सफलता की कसौटी क्या हो ?

August 1994

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सामान्यतः सफलता को एक मूल्यवान उपलब्धि माना जाता है। प्रत्येक मनुष्य सफल होना चाहता है। किंतु इसकी सर्वमान्य परिभाषा अब तक नियत नहीं की जा सकी है। यही कारण है कि अलग-अलग व्यक्तियों के लिए इसका अलग-अलग अर्थ है। कोई व्यक्ति यश और सम्मान को सफलता का आधार मानता है तो कोई धन और पद को। किसी की दृष्टि में विद्या बुद्धि मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी है तो किसी के लिए मनुष्य का पद और प्रतिष्ठा। एक उपलब्धि को जहाँ भिन्न-भिन्न अर्थ दिए जा रहे हैं और प्रत्येक अर्थदाता अपनी मान्यताओं के अनुरूप उसे अर्जित करने के लिए आजीवन प्रयत्नशील हो तो वहाँ किसी सर्वमान्य परिभाषा का नियत कर पाना कठिन ही रहता है।

यथार्थ में सफलता धन-संपत्ति यश, प्रतिष्ठा के अनेक अर्थ रखती है। इनका समुच्चय रूप ही सफलता है। अंतर इतना सा है कि कोई किसी अंग को प्रधानता देता है और कोई किसी अंग को । विद्या-बुद्धि प्रयोग किए बिना कौन संपत्तिवान बना है ? संपत्तिशाली होने के साथ व्यक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ जाना भी जुड़ा हुआ है। यही बात यश, प्रतिष्ठा और विद्या-विभूति के साथ जुड़ी है। प्रतिष्ठित व्यक्ति के पास साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक संपत्ति और बुद्धि होती है तो विद्वान व्यक्ति यश और धन के लिए तरसेगा भी नहीं।

इन सब विशेषताओं के साथ एक बात अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है। ये महत्वाकाँक्षा ओर उसे पूरी करने के लिए आवश्यक क्रियाशीलता का परिणाम है। मनुष्य जन्म से असहाय और अकिंचन पैदा होता है और जन्म के साथ ही वह अपनी स्थिति, क्षमता और शक्ति में पूर्वापेक्षा कुछ वृद्धि करने के लिए सचेष्ट होने लगता है। बालबुद्धि से वयस्कोचित गम्भीरता में पदार्पण करने के बाद व्यक्ति अपनी आकाँक्षाओं को भली भाँति समझने लगता है और उसी के अनुरूप उन्हें पूरा करने की चेष्टा भी करता है।

मनुष्य की इच्छा आकाँक्षा कुछ अर्जित करने की होती हैं अपना विकास करने की अपनी योग्यताएं बढ़ाने की उपलब्धियाँ अर्जित करने की, तथा विभूतियाँ बढ़ाने की। इन्हीं आकाँक्षाओं से उसका जीवन प्रेरित संचालित रहता है। लेकिन प्रायः होता यह है कि हम जीवन की उस जीवन प्रेरणा को समझने में और उसे उनके यथार्थ रूप में ग्रहण करने में चूक जाते हैं। हम उन्हीं दिशाओं में अग्रसर होने लगते हैं जिनमें कि अन्य लोगों की प्रवृत्ति देखते हैं। दूसरे लोग किन स्थितियों में वे गतिविधियाँ अपनाते हैं-इस तथ्य पर ध्यान देने की अपेक्षा हमारी दृष्टि में अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि उसके आस-पास के लोग उसकी उपलब्धियों को किन संदर्भों में लेते हैं सुकरात को अपने जीवन काल में ऐसे कई व्यक्तियों के संपर्क में आना पड़ा जो केवल उस पर अपनी विद्वता की धाक जमा कर उससे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त चाहते थे। उन्हें जिन लोगों ने सम्मानित किया उनकी दृष्टि में अपना मूल्य सुकरात की अपेक्षा अधिक ऊँचा रखना चाहते थे।

अपने ढंग से यदि विद्या-वैभव बढ़ाना था तो उसका सही रास्ता श्रम-साध्य था, पर सुकरात की सफलता इतनी लुभावनी लगी कि उसे तत्काल प्राप्त करने के लिए समय और श्रम साध्य मार्ग अपनाने का धैर्य न बन पड़ा। नेपोलियन को केवल बड़ा बनने की इच्छा थी, अब वह विद्वता के क्षेत्र में हो या शक्ति के क्षेत्र में। अपने समय के विद्वानों की स्थिति देखकर पहले तो वह साहित्य के क्षेत्र में उतरा। पर उसे असफलता हाथ लगी और उसने तुरंत अपनी पटरी बदल कर सैन्य अभ्यास आरंभ कर दिया। हालाँकि वह बड़ा अवश्य बन गया पर उसके प्रशंसकों और आलोचकों की संख्या आज भी बराबर ही है। यद्यपि उसे वीर, योद्धा, कुशल शासक, साहसी और राजनीतिज्ञ भले समझा जाता है, पर सफल मनुष्य के रूप में उसका मूल्याँकन करते समय उसे अभिमानी और अहंकारी व्यक्ति कहना पड़ता है, जो एक सामान्य आदमी भी अपने लिए निंद्य मानता है।

मानवीय गुणों से रहित सफलताएँ कीर्ति और मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा तो नहीं देतीं, फिर भी आम तोर पर लोगों की दृष्टि बाहरी सफलताओं पर ही अधिक टिकती है। जिन्हें धनवान, प्रतिष्ठित और पहुँच वाला आदमी मान लिया जाता है, लोग उसी के पीछे भागने-दौड़ने लगते हैं। उससे लाभ उठाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। ये सभी उपलब्धियाँ मनुष्य की महत्वाकाँक्षाओं और उसके लिए किए जाने वाले प्रयासों से प्रसूत हैं। क्योंकि अंततः मनुष्य महत्वाकाँक्षाओं को ही तो आधार बनाकर जीता है। यह उसी प्रकार स्वाभाविक है, जैसे श्वास-प्रश्वास-हृदय की धड़कन नाड़ी की गति और रक्त का शरीर में परिभ्रमण। इन प्रक्रियाओं के आधार पर यदि किसी मनुष्य को सफल और विभूतिवान कहा जा सके तो महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति को ही मनुष्य की सफलता की कसौटी माना जाना चाहिए।

लेकिन यथार्थ में इस सफलता को जीवन की सार्थकता अथवा मनुष्यता की कसौटी मानना भूल होगी। हृदय का स्पंदन और रक्त का दौरा जीवन के चिन्ह तो है लेकिन सिर्फ इसी कारण किसी व्यक्ति की प्रशंसा तो नहीं की जा सकती। ये प्राकृतिक क्रियाएँ यदि बंद हो जायँ तो व्यक्ति की स्थिति पर शोक अवश्य व्यक्त किया जा सकता है। वैसी दशा आने पर उसकी सहायता भी की जा सकती है। परन्तु जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा हो तो उसे सामान्य-स्वाभाविक कहना ही उचित है दिल की धड़कन और रक्त का परिभ्रमण जिस प्रकार स्वाभाविक है। उसी प्रकार स्वाभाविक है व्यक्ति की महत्वाकाँक्षाएँ और उन्हें पूरा करने का प्रयास, क्योंकि खाने-पीने की सुविधाएँ और साधन प्रकृति ने आरंभ से ही इतने जुटा दिए हैं कि यदि व्यक्ति को निर्वाह में संतोष करना होता तो इतने हाथ पैर मारने की जरूरत नहीं पड़ती।

सफलताओं का एक दूसरा पक्ष भी होता है कि व्यक्ति अपने मानवीय गुणों के और सामाजिक आदर्शों के प्रति कितना निष्ठावान है ? सफल तो झूठ-बेईमानी, दगाबाजी और अनीतिपूर्वक कमाने वाले लोग भी हो सकते हैं। क्योंकि इस प्रकार उनके पास धन तो इकट्ठा हो ही जाता है। एक नंबर के अय्यास और चरित्रहीन लोग भी सामान्य स्तर के लोगों से अधिक बुद्धिमान हो सकते हैं। प्रतिष्ठा डाकू, चोर, लुटेरों और अपराधियों को भी मिल जाती है, भले ही लोग डर से ऐसा करें, पर प्रश्न यह है कि क्या इन सफलताओं के आधार पर उन्हें सफल मनुष्य के रूप में देखा जाना चाहिए ?

उत्तर स्पष्ट रूप से नहीं में ही मिलेगा। वस्तुतः बाहरी सफलताओं की अपेक्षा नैतिकता और दृष्टिकोण की उत्कृष्टता के आधार पर ही मनुष्य का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। बाहरी सफलताओं की अपेक्षा यह अधिक पुरुषार्थ साध्य है। क्योंकि कमजोर संकल्प के व्यक्ति शीघ्र ही अपने प्रयत्नों की निष्फलता से निराश हो जाते हैं और उन प्रयासों को छोड़ बैठते हैं। प्रगति के पथ पर चलने वाले और संघर्षों तथा कठिनाइयों का सामना करने के लिए मनोबल ही एक मात्र उपाय रह जाता है। अनैतिक बेईमान, तथा भ्रष्ट मार्ग अपनाने वाले व्यक्तियों का मनोबल क्षीण तथा कमजोर ही रहता है। वे कष्ट-कठिनाइयों से टकराकर शीघ्र ही पस्त हिम्मत हो जाते हैं। इस तथ्य को उद्घाटित करते हुए एक विचारक ने लिखा है-नीतिवान मनुष्य के उच्च दृष्टिकोण का ही वास्तविक महत्व है। वही स्थायी तथ्य भी है सफलता असफलता से भी पहले स्थान पर हमारा दृष्टिकोण आता है । जो कर्म दृष्टिकोण को महत्व देते हैं वे कल की चिंता नहीं करते और जिनका दृष्टिकोण दुर्बल है, वे ही प्रायः सफलता को अधिक महत्व देते हैं।

यहाँ सफलता को उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त किया जा रहा है जिससे कि सर्वसाधारण परिचित हैं अन्यथा मनस्वी और पुरुषार्थी व्यक्तियों के लिए साध्य से साधन की पवित्रता ही अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है और उसी मापदण्ड के अनुसार व्यक्ति की उपलब्धियों से अधिक उसके आदर्श और नीतियाँ प्रमुख हो जाती हैं।

क्यों ? इसका उत्तर यों दिया जा सकता है कि नीति न्याय और आदर्शवादिता के आधार पर ही उपलब्धियों का स्थायित्व टिका है। बेईमानी से कोई व्यक्ति ज्यादा पैसा इकट्ठा कर ले और धीरे-धीरे सभी लोग उसी मार्ग पर चलने लगें तो आज प्राप्त की गई उपलब्धियाँ अपनी क्षण भंगुरता के कारण कल ही मर जाएँगी। इसीलिए नीति को सार्वभौम नियम कहा गया है। सार्वभौम नियम-अर्थात् जिनके आधार पर ही समाज की सुव्यवस्था और व्यक्ति का स्थाई सुख संतोष टिका हो। एक दुकानदार यदि कम तोलता है तो उसे हजार स्थानों पर से कम खरीदना पड़ेगा और गड़बड़ी फैलेगी सो अलग। इस कारण कम तोलना अनैतिक है। व्यवहार में ईमानदारी सभी के लिए व्यवहार्य और सहज लाभप्रद है। अन्य नैतिक आदर्शों को भी इसी आधार पर खरा और खोटा पाया जा सकता है। और जो इन आदर्शों की ओर चलने का साहस करेगा उसे जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों का बोध भी होगा। यथार्थ में सफलता का चरम बिन्दु यही है। इसे न समझ पाने वाले उस व्यक्ति को जो नीति-अनीति अनुचित सभी तरीके अपनाकर संपन्न बनाना चाहता है गरीब और अभावग्रस्त बेवकूफ और मूर्ख लगेंगे। परंतु आदर्शनिष्ठ बनकर जिन्होंने स्वेच्छया निर्धनता का वरण कर लिया उनका दृष्टिकोण कुछ और ही बन जाता है। जिसका आनन्द तथाकथित सफल व्यक्ति अपनी सारी सफलताओं के बाद भी नहीं उठा सकता।

सफलताओं के विकृत और परिष्कृत स्वरूप को यदि हम समझ सके उनका नीर−क्षीर विवेक कर सकें तो वर्तमान मानदण्डों को बदलने की जरूरत महसूस की जा सकेगी। इस यथार्थता को समझने पर यह स्पष्ट हो सकेगा कि सफलता के मूल्याँकन का आधार नैतिकता तथा दृष्टिकोण की उत्कृष्टता है न कि तमाम सारी चीजों को बटोरना। इसके लिए सफलता के विभिन्न स्वरूपों, यश, प्रतिष्ठा, और संपन्नता की कसौटियाँ बदलनी पड़ेंगी तथा सद्विचारों, सत्प्रवृत्तियों एवं सत्कर्मों को उनके स्थान पर प्रतिष्ठित करना होगा।


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