विशेष धारावाहिक लेखमाला-17 परमपूज्य गुरुदेव पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य - जिनने सिखायी हमें खोज सद्गुरु की

August 1994

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सूर्य में कितना ही प्रकाश क्यों न हो, पर यदि आँख की पुतली काम न करे तो समझना चाहिए कि सर्वत्र अंधकार ही अंधकार है। दिन या रात में कभी उसका अंत न होगा। यही बात शिष्य के संदर्भ में भी सच है। गुरु कितना भी समर्थ व योग्य क्यों न हो, परंतु यदि व्यक्ति के अंतराल में शिष्यत्व मौजूद नहीं है तो गुरु की योग्यता कारगर न हो सकेगी। गुरु बीज बोता है खाद पानी की व्यवस्था जुटाता है, लेकिन भूमि की उर्वरता भी चाहिए। अन्यथा बीजों का ढेर खाद-पानी का जखीरा ऊसर बंजर जमीन में यों ही व्यर्थ चला जाता है।

परम पूज्य गुरुदेव जिन्हें हम सभी ने सद्गुरु के रूप में पाया है उनके ज्ञान और तप से प्रकाशित-अनुप्राणित हुए है। उनकी प्राण-ऊर्जा से घोषित परिचालित हैं। तनिक उनसे भी तो पूछें-भला वे अपने को किस रूप में पहचानते थे ? प्रायः सभी के मनों में उठने वाली इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए एक प्रवचन में उन्होंने कहा था- “मैं एक समर्पित शिष्य हूँ, गुरु के हाथों का यंत्र एक कठपुतली मात्र । मेरे गुरु ने जब जो कराया तब वह कर लिया जैसे रखा वैसे रहे। मेरी अपनी भी कोई इच्छा है, यह कभी ख्याल आया ही नहीं। अपने जीवन की पोली बाँसुरी में गुरु के स्वर बजते रहे।”

सद्गुरु की प्राप्ति अद्भुत अनुदान है, एक अजस्र सौभाग्य। पर उनके लिए जो खुद को शिष्य के रूप में ढाल सके। स्वयं की क्षुद्रता को गुरु की गुरुता में विसर्जित कर सके। यों गुरु की ढूंढ़-खोज में भटकने वाले सैकड़ों हजारों है। लेकिन उनकी भी संख्या कम नहीं जिनने रामकृष्ण परमहंस के पड़ोस में रहते हुए उन्हें पगला ब्राह्मण कहकर तिरष्कृत किया था। महर्षि दयानंद के अति निकट रहते हुए भी कुछ रुपयों के लिए जहर देने वाले तथा थोड़ा सा वैभव पाने के लालच में ईसा को शूली चढ़वा देने वाले भी इतिहास के काले पन्नों में दर्ज हैं।

इन सबके जीवन भी लोकोत्तर महामानवों के संपर्क में आए। चाहते तो स्वयं की पात्रता विकसित कर ये सभी स्वयं को धन्य कर लेते, पर ऐसा नहीं हो सका। होता भी कैसे ? सद्गुरु को पहचानने-अपनाने के लिए अलौकिक दृष्टि चाहिए और ऐसी दृष्टि सिर्फ शिष्य में होती है। सूफी फकीर शेख फरीद के जीवन की एक घटना है। उन दिनों वह किशोर वय के थे। घूमते-फिरते वे एक पेड़ के पास जा पहुँचे, जहाँ एक साधु बैठा ध्यान कर रहा था। उसे झकझोर कर उठाते हुए उन्होंने पूछा-क्यों बाबा। हमें भी भगवान से मिलाएं। साधु ने उत्तर दिया बेटा भगवान से तो गुरु मिलाता है। तो बता मेरा गुरु कौन है ? साधु ने उत्तर दिया मैं पहचान बताए देता हूँ तू ढूँढ़ लेना। फरीद ने कहा- ठीक है तू पहचान ही बता। साधु बताने लगा तेरे गुरु एक पेड़ के नीचे बैठे होंगे। उनके चेहरे पर प्रकाश का वलय होगा। आँखें तेज पूर्ण होंगी शरीर से सुगंध निकल रही होगी। साधु की बात समाप्त होते ही शेख फरीद खोज में निकल पड़े। जैसे-जैसे दिन बीतते गए अभीप्सा गहरी होती गई। घटना को बीस वर्ष बीत गए। हारकर फरीद वापस लौट चले। वापस लौटने पर देखा एक पेड़ के नीचे एक साधु बैठा है। उसके चारों ओर प्रकाश वलय, भीनी सुगंध एक-एक करके सारे लक्षण मिल गए। खुशी के मारे वह उसके चरणों पर लोट-पोट हो गए। साधु ने प्रसन्नता से उनकी पीठ पर हाथ रखा उन्होंने उठकर उस साधु के चेहरे की ओर देखा। अरे यह क्या? यह तो वही साधु जिसने गुरु के लक्षण बताये थे। शेख फरीद ने पूछा “बाबा ! बीस वर्ष तक भटकते क्यों रहे ?” पहली बार मेरे पास एक कौतुकी, उद्धत लड़का फरीद आया था। अबकी बार बीस वर्ष की कठोर तपस्या से निखर कर समर्पित शिष्य फरीद आया है। और बेटे ! गुरु केवल शिष्य को मिला करते हैं। जैसे ही तुम शिष्य बन गए हम तुम्हें मिल गए।

गुरु की प्राप्ति इतनी कठिन, लेकिन पूज्य गुरुदेव को उनके समर्थ गुरु अनायास ही मिले, वह भी घर बैठे? इस पहेली को सुलझाते हुए गुरुदेव के शब्द हैं-”इसके लिए लंबे समय से जन्म-जन्मांतरों में पात्रता अर्जन की धैर्यपूर्वक तैयारी की गई। उतावली नहीं बरती गई । बातों में फँसा कर किसी गुरु की जेब काट लेने जैसी उस्तादी नहीं बरती गई, वरन् यह प्रतीक्षा की गई कि अपने जीवन की बूँद को किसी पवित्र सरिता में मिलाकर अपनी हस्ती का उसी में समापन किया जाय। किसी भौतिक प्रयोजन के लिए इस सुयोग की ताक झाँक नहीं की जाय वरन् बार-बार यही सोचा जाता रहे कि जीवन संपदा की श्रद्धाँजलि किसी देवता के चरणों में समर्पित करके धन्य बना जाय।

उनके अन्तःकरण से निकली ये भाव तरंगें ही हिमालयवासी महान ऋषि सत्ता को उनके घर तक खींच लाई। यद्यपि आयु की दृष्टि से उस समय वे सिर्फ पंद्रह साल के थे। लेकिन मनोभूमि का निर्माण पर्याप्त लंबे समय तक व्रतशील रहकर किया गया था। संकल्प धैर्य, और श्रद्धा का त्रिविध सुयोग अपनाये रहने पर मनोभूमि ऐसी बनती है कि अध्यात्म के दिव्य अवतरण को धारण कर सके। यह पात्रता ही शिष्यत्व है। समय पात्रता विकसित करने में लगता है, गुरु मिलने में नहीं। एकलव्य के मिट्टी के द्रोणाचार्य असली की तुलना में अधिक कारगर सिद्ध होने लगे थे। कबीर को अछूत होने के कारण जब रामानंद ने दीक्षा देने से इनकार कर दिया तो उन्होंने एक युक्ति निकाली। काशी घाट की जिन सीढ़ियों पर रामानंद नित्य स्नान के लिए जाया करते थे उन पर भोर होने से पूर्व ही कबीर जा लेटे। रामानंद अँधेरे में निकले तो उनका पैर लड़के के सीने में जा पड़ा। साथ ही पात्रता की परीक्षा भी हो गयी। रामानंद ने कबीर को अपना शिष्य बना लिया।

पात्रता की परीक्षा पास किये बगैर सद्गुरु का मिलन ही नहीं होता। किसी कारणवश भी हो जाय तो कुपात्र को रिक्त ही लौटना पड़ता है। स्वाभाविक है इतने घोर परिश्रम और कष्ट सहकर की गई कमाई ऐसे ही किसी कुपात्र को विलास, संग्रह, अहंकार अपव्यय के लिए हस्ताँतरित नहीं की जा सकती। देने वाले में इतनी बुद्धि होती है कि लेने वाले की प्रामाणिकता किस स्तर की है और जो दिया जा रहा है उसका उपयोग किस कार्य में होगा। जो लोग इस कसौटी पर खोटे उतरते हैं, उनकी दाल नहीं गलती।

विचित्र, विलक्षण और बहुधा कठोर होती हैं ये परीक्षाएँ। औसपेंसकी ने गुरु जिएफ के बारे में लिखा है कि वह किसी नये आने वाले के साथ बहुत कटु व्यवहार किया करते थे। यदि वह प्रसन्नतापूर्वक सब कुछ सहन कर जाता तो उनके द्वारा कराई जाने वाली गोपनीय साधनाओं का अधिकारी होता। एक बार उनके किसी पुराने शिष्य ने पूछा-आपका व्यक्तित्व इतना प्रेममय है फिर आप इतना कठोर कैसे हो जाते हैं। गुरजिएफ का जवाब था कठोर कहाँ होता हूँ-मैं तो पत्थरों में हीरे छाँटता हूँ। हीरे छाँटकर उन्हें तराशने लगता हूँ, पत्थरों को फेंक देता हूँ रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद के सामने उस समय अपनी समस्त सिद्धियाँ देने का प्रस्ताव रखा, जिस समय वे और उनका परिवार एक-एक अन्न कण के लिए तरस रहे थे। ऐसे में भी विवेकानंद ने उपेक्षा के स्वरों में कहा था, उन्हें ईश्वरीय प्रेम चाहिए तुच्छ सिद्धियाँ नहीं। विजय कृष्ण गोस्वामी ने शिष्य बनने के लिए उत्सुक एक व्यक्ति से कहा था बारह वर्ष तक लगातार गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करो तेरहवें वर्ष मेरे पास आना। एक अन्य व्यक्ति के द्वारा कारण पूछे जाने पर उन्होंने कहा-जिसमें बारह सालों का धैर्य नहीं वह मेरा शिष्य नहीं बन सकता। गुरुदेव के अपने जीवन में ऐसे एक नहीं वह मेरा शिष्य नहीं बन सकता। गुरुदेव के अपने जीवन में ऐसे एक नहीं अनगिनत अवसर आये जब उन्हें कठोर से कठोरतम स्थिति से गुजरना पड़ा। इन परीक्षाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने एक स्थान पर लिखा है-लोग गुरु को, भगवान को अपनी इच्छापूर्ति का साधन मान बैठे हैं। उसे मनमर्जी से चलाना चाहते हैं। पर साधनात्मक जीवन में यह विडंबना संभव नहीं। इसकी शुरुआत ही सद्गुरु में अपनी समस्त इच्छाएँ विसर्जित करने से होती हैं। मेरे गुरु ने मुझे धोबी की तरह पीट-पीट कर धुला है, धुनिए की तरह धुना है।

समूचे जीवन इस तरह की परीक्षाओं का क्रम अनवरत चलता रहा। पर उनके अस्तित्व से एक ही ध्वनि झंकृत होती रही। गुरु सो गुरु, आदेश सो आदेश, अनुशासन सो अनुशासन, समर्पण सो समर्पण। मार्गदर्शक पर विश्वास किया उसे अपने आपको सौंप दिया तो उखाड़-पछाड़ क्रिया में तर्क संदेह क्यों?” एक अन्य स्थान पर उनके शब्द हैं? “हमने अपना शरीर, मन, मस्तिष्क, धन और अस्तित्व, अहंकार सब कुछ मार्गदर्शक के हाथों बेंच दिया है। हमारा शरीर ही नहीं अंतरंग भी उसका खरीदा है। अपनी कोई इच्छा शेष नहीं रही। भावनाओं का समस्त उभार उसी अज्ञात शक्ति के नियंत्रण में सौंप दिया।”

अस्तित्व का ऐसा समर्पण लगता बड़ा भयप्रद है। जब मैं नहीं तो मेरा नहीं। तब फिर दुनिया में जीने का क्या प्रयोजन ? प्रत्यक्ष में घाटा ही घाटा दिखने वाले इस कारोबार के बारे में पूज्य गुरुदेव से उनके निजी अनुभव सुनना चाहें तो उनका अभिव्यक्ति है-”यह घाटे का नहीं असंख्य गुने लाभ का व्यापार है। जिसके हाथों हमने अपने शरीर और मन को बेचा। बदले में उसने अपने आप को हमारे हाथ सौंप दिया। हमारी तुच्छता जिसके चरणों में समर्पित हुई उसने अपनी महानता हमारे ऊपर उड़ेल दी। बाँस के टुकड़े ने अपने को पूरी तरह खोखला करके बंसी के रूप में प्रियतम के अधरों का स्पर्श किया तो उसमें से मनमोहक राग रागनियां निकलने लगीं।

“ अपनी इच्छा का तब अस्तित्व ही नहीं बचा। उसी की हर इच्छा जब अपनी इच्छा बन गई तो वह अद्वैत स्थिति ब्रह्मा और जीव के मिलन में आने वाले ब्रह्मानंद की अति सुखद लगने लगी। जिसे सच्चे मन से-बिना किसी प्रतिदान की आशा को गहरा आत्म समर्पण किया गया, उसने भी अपनी महानता में उदारता में प्रतिदान में कमी नहीं रहने दी। हमारे पास जो प्रत्यक्ष दीखता है उससे हजार-लाख गुना अप्रत्यक्ष छिपा पड़ा है। यह हमारा उपार्जन नहीं हैं। विशुद्ध रूप से उस हमारी मार्गदर्शक सत्ता का ही अनुदान हैं, जिसके साथ हमारी आत्मा ने विवाह कर लिया और अपना आपा सौंपने के फल स्वरूप उसका सारा वैभव करतल गत कर लिया। इस प्रकार यह समर्पण हमारे लिए घाटे का नहीं नफे का सौदा सिद्ध हुआ।”

यह समर्पण ही वह कसौटी बनी जिस पर बार-बार कसकर उनका शिष्यत्व खरा प्रमाणित हुआ। समर्पण को यदि शिष्यत्व का पर्याय कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। इस यथार्थता का उद्घोष करते हुए उनके अपने शब्द हैं-”हमारे घनिष्ठ स्वजनों को यह जान ही लेना चाहिए कि हमारा प्रत्येक क्रिया कलाप हमारे मार्गदर्शक के संकेतों पर ही चला है। समाज के संबंध में दूसरों के संबंध में हम बहुत बातें बहुत ढंग से सोचते हैं पर अपने बारे में सिर्फ उतना ही सोचते हैं कि हमारा मास्टर हमें जिधर ले चलेगा-उधर ही चलेंगे भले ही मार्ग हमारी रुचि या सुविधा के सर्वथा विपरीत ही क्यों न हो। समर्पण इससे क्रम में संपन्न ही कहाँ होता है। प्रेमिका ने प्रियतम पर अपनी इच्छा थोपी तब तो वह व्यापार व्याभिचार बन गया। हमारी आत्मा इतनी उथली नहीं जो समर्पण करने के बाद अपने मास्टर पर अपनी अभिरुचि का प्रस्ताव लेकर पहुँचे।

परिपूर्ण समर्पण की माँग, ऊपर से कठोर परीक्षाएँ पहली नजर में ऐसा लगता है कि गुरु से क्रूर व्यक्ति इस संसार में और कोई नहीं हो सकता। पर वास्तविकता इससे विपरीत है गुरु से बड़ा प्रेमी-खोजने पर तीनों लोकों में न मिलेगा। जिसे समर्पण कहते हैं-उसकी अनिवार्यता तो इसलिए है कि हम अपने अस्तित्व की शल्य चिकित्सा के लिए भली प्रकार सर्जन के हाथों सौंप सके और जो परीक्षाएँ है, कष्ट कठिनाइयाँ हैं वे और कुछ नहीं , जन्म-जन्माँतर के कुसंस्कारों को निकालने के लिए बरती हुई कठोरता है।

गुरु और शिष्य का संबंध रागात्मक संबंध है। प्रेम संबंधों का उच्चतम आदर्श है। साँसारिक संबंधों में सबसे घनिष्ठ रिश्ते दो ही हैं माँ और शिशु का संबंध पति और पत्नी का संबंध। परंतु इन रिश्तों की भावभूमि शरीर और मन के तल तक सीमित होकर रह जाती है। जबकि गुरु और शिष्य आत्मा की व्यापकता में फलते-फूलते परिपुष्ट होते हैं। इस तथ्य को स्वीकार करते उनके शब्द हैं-”हमारे मार्गदर्शक को हमने बहुत अधिक प्यार है और उनका स्वयं का प्रेम अपने मार्गदर्शक के प्रति हमारी प्रेम साधना को यदि साँसारिक रिश्तों से तौला जाय तो उसकी उपमा पतिव्रता स्त्री के अनन्य पति प्रेम से दी जा सकती है। उनकी प्रसन्नता अपनी प्रसन्नता है। उनकी इच्छा अपनी इच्छा। अपने व्यक्तित्व के लिए कभी कुछ चाहने-माँगने की कल्पना तक नहीं उठी। केवल इतना ही सोचते रहे, अपने पास जो कुछ है। अपने से जो भी संपदाएँ, विभूतियाँ जुड़ी हुई हैं, वे सभी इस आराध्य के चरणों पर समर्पित हो जाएँ। उनके प्रयोजन में खप जायँ। ऐसे अवसर जब भी जितने भी आएँ हमारे संतोष और उल्लास की मात्रा उतनी ही बढ़ी। गुरुदेव पर आरोपित हमारी प्रेम साधना प्रकाराँतर से चमत्कारी वरदान बनकर ही वापस लौटी है।

उनका हर आदेश हर संकेत ब्रह्म वचन की तरह शिरोधार्य रहा है। माँगना कुछ नहीं देना सब कुछ’ प्रेम के इस अविच्छिन्न सिद्धाँत को दोनों ने ही चरम सीमा तक निबाहा है। दूसरी ओर से क्या किया गया, इसकी चर्चा हमारी वर्णन शक्ति से बाहर है। अपनी ओर से हम इतना ही कह सकते हैं कि भगवान से बढ़कर हमने उनके निर्देशों को शिरोधार्य किया है। अरुचिकर और कष्टकर कोई प्रसंग आया तो भी उसे सहज स्वभाव स्वीकार किया। प्रेम की ऐसी ही रीति-नीति है। हमने अपनी ओर से प्रिय पात्र बनने से कुछ उठा नहीं रखा फलतः गुरुदेव का अनुग्रह अमृत भी अपने ऊपर अजस्र रूप में बरसा हैं। प्रेमतत्व के संवर्धन की साधना गुरु भक्ति से आरंभ होकर ईश्वर भक्ति तक जा पहुँची। हमें इस प्रसंग में इतने अधिक आनंद उल्लास का अनुभव होता रहा है कि उसके आगे संसार का बड़े से बड़ा सुख भी तुच्छ लग सके। अपने गुरु के प्रति बढ़ती हुई हमारी प्रेम भावना आत्म प्रेम और विश्व प्रेम में विकसित होती चली गयी और देखने वालों को उस अंतः भूमिका की प्रतिध्वनि एक दिव्य जीवन के रूप में मिल सकी।”

परम पूज्य गुरुदेव के गुरु प्रेम के आलोक में तनिक हम भी परखें हमारा शिष्यत्व कैसा है? ध्यान रहे मनुष्य जिसे प्यार करता है, उसके उत्कर्ष एवं सुख के लिए बड़े से बड़ा त्याग और बलिदान करने को तैयार रहता है। यदि अंतःकरण में गुरु प्रेम की पवित्र ज्योति जल सकी होगी तो अपने शरीर, मन, अंतःकरण एवं भौतिक साधनों का अधिकाधिक भाग समाज और संस्कृति की सेवा में लगाने से कदम पीछे नहीं हटेंगे। फिर तो ऐसी हूक उठेगी कि कोई भी साँसारिक प्रलोभन रोक सकने में समर्थ नहीं होगा। अपने आराध्य के लिए उनके आदर्शों के लिए सब कुछ लुटाकर भी अंतःकरण ऐसे दिव्य आनंद से भरापूरा रहेगा जिसे भक्ति योग के मर्मज्ञ ही जान सकते हैं।

*समाप्त*


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