उदारता घाटे का नहीं, नफे का सौदा

August 1994

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उच्चकोटि के स्वार्थ को परमार्थ कहते हैं। मोटी दृष्टि से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि परमार्थ में अपने को घाटा पड़ता है। और दूसरे लाभ उठाते हैं पर वास्तविकता यह है कि उससे दोनों ही पक्ष लाभ उठाते हैं, जबकि स्वार्थ साधन में वह व्यक्ति भी घाटे में रहता है जो तात्कालिक उपलब्धि को देखकर अपने को लाभान्वित हुआ एवं नफे में रहा मानता है।

सत्प्रयोजनों के लिए सज्जनों के माध्यम से यदि कुछ आर्थिक परमार्थ-परक या भावनात्मक अनुदान दिया जाय तो वह व्यर्थ नहीं जाता वरन् अनेक गुना होकर वापस लौटता है। इसमें बीज का उदाहरण सबसे अधिक फिट बैठता है। बीज गलता है अंकुर बनकर फूटता है। जिसके खेत में उगा हैं वह उसकी भावी परिणति का अनुमान लगाता है और सींचने, खाद देने का प्रबंध करता है। इसके बाद पौधा बढ़ता विकसित होता चला जाता है और फल फूलों से लदा वृक्ष बनता है। जो फल आते हैं, एक बार में सैकड़ों की संख्या में आते हैं और उनमें हजारों की संख्या में बीज होते हैं। इन सबको भी यदि बोया उगाया जा सके तो एक वृक्ष से उसके जीवन में उत्पन्न वृक्षों की बीजों की संख्या लाखों तक पहुँच सकती है। यदि वह बीज गलना स्वीकार न करता तो अपनी सामान्य स्थिति भी चिरकाल तक बनाए नहीं रह सकता। इसमें घुन जैसे कीड़े लग जाते व उसे खोखला बनाकर समाप्त कर देते हैं यही उदाहरण सर्वत्र लागू होता है। उपकारी प्रवृत्ति व्यक्ति की गरिमा बढ़ाती है। उसकी उदारता संपर्क क्षेत्र के सभी प्राणियों को प्रभावित करती है। यह सहज अनुमान लगाया जाता है कि यह व्यक्ति स्वार्थ को परमार्थ पर निछावर कर सकता है तो इसका चरित्रवान होना स्वाभाविक है जिसे चरित्रवान समझा जाता है उसकी प्रामाणिकता पर सहज विश्वास होता है। उसके साथ व्यवहार करने के लिए सभी उत्सुक रहते हैं। इसलिए अनेकों साथी सहयोगी उसे अनायास ही मिलते रहते हैं।

हर मनुष्य साथी सहयोगी चाहता है। अपना परिकर मित्र मंडल बढ़ाना चाहता है पर साथ ही यह संदेह भी करता रहता है कि कहीं खोटे के साथ पाला न पड़े और ठगे जाने की नौबत न आए। इसलिए सज्जनों की तलाश रहती है। व्यक्तिगत सज्जनता की परख कैसे हो ? मोटी पहचान वाणी से होती है। अपनी नम्रता जताने और दूसरों की प्रशंसा करने वाले मन भाते और सज्जन समझे जाते हैं पर आडंबर तो छली लोग और भी अच्छी तरह बना लेते हैं ऐसी दशा में यह संदेह बना ही रहता है कि मधुरभाषी दीखने वाला कहीं कपटी न हो। इस संदेह का निवारण उसके उदार व्यवहार को देखकर ही निवारण होता है। क्योंकि उदारता उसी से बन पड़ती है जो स्वार्थ-त्याग के लिए उद्यत होता है। निजी लाभ कटौती किए बिना परमार्थ बन ही नहीं सकता। निःस्वार्थ सेवा साधना को करने के लिए हृदय की विशालता चाहिए। जो दूसरों के दुःख से दुखी और दूसरों के सुख से सुखी हो सकता है, उसी के लिए यह संभव है कि उदारता बरते, दूसरे की सहायता करे। इसके लिए अपनी सुविधाओं में कटौती करके ही वह बचत की जा सकती है जो परमार्थ के काम आए। अपनी सुविधाओं में कटौती कर सकना किसी आदर्शवादी के लिए ही संभव है। हर किसी के लिए नहीं जिसमें आत्मसंयम अपनाने का साहस है, वही यह भी कर सकता है कि अपना समय, श्रम, ज्ञान, साधन दूसरों को देने के लिए कदम बढ़ा सके। यह शृंखला जहाँ चरितार्थ होती दीखती है, वहाँ सज्जनता के प्रति सहज विश्वास होता है। इतनी जानकारी के प्रति विश्वास हो जाने पर लोग उसके साथ मित्र भाव स्थापित करते हैं। प्रशंसक बनते हैं, साथ ही मैत्री बढ़ाते हैं। मैत्री में स्वभावतः यह होता है कि जिसके साथ सद्भाव स्थापित हुआ है, उसके कामों में भी हाथ बंटाया जाय। उदारचेता देखते हैं कि उनने थोड़े लोगों के साथ आत्मीयता बरती और सेवा सहायता की पर इसके बदले उन्हें अन्य लोगों से वैसा ही उदार व्यवहार मिलना आरंभ हो गया। इस प्रकार का एक अनाज का दाना बोने पर सौ दाने उत्पन्न होने वाला उदाहरण सहज ही चरितार्थ होने लगता है। उदारता का व्यवहार कभी घाटे का सौदा सिद्ध नहीं होता। कुछ के साथ बरती गई उदारता अनेकों का सहयोग सद्भाव लेकर वापस लौटती है। इस प्रकार व्यावसायिक दृष्टि से भी उदारता घाटे का सौदा सिद्ध नहीं होती। परमार्थ की दृष्टि से उसका अपना विशिष्ट महत्व है ही। इससे आत्मबल बढ़ता है संतोष मिलता है और चरित्र में निखार आता है। इस प्रकार सेवा साधना का महत्व समझने वाले और उसे चरितार्थ करते रहने वाले कभी घाटे में नहीं रहते। यदि आर्थिक दृष्टि से कुछ हानि उठाना पड़े तो उसकी भरपाई उस प्रतिक्रिया में हो जाती है, जो उसकी सहायता के बदले बहुतों की सद्भावना साथ लेकर वापस लौटती है।

स्वार्थी अनुदार होता है। वह अपना ही लाभ सोचता है। इस ललक में वह दूसरों की होने वाली हानि का अनुमान नहीं लगा पाता। उचित आदान-प्रदान तो सहज स्वभाव होता है। उसकी गाड़ी व्यवसायिक आधार पर भी चलती रहती है। किन्तु यह हर किसी से नहीं बन पड़ता कि जरूरतमंदों की आवश्यकता अपनी आवश्यकता से बढ़कर समझे और निज की सुविधा को घटाकर उस बचत से दूसरों के अभाव की पूर्ति करे। जो ऐसा कर पाते हैं वे उदार हृदय समझे जाते हैं और उनका व्यक्तित्व प्रमाणिक माना जाता है। अनेकों उसके प्रशंसक एवं सहयोगी बरते हैं। साथ ही उसके कामों में हाथ बँटाने के लिए भी तैयार रहते हैं।

महामानवों के उत्कर्ष के पीछे यही विधा काम करती हुई दिखाई देती है। उनने सेवा का व्रत लिया, प्रमाणिकता सिद्ध की, सहयोग पाया और जन समर्थन से ऊँचे पद पर पहुँचे। विशिष्ट व्यक्तियों में गिने गए और सेवा के बदले सहयोग का क्रम मिलता चला गया। वे उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचे, प्रख्यात हुए और अपना उदाहरण अनेकों के लिए अपनाए जाने योग्य बनाकर छोड़ गए।

समाज का गठन इसी आधार पर हुआ हे कि इसमें उदारता का बढ़ा-चढ़ा परिचय देने वाला दूसरों का विश्वासपात्र बनता है और उनके बीच मैत्री, सरलता और सघनता पूर्वक चलने लगती है। उदारता के आधार पर परिवार से लेकर मित्र परिकर एवं समाज के बीच संगठन उत्पन्न होता है। उसकी दृढ़ता और आदर्शवादिता के प्रभाव से संबद्ध परिवार भली प्रकार प्रभावित होता है और वह परंपरा ही एक प्रकार से चल पड़ती है, जिससे अनेकों को अनेकों प्रकार से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है। यह लाभ हर किसी के द्वारा समझा जाना चाहिए।

उदारता वहाँ अनर्थकारी सिद्ध होती है जब वह कुपात्रों के हाथ कुकृत्यों के लिए थमाई जाय। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिनका स्वभाव एवं व्यवसाय ही दूसरों को ठगना है। वे अपने दोष दुर्गुणों के कारण हेय स्थिति में स्वयं पहुँचते हैं और कठिनाई के आकस्मिक होने का बहाना बनाकर करुणा उपजते और उस उभरी हुई भाव संवेदना का अनुचित लाभ उठाने के प्रयत्न में सफल होते रहते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा ठगों को घात लग जाने पर ही अन्यान्यों को उसका पता चलता है। अविश्वास का विस्तार होता है। दूसरे वास्तविक आवश्यकता वालों को भी इस अविश्वास के माहौल से वंचित रहना पड़ता है।

उदारता के बदले मिलने वाला आत्मसंतोष स्वयं अपने आप में एक दैवी वरदान है। अंतःकरण की प्रसन्नता प्रकाराँतर से व्यक्तित्व के अनेक पक्षों को विकसित करती है। यह लाभ इतना बड़ा है कि बदले में अनुदान का प्रतिदान न भी मिले तो भी कोई घाटा प्रतीत नहीं होता। सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए यदि अपना उदाहरण प्रस्तुत किया जा सके तो उस परंपरा में भी बहुतों का बहुमूल्य लोकहित होते देखा जा सकता।


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