो जाएगा कि हम इन्हें ले चलें या यहाँ से नौ दो ग्यारह हो जायँ।” बात यह है कि धर्मराज ने उन्हें बता रखा था कि तुम्हें देखकर भी यदि कोई भयभीत न हो तो समझ लेना कि यह तुम्हारे अधिकार क्षेत्र से परे का जीव है। उसके संबंध में मुझे सूचना दे देना। जो तुम्हें देखकर भयभीत हो जाय बस, उसी के संबंध में तुम्हें विचार करना है।

“यदि कोई समर्थ हुआ” चौककर महाहनु ने सुझाया” कहीं दुर्वासा की भाँति क्रोधी भी हो साथ ही ? लेने के देने पड़ जाएँगे केवल सम्मुख प्रत्यक्ष होने में।”

“अंततः इनके कर्म हो क्या गए ?” “कर्म छू मन्तर तो हुआ नहीं करते और सृष्टि में आकर कोई निष्कर्म रह नहीं सकता। ये अनासक्त कर्मी होंगे जो थोड़ा बहुत भोजनादि कर्म करते भी हैं उसमें इनकी आसक्ति नहीं है। वक्रतुँड सम्मान करने लगा था महापुरुष का।”

“अनासक्ति फलोत्पादन नहीं करती ऐसी बात तो है नहीं। बृहदोदर ने धर्मराज के उपदेश पर ही शंका उठाई।” कर्म होगा तो उसका परिणाम भी होगा। विश्व में कुछ नष्ट तो होता नहीं है। यह परिणाम कर्ता को स्पर्श नहीं करते तो होते क्या हैं ?

ऊहँ, पशुओं, एवं उन्मत्तों के कर्मफल क्या होते हैं ? महाहनु हँस पड़ा सहचर के अर्थशून्य तर्क पर । प्रश्न तो यहाँ है कि अनासक्त भाव से किया गया कर्म फल भले न उत्पन्न करें, किंतु अनंत अपार संचित रागादि के कर्मांश का वह नाश तो नहीं करता। इनके संचित और इनके भाग से इतरजनों के कर्मंश का क्या हुआ?

यह विवेचन चल ही रहा था। एक क्षण के लिए दृष्टि हट गई थी तीनों की महापुरुष पर से। दूसरे क्षण उधर उन्होंने देखा और हक्के बक्के रह गए। अधखुले नेत्र पूरे बंद हो गए थे। केवल स्थूल शरीर घास पर खड़ा था। इधर-उधर ऊपर-नीचे, सब कहीं देख डाला सूक्ष्म शरीर या कारण शरीर या कारण शरीर का पता नहीं था। इनसे पृथक जीव की कल्पना उन्होंने कभी नहीं की थी।

“महाराज से शीघ्र निवेदन कर देना चाहिए”। भागे वे संयमनी की ओर। उन्हें कौन बताये-’न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति।’ वे किसी की सुनने को रुक भी कहाँ सकते थे।

थोड़े ही समय पश्चात् वही संयमनी, वही धर्मराज और वही यमदूत विवश धर्मराज आज फिर अपने दूतों को समझा रहे थे। झल्ला भी रहे थे इन अज्ञदूतों पर।

“हमने कान पकड़। झाकेंगे नहीं ऐसे महापुरुषों की ओर। “ बड़ी दीनता थी महाहनु के स्वरों में ‘एक जिज्ञासा मात्र की हमने। यदि प्रभु अधिकारी समझें...........।’

“स्फटिक या कमल पत्र को देखा है ?” धर्मराज ने कुछ शाँत होकर पूछा।

“उस पर कीचड़ या जल लिप्त नहीं होता ।” वक्रतुँड ने आशय समझ लिया था। स्पर्श करके भी गिर जाता है।

“ठीक इसी प्रकार ज्ञानादि साधनों से विशुद्ध चित्त पर कोई संस्कार ठहरता नहीं” धर्मराज ने उपदेश को यथा संभव संक्षिप्त करने का प्रयत्न किया।

“तब उस संस्कार का होता क्या है ? बृहदोदर ने शंका का उत्तरार्थ पूछा “क्या उसका नाश हो जाता है?” वह जानता हे कि विश्वात्मा की सृष्टि में विनाश जैसा कोई शब्द है ही नहीं। वहाँ केवल रूपांतर मात्र होता है।”

“शुभाँश सेवक एवं शुभ चिन्तकों में तथा अशुभंश उत्पीड़क एवं निंदकों में वितरित हो जाता है।” धर्मराज ने बड़े मजे से कह सुनाया। उनके प्रेमाकर्षण या द्वेषाकर्षण की तीव्रता या लघुता के अनुसार।

“अजामिल के पास से तो गए नहीं थे।”कहीं से आकर हस्वकाय भी पीछे खड़ा हो गया था। सुनंद के गदाघात का चिन्ह अभी भी उसके मस्तक पर बना हुआ था। उसका समाधान उस दिन के धर्मराज के उपदेशों से हुआ नहीं था।

“तू तो पूरा बच्चा है।” धर्मराज मुस्कुरा पड़े।” तुझे बता तो दिया कि मेरे नियम मेरी अधिकार सीमा तक ही है। जो मेरे और संपूर्ण जगत के स्वामी है, उनके भक्तों के संबंध में नियम निर्धारण करना मेरी शक्ति के बाहर है। वहाँ नियम की ओर न देखकर तुम्हें केवल इतना ही देखना है कि जीवन किसी प्रकार प्रभु के राम, रूप, गुण लीला से तनिक भी संबंधित तो नहीं है ऐसा होने पर उधर का मार्ग छोड़ दो।”

“जी हमने उधर का मार्ग ही छोड़ दिया आज।” पता नहीं कहाँ से हँसते हुए देवर्षि नारद खड़ाऊँ खटखटाते, वीणा लिए, खड़ी चुटिया फहराते आ धमके । सोचा कि भक्तराज को जय गोविन्द

करते चले। वैसे जाना तो था कैलाश।

दूत एक ओर खिसककर दंडवत करने लगे। धर्मराज हड़बड़ा कर उठे और उन्होंने भी पृथ्वी पर लेटकर अपना माथा देवर्षि के चरणों पर रखा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles