विवेक का आश्रय लें-भटकाव से उबरें

August 1994

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गायत्री की चौबीस शक्ति धारायें है। उनमें से एक धारा है - ऋतम्भरा की। इसी को प्रज्ञा कहते हैं प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि की उत्कृष्टतम स्थिति। इसी को व्यवहारिक भाषा में विवेक कहते हैं, सत्यासत्य के बीच अंतर करने योग्य सद्बुद्धि। विवेकशीलता, दूरदर्शिता इसी की उपलब्धियाँ है। गायत्री महामंत्र में जिस ‘धी’ तत्व की प्रेरणा के लिए सविता देवता से प्रार्थना की गयी है, वह यह ऋतम्भरा प्रज्ञा-विवेक है। विवेक के जागरण के लिए ऋतम्भरा प्रज्ञा को विकसित करने के लिए ऋतम्भरा प्रा को विकसित करने के लिए ही सुविस्तृत ब्रह्म विज्ञान की रचना हुई है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं-”न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते”- सद्ज्ञान से अधिक पवित्र इस संसार में और कुछ नहीं है। इसकी प्राप्ति को संसार की सर्वोत्तम उपलब्धि माना गया है। गायत्री का ‘धयो’ शब्द ऋतम्भरा की आराधना की प्रेरणा देता है। विवेक के अनुशीलन को महत्व देता है।

मनुष्य के जीवन में अनेकों अवसर ऐसे आते हैं जब कुछ निर्णय लेते नहीं बनता। परस्पर विरोधी विचारधारा के आ जाने पर बुद्धि भ्रमित हो जाती है तथा यह निर्णय नहीं हो पाता कि किसी स्वीकारा और किसे अस्वीकारा जाय। बुद्धि की कसौटी पर कसने पर तो दोनों प्रकार के विचार उपयोगी लगते हैं। ऐसी विषम स्थिति में निर्णय का दायित्व बुद्धि के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता है। इस स्थिति के निवारण के लिए भारतीय अध्यात्मशास्त्र ‘विवेक’ के अवलंबन का निर्देश देते हैं।

विवेक मनुष्य का वह सद्गुण है जो उसे कर्तव्य-अकर्तव्य औचित्य-नौचित्य, श्रेष्ठ-निकृष्ट में पहचान कराता है। पाश्चात्य देशों में भी विवेक को दार्शनिकों, विचारकों, मनीषियों ने बहुत महत्व दिया है। प्रख्यात दार्शनिक सुकरात के एक प्रमुख शिष्य ऐन्टेस्थनीज ने तो “सिनिसज्म” नामक विवेकवादी दर्शन प्रदान किया। उनने बताया कि मनुष्य जीवन वासना, विलासिता एवं अहंता की पूर्ति के लिए नहीं, वरन् आत्मचिंतन, श्रेष्ठ व उत्कृष्ट विचारणा एवं सत्कर्मों के लिए मिला है। साँसारिक भोग सुखों को आध्यात्मिक चिंतन में अवरोध बताते हुए उसे त्यागने में ही परम कल्याण बताया है। उनका कहना है कि व्यक्ति अपनी इच्छा-आकाँक्षाओं-वासनाओं एवं लालसाओं को संयत रखे और उत्कृष्ट चिंतन और कर्तृत्व में अपना समय नियोजित करे यही महामानवों की भांति उच्च जीवनक्रम है। गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार की उत्कृष्टता तप एवं त्यागमय जीवन जीने से उपलब्ध होती है। विभिन्न धर्म-मतावलंबियों में झगड़ा उनकी क्षुद्र कामनाओं-महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति में विघ्न पड़ने से ही होता है। परंतु जिस व्यक्ति ने विवेक के द्वारा अपनी आकाँक्षाओं, वासनाओं पर नियंत्रण पा लिया हो उसका किसी से झगड़ा या संघर्ष नहीं होता। ऐसा विवेकशील मनुष्य सत्य-असत्य भले-बुरे कार्यों का निर्णय सुगमतापूर्वक करने में सक्षम होता है। विवेकपूर्ण सत्यमार्ग का अनुसरण करके ही महापुरुषों ने महानता को अर्जित किया है। इसी तरह ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व एथेन्स में रहने वाले साइप्रस द्वीप के दार्शनिक ‘जोनों’ ने लोगों को विवेकपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने का उपदेश दिया था। उनके विचारों को ‘स्टोइसिज्म’ या ‘स्टोइकवाद’ के नाम से जाना जाता है। इस दर्शन में प्रत्येक घटना के मूल में विवेक को कार्य करता हुआ माना गया हे और कहा गया है कि इस संसार में जो कुछ भी है शुभ ही शुभ है अशुभ है ही नहीं। अशुभ तो हमारी विचारणा और कर्तृत्व की देन है। उसके अनुसार कैसी भी परिस्थितियाँ क्यों न हों-शाँति एवं संतोष से सुख-दुख को सहन करते हुए रहना ही मानव जीवन का आदर्श होना चाहिए। हमें अपना दृष्टिकोण बदल देना चाहिए। दृश्यों अथवा घटनाओं को परिस्थितियों को बदलने में व्यक्ति स्वतंत्र नहीं है, परंतु अपनी मनःस्थिति एवं दृष्टिकोण को बदल लेने में वह पूर्णतया स्वतंत्र एवं सक्षम है। इतनी विशाल सृष्टि का संचालक किसी विवेकवान सत्ता द्वारा ही शक्य है, इसलिए भली-बुरी घटनाओं में समभाव रहकर उद्विग्नता से बचे रहकर प्रसन्नचित रहा जा सकता है। विवेकवान समस्त घटनाओं में शुभ मंगलमयता का ही दिग्दर्शन करते और कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होते। राम का प्रसिद्ध स्टोइकवादी पोसीडोनियस भयंकर रोग से ग्रसित होते हुए भी प्रसन्न रहता ओर कहा करता था-”ऐसे दुःख तो मुझे चाहे जितनी पीड़ा पहुँचा, चाहे जितना कम दे, परंतु मुझ से यह कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि तू बुरा है।”

स्टोइसिज्म के अनुसार मनुष्य को अपने कार्यों का निर्धारण विवेक से करना चाहिए कर्त्तव्य के प्रति सजग रहना और फल के प्रति अनासक्त रहना ही विवेक संगत है। प्रिय-अप्रिय सबके प्रति समदृष्टि रखना ही नैतिक सिद्धाँत है। इंद्रियों के वंश में या संवेग या आवेश में होने से मनुष्य सद्विचार नहीं कर पाता। दया के स्थान पर सद्भाव रखना और प्रशाँत मन से आत्मीयता के भावों से परिपूर्ण सबका शुभ चिंतन करना ही सर्वथा विवेक सम्मत है। उनका सिद्धाँत था-’पाप से घृणा करो पर पापी से नहीं।’ मनुष्य अपने लिए सुखों की अवहेलना कर सकता है, पर दूसरों को दुःखी नहीं बनना ही उसके लिए वास्तविक धर्म या कर्तव्य परायणता है। संसार के सभी श्रेष्ठ पुरुषों ने कर्तव्यपरायण होकर ही उच्चता को प्राप्त किया। उपयुक्त एवं सार्वजनीन हितकारी बातों को अंगीकार करना ही विवेक सम्मत है।

इन दिनों संसार में जब मतभेदों की भरमार है। सामाजिक रीति−रिवाजों, परंपराओं, मान्यताओं में एक स्थान से दूसरे स्थान-समाज के बीच आसमान धरती जैसा अंतर है। विचारों में एकता-एकरूपता कहीं नहीं है। सर्वत्र वैभव, विलासिता, अहंता का प्रदर्शन ही दृष्टिगोचर होता है। इसी तरह अनेकों धर्म संप्रदाय है। एक धर्म में एक बात का समर्थन किया गया है तो दूसरे में उसका विरोध हुआ है। एक धर्मगुरु कुछ कहता है, दूसरा उसका विरोध करता है। किस शास्त्र को, किस धर्म को, किस महापुरुष को सही और किसे गलत ठहराया जाय, यह निर्णय नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में केवल विवेक ही यह बता सकता है कि आज की स्थिति में क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य ? अनेकों संप्रदायों शास्त्रों, आप्तवचनों में एक को अपना पथप्रदर्शक चुनने में विवेक ही सहायक सिद्ध होता है। गायत्री का ‘धियो’ शब्द ऐसी विषम परिस्थितियों में विवेक की शरण में जाने की प्रेरणा देता है। उसकी शिक्षा है कि जो बात बुद्धि संगत हो, विवेक सम्मत हो, व्यवहार में आने योग्य हो, औचित्यपूर्ण हो उसी को ग्रहण करना चाहिए।

धर्म ही नहीं अनेकों प्रथा-परंपराएँ रीति-रिवाजें प्रचलित हैं अनेकों विचारधाराएँ हैं। जो किसी समय भले ही उपयुक्त रही हों, पर आज तो वे सर्वथा अनुपयोग एवं हानिकारक ही हैं। उन्हें वर्तमान काल की आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों के अनुरूप कसौटी पर कस कर अपनाना ही दूरदर्शिता है। भारतीय दर्शन शास्त्र इस संबंध में स्पष्ट निर्देश देता है कि व्यक्तियों एवं विचारों को आपस में संबद्ध मत करो। संभव है कोई उत्तम चरित्र का व्यक्ति भ्राँत हो और उसके विचार अनुपयुक्त हों। इसी प्रकार यह भी संभव है कि कोई चरित्रहीन व्यक्ति कभी कोई सारगर्भित बात कहता हो। चरित्रवान का सम्मान करना एक नैतिक कर्त्तव्य है, पर यह आवश्यक नहीं कि उनके उलझे विचारों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हों। प्रधानता विवेक की है कि उपयोगी का चुनाव कहाँ से और किस प्रकार किया जाय। भगवान बुद्ध के उत्तम चरित्र एवं कठोर तपश्चर्या से प्रभावित तथा श्रद्धासिक्त होकर भारतीय जनसमूह ने उन्हें अवतार की उपाधि दी। इतने पर भी बौद्ध सिद्धांतों को स्वीकार नहीं किया। ईश्वर पर अनास्था, शून्यवाद, गृहत्याग में मोक्ष, यज्ञ निषेध आदि बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को भारतीय जनमानस न केवल अस्वीकार करता, वरन् विरोध भी करता है। दर्शनों में चार्वाक दर्शन भी सम्माननीय है। विद्वता एवं तर्क की दृष्टि से एक सीमा तक उसकी उपयोगिता है, पर नैतिक दृष्टि से चार्वाक के सिद्धाँत अनुपयोगी एवं हानिकारक ही सिद्धाँत अनुपयोगी एवं हानिकारक ही सिद्ध होते हैं । उन्हें व्यवहारिक जीवन में अपनाया नहीं जा सकता

विश्वभर में अनेक धर्म, संप्रदाय मत, सिद्धाँत, शास्त्र, नेता और विचारक हैं। उनकी अपने-अपने ढंग की मान्यताएँ हैं। इनमें से स्वयं के लिए वर्तमान में किसका किस अंश में किस प्रकार अनुसरण करना चाहिए, यह निर्णय करना हमारे विवेक के ऊपर है। अनुसरण करने का निर्णय जिस भी पक्ष में हो, उसके अतिरिक्त भी अन्य धर्मों, शासकों एवं महापुरुषों से घृणा अथवा आलोचना करने की आवश्यकता नहीं हैं उनके उपदेश वर्तमान में भले ही अनुपयोगी हो गये हों, पर कभी न कभी शुभ उद्देश्यों को लेकर ही कहे गये होंगे तथा उपयोगी सिद्ध हुए होंगे। उनका उद्देश्य पवित्र था, इसलिए वे सम्मान के अधिकारी हैं। विवेक की कसौटी पर कसकर, उपयुक्त-अनुपयुक्त, औचित्य-अनौचित्य की परख की जा सकती है। किसी देश-जाति या मनुष्य के कुछ बुरे कामों को देखकर सभी को पूर्णतया बुरा मान लेना उचित नहीं अमुक जाति समाज, अथवा राष्ट्र बुरा है, यह मान्यता अनुचित हैं। मात्र बुराइयों के आधार पर कोई समाज अथवा राष्ट्र बुरा है, यह मान्यता अनुचित है। मात्र बुराइयों के आधार पर कोई समाज अथवा राष्ट्र अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता। न्यूनाधिक रूप में भले-बुरे व्यक्ति प्रत्येक समाज में होते हैं। समाज ही नहीं, गुण, अवगुण एक साथ एक व्यक्ति में विद्यमान रहते हैं। विवेक के आधार पर अच्छाइयों का चयन किया एवं अपनाया जा सकता है।

व्यक्तिगत जीवन में भी अनेकों अवसर ऐसे अवसर ऐसे आते हैं जब मनुष्य दिग्भ्राँत हो जाता है। लोभ, मोह, वासना के आकर्षणों में तुरंत का आकर्षण दीखता है। तात्कालिक लाभ के फेर में दूरवर्ती परिणामों की ओर ध्यान नहीं जाता। फलतः नीति-अनीति जिस भी प्रकार से बने, लाी उठाने के लिए हर संभव प्रयास करता है। यह रीति-नीति अविवेक की अदूरदर्शिता की परिचायक है। ऐसे अवसरों पर विवेक मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। लोभ-मोह के आकर्षणों, तृष्णाओं-विकारों, भ्राँतियों से बचाता है और सही पथ प्रशस्त करता है।

ऋतम्भरा को-प्रज्ञा को ‘विवेक’ कहा गया है। गायत्री उपासक माँ के अंचल में बैठकर प्रज्ञा शक्ति का आह्वान करता है। मातृशक्ति में अपनी श्रद्धा एवं निष्ठा आरोपित करता है। ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ की अंतः पुकार जब उठती है तो आद्यशक्ति ऋतम्भरा रूप में प्रकट होती हैं पयपान कराने और अपने अनुदानों से सिक्त करने के लिए माता का करुण हृदय मचलने लगता है। उसका अनुग्रह साधक पर-प्रज्ञा के रूप में विवेक के रूप में बरसता है।

इस अध्यात्मिक संपदा को पाकर उपासक अपने जीवन को सार्थक बनाता है। भौतिक एवं आध्यात्मिक सभी प्रकार की सफलताएँ विवेक की अनुगामिनी होती हैं। विवेकवान-दूरदर्शी सही अर्थों में अपना स्वार्थ साधता है और परमार्थ भी। सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवन सफल और सार्थक बनाता है।

“प्रज्ञा-विवेक” ही हमें दूसरों से अपने जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा देता है। विवेकशीलता को अंतरात्मा की आवाज कहा जाता है । अंतर की आवाज सुन सकने में वही व्यक्ति समर्थ होता है जो काम क्रोध, लोभ, मोह, रागद्वेष आदि से ऊपर उठ जाता है। विवेकशीलता से ही नैतिक विकास होता है। विवेकी व्यक्ति सदैव अपना संतुलन बनाये रखता है, उद्वेगों से वह विचलित नहीं होता। प्रज्ञा की-विवेक की उपलब्धि के लिए हमें गायत्री महाशक्ति की धारा ऋतम्भरा की शरण में जाना होगा। ऋतम्भरा की आराधना-अभ्यर्थना द्वारा ही अंतः प्रज्ञा जाग्रत होगी। विवेक के जागरण से औचित्य-अनौचित्य उत्कृष्ट-निकृष्ट के बीच अंतर करने एवं उपयोगी का चयन कर सकने में मनुष्य समर्थ होता है। फलतः किसी प्रकार के भटकाव की संभावना नहीं रहती।


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