विश्व संस्कृति का उद्गम केन्द्र रहा है भारतवर्ष

August 1994

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जर्मनी के प्रख्यात विद्वान तथा भारतीय संस्कृति के आराधक मैक्समूलर ने सन् 1858 में एक परिचर्चा में महारानी विक्टोरिया से कहा था- “यदि मुझ से पूछा जाय कि किस देश में मानव मस्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके उनका सही अर्थों में सदुपयोग किया है ? जीवन के गंभीरतम प्रश्नों पर गहराई से विचार किया है और समाधान ढूँढ़ निकाले हैं ? तो मैं भारत की ओर संकेत करूंगा, जिसकी ओर प्लेटो और काण्ट जैसे दार्शनिकों के दर्शन का अध्ययन करने वालों का ध्यान भी आकृष्ट होना चाहिए।”

“यदि कोई पूछे कि किस साहित्य का आश्रय लेकर सैमैटिक यूनानी और रोमन विचारधारा में बहते हुए योरोपीय अपने आध्यात्मिक जीवन को अधिकाधिक विकसित कर सकेंगे ? जो इहलोक से ही संबद्ध न हो, अपितु शाश्वत एवं दिव्य हो, तो फिर मैं भारत वर्ष की ओर इशारा करूंगा।”

अपनी ज्ञान-पिपासा परितृप्त करने हेतु एक सदी पूर्व भारत आये प्रसिद्ध विद्वान लार्डविलिंगटन ने लिखा है-”समस्त भारतीय चाहे वे प्रसादों में रहने वाले राजकुमार हों या झोपड़ों में रहने वाले गरीब, संसार के वे सर्वोत्तम शील संपन्न लोग हैं मानों यह उनका नैसर्गिक धर्म है उनकी वाणी एवं व्यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम सामंजस्य दिखाई पड़ता है। वे दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को नहीं भूलते।”

इस प्रकार के उद्गार व्यक्त करते हुए पेरिस विश्वविद्यालय के विद्वान दार्शनिक प्रो0 लुई टिनाऊ ने एक बार कहा था- “जीने की तथा परस्पर मानवी संबंधों की इतनी सुन्दर सर्वांगपूर्ण आचार संहिता विश्व के किसी भी धर्म अथवा संस्कृति में नहीं है, जो कि भारतीय संस्कृति में विद्यमान है। वह आज भी विश्व को मार्गदर्शन

करने में सक्षम है।”

वर्तमान संदर्भ में उपरोक्त कथन कुछ अत्युक्ति जैसे लग सकते हैं, पर उसकी प्राचीन साँस्कृतिक समृद्धि पर दृष्टिपात करें, तो विदित होगा कि इस संस्कृति के प्रति विदेशी विद्वानों की श्रद्धा अकारण नहीं रही। ज्ञान एवं विज्ञान की जो सुविकसित जानकारियाँ आज संसार में दिखाई पड़ी रही है, उनमें बहुत कुछ योगदान भारत का रहा है। समय-समय पर यह विश्व-वसुधा को अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान-धाराओं से अभिसिंचित करता रहा है। इस सत्य के प्रमाण इन दिनों भी देखे जा सकते हैं। ऐसा उल्लेख है कि दक्षिण पूर्व एशिया में भारत के व्यापारी सुमात्रा मलाया और निकटवर्ती अन्य द्वीपों में जाकर बस गये तथा वहाँ के निवासियों से वैवाहिक संबंध भी स्थापित कर लिये। चौथी शताब्दी के पूर्व अपनी विशिष्टता के कारण यह संस्कृति उन देशों की दिशाधारा बन चुकी थी। जावा के बोरोबदर स्तूप और कम्बोडिया के शैव मंदिर राज्यों की सामूहिक शक्ति के प्रतीक प्रतिनिधि थे। राजतंत्र इन धर्म संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था, चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज भी देखी जा सकती है। बौद्ध स्तूपों एवं मंदिरों के ध्वंसावशेष इन देशों में अनेक स्थानों पर बिखरे पड़े हैं।

पश्चिमी विचारकों पर भी भारतीय तत्वज्ञान की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। गणितज्ञ पाइथागोरस उपनिषद् की दार्शनिक विचारधारा से विशेष प्रभावित थे। कितने ही विद्वानों ने तो भारतीय साहित्य में समाहित विचारों से प्रेरणा लेकर अनेकों कृतियाँ रची, जो अपने समय में अनुपम कहलाई । गेटे ने सर विलियम जोनस कृत शकुँतला नाटक के अनुवाद से अपने ड्रामा ‘फास्ट’ की भूमिका के लिए आधार प्राप्त किया। दार्शनिक फिकटे तथा हेगल वेदाँत के अद्वैतवाद के आधार पर एकेश्वरवाद पर रचनाएँ प्रस्तुत कर सके। अमरीकी विचारक थोरो तथा इमर्सन ने भारतीय दर्शन के प्रभाव का ही प्रचार-प्रसार-अपनी शैली में किया।

गणित विद्या का आविष्कारक भारत ही है शून्य का अंक तथा संख्याओं के लिखने की आधुनिक प्रणाली मूलतः भारत की ही देन है। इससे पहले अंकों को भिन्न-भिन्न चिन्हों द्वारा प्रदर्शित करने की रीति थी। भारतीय विद्वान आर्य भट्ट ने वर्गमूल, घनमूल जैसी गणितीय विधाओं का आविष्कार किया, जो आज विश्वभर में प्रचलित है।

अरब निवासी अंकों को हिंदसा कहते थे, क्योंकि उन्होंने अंक विद्या भारत से अपनायी थी। इनसे फिर पश्चिमी विद्वानों ने इसे सीखा। अनुमान है कि भारत की अंक-प्रणाली का योरोप में प्रचार पंद्रहवीं शताब्दी में हुआ तथा सत्रहवीं सदी तक समस्त योरोप में प्रयोग होने लगा। “पाई” की कल्पना तथा मान के निर्धारण का श्रेय आर्य भट्ट को है। सदियों पूर्व भारतीय ज्योतिर्विदों ने यह कल्पना की कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के समय का सही आकलन करने वाली ज्योतिष विद्या इसी देश की देन है। जर्मनी के कुछ विश्वविद्यालयों में आज भी वेदों की दुर्लभ प्रतियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं तथा उनमें वर्णित कितनी ही गुह्यतम विधाओं पर वहाँ के वैज्ञानिक अन्वेषणरत हैं।

“वसुधैव कुटुँबकम्” की भावना से प्रेरित होकर ‘बहुजन हिताय’ की दृष्टि से यहाँ के निवासी समय-समय पर देश की सीमाओं को लाँघते हुए अपने ज्ञान-विज्ञान की संपत्ति को उन्मुक्त हाथों से बाँटने के लिए दूसरे देशों में भी पहुँचते रहे हैं। तब आज जैसे यातायात के सुविधा साधन भी न थे। दुर्गम पहाड़ों, नदियों, रेगिस्तान बीहड़ों की कष्टसाध्य यात्राएँ उनको पावन मनोरथ से डिगा नहीं पाती थी। बृहत्तर भारत की नींव उनके इन दुस्साहसी प्रयत्नों से पड़ी। कुमार जीव, कश्यप, मतंगु बुद्धयश तथा गुणवर्मन आदि बौद्ध भिक्षुओं ने प्राणों को हथेली पर रख कर पैदल चीन की यात्राएँ कीं। उनके उपदेशों से वहाँ के मनीषी इतने अधिक प्रभावित हुए कि उस भूमि के दर्शन-र्स्पशन के लिए वे पड़े। फाह्यान, हृनसाँग, इत्सिंग आदि विद्वान भारत आये तथा वर्षों तक अपनी ज्ञान पिपासा शाँत करते रहे। जो मिला, उसे अपने देशवासियों को बाँटने वापस लौटे। मंगोलिया, साइबेरिया, कोरिया आदि में भी भारतीय विद्वानों के पहुँचने तथा संस्कृति प्रचार का उल्लेख मिलता है।

कलिंग युद्ध के बाद अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ। प्रायश्चित के लिए उसने बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर धर्म प्रचार के लिए न केवल स्वयं कार्य आरंभ किया, वरन् अपने पुत्रों को भी वैसे ही अनुकरण के प्रति प्रेरित किया। श्रीलंका लें में उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को प्रचारार्थ भेजा। बोध गया से बोधिवृक्ष की एक शाखा लेकर उसको लंका में आरोपित किया। ‘बौद्ध धर्म’ के धार्मिक चिन्ह ग्रंथों एवं प्रसादों के रूप में जो लंका में दिखाई पड़ते हैं, सब महेन्द्र ओर संघमित्रा के प्रयासों के ही पुण्य प्रतिफल है। वर्मा का पुरातन नाम ब्रह्मदेश है, जिस पर भारतीय प्रभाव की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है।

कम्बोडिया तीसरी से सातवीं शताब्दी तक हिन्दू गणराज्य रहा। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ही ऋषि कौण्डिण्य के नाम पर पड़ा, जिनने यहाँ की एक नाग कन्या से विवाह किया और अपना राज्य स्थापित किया। उनके बाद जयवर्मन, यशोवर्मन, सूर्यवर्मन आदि राजा हुए। यहाँ के ध्वस्त मंदिरों में हिन्दू संस्कृति के चिन्ह के रूप में रामायण के दृश्याँकन देखे जा सकते हैं। लाओ के कुछ मंदिरों में भी रामकथा के दृश्य खुदे हैं।

इण्डोनेशिया यों तो वर्तमान में मुस्लिम देश है, किंतु भारतीय संस्कृति की गहरी छाप अभी भी इस पर है। इण्डोनेशिया यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है-भारतीय द्वीप। जावा सुमात्रा, बोर्नियो नामक द्वीपों में यह विभाजित है। प्राचीन काल में वे सभी भारत के अंग रहे थे। रक्त एवं संस्कृति दोनों दृष्टियों से वहाँ के निवासी भारतीयों से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है। जावा के लोगों का विश्वास है कि भारत के पराशर तथा व्यास ऋषि वहाँ गये थे तथा उन्होंने वहाँ विकसित सभ्य बस्तियाँ बसायी थी।

सुमात्रा द्वीप में हिन्दू राज्य की स्थापना एवं भारतीय संस्कृति का विस्तार चौथी शताब्दी में हुआ। पलेमवंग नामक स्थान कभी सुमात्रा की राजधानी थी, जहाँ भारतीय धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म विषयों का शिक्षण होता था। पाली एवं संस्कृत भाषा यहाँ पढ़ायी जाती थीं। इण्डोनेशिया के बाली द्वीप के बारे में विद्वान कहते हैं कि कौण्डिण्य के वंशधरों ने यहाँ हिन्दू राज्य की स्थापना की थी, जो दसवीं शताब्दी तक कायम रहा। बाद में वह उन लोगों के अधीन हो गया।

बोर्नियो द्वीप सबसे बड़ा है। यहाँ हिन्दू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गई थी। शिव, अगस्त्य, गणेश, ब्रह्मा आदि ऋषियों एवं देवताओं की मूर्तियाँ यहाँ प्राप्त हुई तथा कितने ही पुरातन हिन्दू मंदिर आज भी मौजूद हैं, जो यह बताते हैं कि यह द्वीप भारतीय संस्कृति का गढ़ रह चुका है।

इतिहासकारों का मत है कि थाईलैंड का पुराना नाम श्याम देश था। तीसरी शताब्दी में वह भारत का उपनिवेश बना तथा बारहवीं सदी तक भारत के अधीन रहा। श्याम की सभ्यता भारतीय संस्कृति से पूरी तरह अनुप्राणित है। उसकी लिपि उद्गम पाली भाषा है। पाली भारत की देन है। उसके रीति-रिवाजों में भारत जैसा साम्य दिखाई पड़ता है। दशहरा जैसे पर्व धूमधाम से मनाये जाते हैं। थाई जीवन में राम एवं रामायण के कथानक की प्रेरणाएँ गहराई तक जड़ें जमायी हुई हैं। अष्टमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वों पर भारत की तरह वहाँ भी उत्सव मनाये जाते हैं। थाई रामायण का नाम ‘रामकियेन’ है, जिसका अर्थ होता है-’रामकीर्ति’ थाईलैण्ड में अयोध्या नामक एक नगरी भी है।

तिब्बती साहित्य पर बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव है। वहाँ के राजा संगचन गम्पो ने भारतीय लिपि के आधार पर तिब्बती वर्णमाला का आविष्कार किया। नालन्दा के आचार्य शाँति रक्षित ने सन् 747 में यहाँ पहुँच कर ‘समये’ नामक पहला विहार बनवाया । तत्पश्चात् कश्मीर के भिक्षुक पद्मसंभव के प्रयत्नों से वहाँ महायान की मात्रिक शाखा का प्रचार हुआ। लामावाद की उत्पत्ति उसी से हुई ।

ऐसे अगणित प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े है, जो यह बताते हैं कि भारत समय-समय पर अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान सागर से इस वसुँधरा को अभिसिंचित करता रहा है। आगामी समय में यह बीज पुनः अंकुरित होंगे और विशाल वट वृक्ष का आकार ग्रहण कर समस्त विश्व को ऐसी शीतल छाया प्रदान करेंगे, जिसकी स्निग्धता से करोड़ों वर्षों तक पृथ्वी सुरम्य उद्यान की भाँति सुरक्षित और सुन्दर बनी रहे। बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन का यह उत्तरार्ध होगा, जिसे प्रज्ञावतार अपनी प्रखर प्राण-चेतना द्वारा इन्हीं दिनों संपन्न करने जा रहा है।


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