समस्याओं का कारण – मानवी दुर्बुद्धि

August 1994

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कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है किंतु फल प्राप्त करने में वह सृष्टि के नियमों के बंधनों में बँधा हुआ है। अन्य जीवधारी इस तथ्य को अपनी स्वभाव प्रेरणा से समझते हुए तद्नुरूप आचरण करते रहते हैं पर मनुष्य है जो तुर्त-फुर्त परिणाम मिलने में विलंब होने के कारण प्रायः चूक करता रहता है। अदूरदर्शिता अपनाता है और तात्कालिक लाभ के लिए आतुर होकर यह भूल जाता है कि विवेकशीलता की उपेक्षा करने पर अगले ही दिनोँ किन दुष्परिणामों को भुगतने के लिए बाधित होना पड़ सकता है। यह वह गलती है जिसके प्रति उत्साहित होकर मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक भूलें करता है। फलतः उलझनों, समस्याओं, विपत्तियों का सामना भी उसे ही अधिक करना पड़ता है। कोई समय था जब मनुष्य अपनी गरिमा का अनुभव करता था। जीवन को स्रष्टा की अनुपम कलाकृति और विश्व विकास के निमित्त मिली हुई संपदा समझता था। स्रष्टा का युवराज होने के नाते अपने चिंतन और कर्तृत्व को ऐसा बनाये रहता था कि सुव्यवस्था बनी रहने पर किसी को किसी प्रकार की प्रतिकूलताओं का सामना न करना पड़े ।

इस संसार में इतने साधन मौजूद है कि यदि उनका मिल बाँटकर उपयोग किया जाय तो किसी को किसी प्रकार के संकटोँ का सामना न करना पड़े। प्राचीनकाल में इसी प्रकार की सद्बुद्धि को अपनाया जाता रहा है। कोई कदम उठाने से पहले यह सोच लिया जाता था कि उसकी आज या कल परसों क्या परिणति हो सकती है। औचित्य को अपनाये भर रहने से वह सुयोग बना रह सकता है जिसे पिछले दिनों सतयुग के नाम से जाना जाता था। सन्मार्ग का राजपथ छोड़कर उतावले लोग लंबी छलाँग लगाते और कँटीली झाड़ियों में भटकते हैं। इन दिनों इसी प्रकार की दुर्मति का बोलबाला हुआ है। जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ को प्रधानता मिली है और यह भुला दिया गया है कि जो कदम उठाये जा रहे हैं उससे दूसरों को किन संकटों में फँसना पड़ेगा। जिन्हें मात्र अपना ही ध्यान रहता है दूसरों के हितों की परवाह नहीं करते उसका ही यह प्रतिफल होता है कि स्वार्थ आपस में टकराते हैं और अनेकानेक समस्यायें पैदा होती है कि स्वार्थ आपस में टकराते हैं और अनेकानेक समस्यायें पैदा होती है। दूरगामी परिणामों पर विचार न करके जिन्हें तत्काल का लाभ ही सब कुछ लगता है वे चिड़ियों, मछलियों की तरह जाल में फँसते, चाशनी पर आँखें बंद करके टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह पंख फँसाकर बेमौत मरते हैं। दुर्बुद्धि का यही कुचक्र जब असाधारण गति से तीव्र हो जाता है तब उलझनें भी ऐसी ही खड़ी होती है जैसी कि जन-जन को संत्रस्त करते और समुदाय को विपत्तियों के दल-दल में फँसाती जा रही दृष्टिगोचर हो रही हैं।

क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में बहुधा विलंब लग जाता है। इसी कारण कितने ही लोगों में संदेह उत्पन्न हो जाता है कि जो किया है उसकी तद्नुरूप परिणति होना आवश्यक नहीं। कई बार बुरे कर्म करने वाले भी उन पाप दंडों से बचे रहते हैं। कई बार अच्छे कर्म करने पर भी उनके सत्य परिणाम दीख नहीं पड़ते। इससे सोचा जाता है कि सृष्टि में कोई नियमित कर्मफल व्यवस्था नहीं है। यहाँ ऐसे ही अंधेर चलता है । ऐसी दशा में स्वेच्छाचार बरता जा सकता है और जिसमें तत्काल लाभ दिखायी पड़े वह किया जा सकता है। ऐसे लोग क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में जो समय लगता है उसकी प्रतीक्षा नहीं करते और नास्तिक स्तर का अविश्वास अपना कर जो भी सूझता है उस तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मानकर बैठ जाते हैं। यह भुला दिया जाता है कि बीज का वृक्ष बनना तो निश्चित है पर उसमें देर लग जाती है। दूध को दही बनने में भी कुछ समय तो लगता ही है। असंयम बरतने वाले अपने अनाचार का दंड तो भुगतते हैं पर उसमें भी समय लगता है। नशेबाजी का स्वास्थ्य बिगड़ता और जीवन फल घटता जाता है पर वह सब कुछ तुरंत ही दीख नहीं पड़ता। इसलिए पीने वाले अपनी आदत नहीं छोड़ते कि जब तत्काल कोई बड़ी हानि नहीं हो रही है तो भविष्य में भी कुछ अनिष्ट हो इसका क्या निश्चय है। अन्यान्य दुर्व्यसनों में लिप्त व्यक्ति भी ऐसा ही कुछ सोच लेते हैं। पता तब चलता है जब अनाचार का बड़ा संग्रह हो जाता है और घड़ा फूटता है।

यदि झूठ बोलते ही मुँह में छाले पड़ जाते । चोरी करते ही हाथ को लकवा मार जाता। व्यभिचारी नपुँसक हो जाते, तो किसी को कुछ अनर्थ करने का साहस ही न होता। पर भगवान ने मनुष्य की समझ और विवेक बुद्धि को जाग्रत करें। उसका सही उपयोग करके औचित्य अपनाये। सही मार्ग पर चले। इस परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वालों को दंड तो मिलता है पर देर में वस्तुस्थिति समझने के कारण उन्हें पश्चाताप तो करना ही पड़ता है। साथ ही अदूरदर्शिता अपनाने की आदत पड़ जाने पर पग-पग पर भूल करने और ठोकरें खाने की दुर्गति भी सहन करनी पड़ती है।

अन्य प्राणियों का भविष्य ज्ञान सीमित होता है। वे प्रकृति प्रेरणा के संकेतों को समझ कर अपने आचरण पर स्वेच्छापूर्वक अंकुश रखे रहते है। पर मनुष्य है जो भविष्य की अधिक सार्थक और सही कल्पना कर सकने में समर्थ होते हुए भी अवाँछनीयताओं को अपनाता है और अनेक प्रकार के कष्ट सहता है। इसके विपरीत ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो दूर की बात सोच समझ सकते हैं। और परिणाम को ध्यान में रखते हुए अपनी वर्तमान गतिविधियों को सुनियोजित करते हैं। जीवन संपदा का सदुपयोग करके स्वयं को धन्य बनाते और अपने अनुकरणीय का अवसर देकर अनेकों का भला करते हैं। मनुष्य को ईश्वर ने जो अनेकानेक विशेषताएँ-विभूतियाँ प्रदान की हैं उनमें से एक यह भी है कि वह क्रिया की प्रतिक्रिया का अनुमान लगा सके और अनिष्टों से बचते हुए सुख-शाँति का जीवन जी सके।

इन दिनों स्नेह, सद्भाव, सहकार, सदाचार की कमी पड़ने से मनुष्य का व्यवहार ऐसा विचित्र बन गया है जिसमें शोषण ही प्रधान दिखायी पड़ता है। सहयोग के आधार पर तो परस्पर हित साधन की प्रक्रिया चलती रह सकती है, किंतु जहाँ व्यक्तिवाद की आपाधापी ही सब कुछ हो वहाँ यह समझ में नहीं आता कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपना लेने पर दूसरों के अधिकारों को क्षति पहुँचाती है या नहीं ? यह स्थिति ऐसी है जिसमें दूसरों के कष्ट-संकट और अहित की ओर ध्यान जाता ही नहीं, मात्र अपना ही लाभ सूझता है। अनाचार, अत्याचार, शोषण, अपहरण, उत्पीड़न के मूल में यही वृत्ति काम करती है। निस्संकोच जघन्य कृत्य करने वाले वे ही होते हैं जिन्हें दूसरों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती। अपने तनिक से लाभ के लिए दूसरों पर पहाड़ जितना संकट उड़ेल सकते हैं। इस अनर्थ मूलक प्रवृत्ति की मानवधर्म के प्रतिपादकों ने भरपूर निंदा की है और कहा कि “आत्मवत् सर्वभूतेषु” वाली भाव संवेदना को सँजोये ही रहना चाहिए। जो व्यवहार हमें अपने लिए पसंद नहीं, वह दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए। सबमें अपनी ही आत्मकथा को देखने का तात्पर्य है-दूसरों के दुखों को अपना दुख और दूसरों के सुख को अपना सुख माना जाय। मानवी स्तर की भाव संवेदनाओं का उद्गम इसी मान्यता के साथ जुड़ा हुआ है। इसे यदि हृदयंगम कर लिया जाय तो अनाचार बरत सकना संभव न होगा। सेवा सहायता के लिए मन चलेगा। दुख बँटा लेने और सुख बांट देने की उदारता बनी रहे तो मिल बाँट कर खाना और हिल-मिलकर रहना ही सहज स्वभाव बन जायगा।

अपनत्व को सिकोड़ लेना क्षुद्रता है और उसे व्यापक बनाकर चलना महानता । महामानव पुण्य परमार्थ की बात सोचते, योजना बनाते और गतिविधि अपनाते रहते हैं। यही आत्मविकास है। विकसित व्यक्ति का अपनापन मनुष्य मात्र से प्राणिमात्र में फैल जाता है। ऐसी दशा में जिस प्रकार अपने लिए सुख साधन जुटाने की इच्छा होती है उसी प्रकार यह भी सूझता है कि दूसरों को सुखी रहते देखकर अपना भी मन हुलसे, दूसरों के दुख में हिस्सा बँटाने के लिए सेवा सहायता हेतु दौड़ पड़ने की आतुरता उमगे। यदि इस मानवी मर्यादा का परिपालन होने लगे तो कोई किसी के साथ अनीति बरतने की कल्पना ही मन में न उठने दे। अनाचार अत्याचार के लिए तो कदम उठे ही नहीं, पाप अपराधों की बड़ी संख्या गिनाई जाती है पर वस्तुतः वे इन्हीं दो डालियों पर लगने वाले विष फल है। संकीर्ण स्वार्थपरता ही दूसरों की उपेक्षा करना सिखाती है और अपने लिए अनीतिपूर्वक भी मन चाहे सुख साधन बटोरने के लिए उत्साहित करती है। इसका मूलभूत कारण है अदूरदर्शिता-अविवेक। किस कृत्य का भविष्य में क्या परिणाम होगा, इसका दूरवर्ती अनुमान न लगा पाने पर तात्कालिक लाभ ही सब कुछ हो जाता है। भले ही उसके साथ अनीति ही क्यों न जुड़ी हो। जिस प्रकार दृष्टि दोष होने पर मात्र नजदीक की वस्तुएँ ही दीख पड़ती हैं और दूर पर रखी हुई वस्तुओं को पहचान सकना कठिन हो जाता है उसी प्रकार अदूरदर्शी तुरंत के लाभ को सब कुछ मनाते हुए उसे किसी भी कीमत पर पूरा करने के लिए जुट जाते हैं। इसके बाद इसकी परिणति क्या हो सकती है इसका अनुमान तक अदूरदर्शी लोग लगा नहीं पाते। आँखें रहते हुए भी यह अंधे जैसी स्थिति है। जिनका स्वभाव ऐसा बन जाता है वे तत्काल भले ही कुछ लाभ उठालें पर अपनी प्रामाणिकता को खो बैठते हैं। हर किसी की दृष्टि में अविश्वस्त बन जाते हैं। कोई उनका सच्चा मित्र नहीं रहता। समझदारी का जिनमें अभाव है उन्हें परामर्श देने या लेने योग्य भी नहीं समझा जाता। उनकी ओर सबकी शंका शंकित दृष्टि बनी रहती है। सच्चे सहयोग के अभाव में अविश्वस्त वातावरण में वे भीड़ के बीच रहते हुए भी अपने को एकाकी अनुभव करते हैं। एकाकीपन कितना नीरस, निस्तत्व और डरावना होता है उसे हर भुक्तभोगी भली प्रकार जानता है। इन दुर्गुणों के रहते स्वभाव में अनेकानेक अवाँछनीयताएँ भी सम्मिलित हो जाती है। आलस्य, प्रमाद, छल, प्रपंच, अतिवाद, अहंकार, लिप्सा, तृष्णा, जैसे अनेकों अनौचित्य एक साथ ही बिना बुलाये साथ हो जाते हैं। प्रामाणिकता चली जाने पर न तो प्रखरता शेष रहती है और न प्रतिभा ही व्यक्तित्व के साथ जुड़ी रह जाती है। चोर-चालाकों का मानस सदा भयभीत बना रहता है। अनिष्ट की आशंकायें बनी रहती हैं और संदेह करते संदेहास्पद स्थिति में बने रहते हुए ही समय गुजरता है। प्रतिफल, प्रतिशोध के, घृणा तिरस्कार के रूप में वापस लौटते हैं। संसार के दर्पण में अपनी ही कुरूप छाया दीख पड़ती है। स्व उपार्जित घृणा कुएँ की आवाज की तरह अपने ही पास वापस लौट आती है। अपना ही मानस अनौचित्य से भरा होता है तो अन्यान्यों के व्यवहार में भी उसी की झलक झाँकी दीख पड़ती है।

सज धज बढ़ी चढ़ी हो सकती है। श्रृंगार से रूप सौंदर्य सजाया जा सकता है। विज्ञापन बाजी के सहारे चाटुकारों के मुँह से सस्ती वाहवाही लूटी जा सकती है। पैसा देकर प्रशंसा पत्रक छापे जा सकते हैं। किन्तु इन कागज के फूलों की असलियत समझने में किसी को देर नहीं लगती। कागज की नाव कितनी दूर तक कितनी देर तक पानी में बह सकती है। कुछ को कुछ देर के लिए मूर्ख बनाया जा सकता है। पर सब को सदा के लिए गफलत में रखा जा सके यह संभव नहीं । अपने द्वारा किये गये दुर्व्यवहार किन्हीं अन्यों के द्वारा अपने ऊपर प्रतिक्रिया बनकर टूटते हैं। जिसने औरों को ठगा है वह किन्हीं अन्यों के द्वारा ठगा जाय ऐसे घटनाक्रम आये दिन घटित होते देखे जाते हैं। असंयम बरतने वाले तत्काल न सही, कल-परसों उसकी दुखदायी प्रतिक्रिया से दंडित हुए बिना नहीं रहते ।

मनुष्य-मनुष्य के बीच दीख पड़ने वाले दुर्व्यवहारों की परिणति इन दिनों हर ओर कष्टकारक दीख पड़ती है। मैत्री और साझेदारी हर क्षेत्र में समाप्त होती चली जाती है। जब विश्वास ही नहीं जमता तो सहयोग किस बलबूते पनपे। टूटे हुए मनोबल का व्यक्ति किस प्रकार कोई उच्चस्तरीय साहस कर सके। उसके न जुट पड़ने पर ऊँचे उठने आगे बढ़ने का सुयोग कैसे बने ?

अपने समय की सबसे बड़ी कठिनाई अनौचित्य की बढ़ोत्तरी है। उसके कारण विरोध तो सहना ही पड़ता है। घृणा और तिरस्कार का भाजन तो बनना ही पड़ता है। इस प्रकार जो हानि होती है उससे बचा नहीं जा सकता। एक या दूसरे रास्ते अवगति आ ही धमकती है।

मनुष्य-मनुष्य के बीच छाया हुआ छद्म और अविश्वास, असहयोग और अनाचार चित्र-विचित्र प्रकार के उद्वेग असंतोष और दुर्व्यवहार उत्पन्न करते देखा जाता है। फलतः धनी निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित सभी को अपने-अपने ढंग की कठिनाइयाँ उपजती हुई दिख पड़ती हैं। अधिकाँश लोगों को श्मशान के भूत पलीतों की तरह जलते-जलाते, डरते, डराते उद्विग्न और असंतुष्ट स्थिति में देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में यदि सुविधा साधनों का बाहुल्य रहा भी तो भी उससे क्या कुछ बनता है। बाहर वालों को सुखी, संपन्न देखना एक बात हे और अपनी दृष्टि में अपना मूल्य उच्चस्तरीय होगा वह कितने ही साधनों से संपन्न क्यों न हो, गई-गुजरी स्थिति में ही बना रहेगा। असंख्यों समस्यायें और चिंतायें उसे घेरे रहेंगी।

आज इसी स्थिति में जन साधारण को फँसा देखा जा सकता है। प्रगति के नाम पर सुविधा साधनों की अभिवृद्धि होते हुए भी चिंतन, चरित्र और व्यवहार में निकृष्टता भर जाने के कारण जो कुछ चल रहा है वह ऐसा है जिसे निर्धनों, अशिक्षितों और पिछड़े स्तर के समझे जाने वालों की तुलना में भी अधिक हेय समझा जा सकता है। इसे प्रगति कहा भले ही जाता हो पर वस्तुतः है अवगति ही, जिसे मानवी दुर्बुद्धि ने आमंत्रित किया है, दुर्मतिजन्य इस दुर्गति का एक ही समाधान है-विचारक्राँति।


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