आम और बाँस (Kahani)

August 1994

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एक जंगल में पास ही बाँसों का झुरमुट था एवं पास ही आम का पेड़ । बाँस ऊँचा था, आम छोटा। एक दिन बाँस ने कहा-” देखते नहीं, मैं कितना बड़ा हो चला, कितनी तेजी से बढ़ा। एक तुम हो, के सौभाग्य को सराहा, पर अपनी स्थिति पर भी असंतोष व्यक्त नहीं किया। समय बीतता गया। बाँस पक कर सूख चला, किन्तु आम की डालियां फलों से लदी और वह अधिक झुक गई। बाँस फिर इठलाया- “देखते नहीं, मैं सुनहरा हो चला और बिना पत्तियों के भी दूर-दूर से कितना सुन्दर दीखता हूँ । एक तुम हो, जिसे फलों से लदने पर भी नीचा देखना पड़ा रहा है।” आम ने फिर भी अपने संबंध में कुछ नहीं कहा। बाँस की सराहना भर कर दी । एक आया यात्रियों का झुँड । ठहरने के लिए आश्रय की तलाश थी, सो फलों से लदा छायादार आम वृक्ष सबको सुहाया। डेरा डाल कर वे वहाँ रात्रि विश्राम करने लगे।

जरूरत आग की पड़ी, भोजन पकाने के लिए। नजर दौड़ाई, तो पास में ही सूखा बाँस पड़ा पाया, काटा जलाना आरंभ कर दिया। बाँस बड़बड़ाने लगा, पर आम ठहरे यात्रियों को सुख पाते देखकर संतोष की साँस लेता रहा।


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