इन दिनों प्रायः लोगों को शिकायत रहती है कि उनकी उपासना फलदायी नहीं हो पा रही है कोई चमत्कार उत्पन्न नहीं कर पा रही है। ऐसे में यदि कोई यह कह दे कि अमुक देवता की उपासना साल भर में सिद्धि प्रदान करने की क्षमता रखती है, तो सामने वाला व्यक्ति तुरंत यह सोचने लगता है कि यदि ऐसी बात है, तो क्यों न उसी की उपासना की जाय। इस प्रकार वह पहली को छोड़ कर दूसरी को अपना लेता है, किंतु मन सर्वथा संशयहीन यहाँ भी बना नहीं रहा पाता और यह असमंजस खाये जाता है कि पता नहीं यह भी जल्दी फलित हो पायेगी या नहीं। इस मध्य यदि कोई तीसरा व्यक्ति उसकी उपासना पद्धति में खोट बताकर किसी अन्य पद्धति को अपना लेने की सलाह देता है, तो वह सद्य ऐसा करने के लिए तैयार हो जाता है। इस प्रकार उपासक वेश्या की तरह किसी एक के प्रति निष्ठावान न रह कर अनेकों को आजमाने और तुर्त−फुर्त में लाभ पा लेने के चक्कर में अपना बहुमूल्य जीवन गँवा देता है और अंत में निताँत खाली हाथ रह कर विभूतिहीन स्थिति में इस संसार से अलविदा कर जाता है।
यहाँ उपासकों के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर वर्तमान की की गयी उपासना फलवती क्यों नहीं हो पाती ? इसका एक सबसे प्रमुख कारण है श्रद्धा का अभाव। गीता (4/39) का इस संबंध में स्पष्ट निर्देश है- “श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं” अर्थात् इष्ट के प्रति जिसकी श्रद्धा होती है, वही ज्ञान-प्राप्ति कर पाता है। दूसरा प्रधान कारक है-एक निष्ठा भाव की कमी। यह सुविदित तथ्य है कि कोई भी मंत्र स्वयं में चमत्कारी नहीं होता, साधक की निष्ठा और आस्था ही, उसे वैसा बना देने में प्रमुख भूमिका निभाती है। यदि उपासक का विश्वास मंत्र, इष्ट अथवा उपासना-पद्धति को हर किसी के सामने नहीं प्रकट करने का शास्त्रों में विधान है। एक सच्चाई यह भी है कि पौधा लगाते ही वृक्ष फल नहीं देने लग जाता, दोनों के मध्य कुछ अंतराल होता है। किसान बीज बोता है, पर फसल काटने और धन्यों से कठोर भरने में महीनों का समय लग जाता है। पहलवान दैनिक कसरत के अभ्यास से वर्षों बाद ही अपना शरीर बलिष्ठ और मजबूत बना पाता है और फिर दंगल जीतने में सफल होता है। विद्यार्थी कठिन परिश्रम के उपराँत एक वर्ष बाद ही उसका सुफल अच्छे अंकों के रूप में प्राप्त करता है। इन प्रसंगों में यदि व्यक्तित्व चावल की खिचड़ी पकाने की तरह तुरंत ही सत्परिणाम की आशा करने लगे, तो इसे उसकी बालबुद्धि ही कहना चाहिए। योगवासिष्ठ में इस संदर्भ में स्पष्ट उद्घोष है-
कालेन परिणच्यते कृषिगर्भादयो यथा। एवमात्मविचारोऽपि शनैः कालेन च्यते॥
अर्थात् जैसे बीज बोने के पश्चात् अंकुर निकलने में देर लगती है और माता के उदर में गर्भ के परिपक्व होने में समय लगता है, उसी प्रकार साधना के पकने और फलदायी होने में समय लगता है।
फिर देर लगने के पीछे एक अन्य हेतु यह भी होता है कि साधक का अंतःकरण कितना स्वच्छ अथवा मलिन है। इसी अनुपात में समय भी लगता है। रंगरेज किसी कपड़े में आँख मूँद कर रंग नहीं चढ़ा देता है। पहले वह यह देखता है कि वस्त्र साफ है या मैला-कुचैला। यदि उसमें गंदगी नजर आती है, तो सर्वप्रथम वह उसकी साबुन से भली भाँति धुलाई करता है। फिर जब परिधान बिलकुल में मल विहीन व स्वच्छ हो जाता है, तब वह रँगने का कार्य प्रारंभ करता है। साधना की फलोत्पादकता के संबंध में भी यही बात समझी जानी चाहिए। वह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की मनोभूमि पर निर्भर करती है। जिस व्यक्ति की मनोभूमि जितनी उर्वर और झाड़-झंखाड़ों, कषाय-कल्मषों से रहित होती है, उसकी उपासना उतनी ही जल्दी फलवती होती है, किंतु जिसका अंतः कारण कषाय-कल्मषों से भरा, अनुर्वर, ऊबड़-खाबड़ पथरीला होता है, उसकी उपासना आरंभ में होती है। बाद में जब वह धवल और निरभ्र आकाश की तरह साफ हो जाता है, तो उपासना का परिमाण भी सामने आने लगता है। अस्तु अध्यात्म मार्ग के पथिकों की उपासना में फल-प्राप्ति की उतावली न करने का शास्त्रकारों ने परामर्श दिया है। ऐसे कई उदाहरण देखने में आते हैं, जिसमें लंबे काल की साधना के पश्चात् भी फल न प्राप्त होने के कारण साधक उपासना छोड़ बैठने की अधीरता बरतते हैं कि ऐसा क्यों व किस कारण हुआ। ऐसा ही एक प्रसंग महान गायत्री उपासक विद्यारण्य स्वामी का है। उन्होंने लंबे समय तक निष्ठापूर्वक गायत्री के 23 पुरश्चरण किये, किंतु लाभ नगण्य जितना दिखाई पड़ा। इससे क्षुब्ध होकर उन्होंने गायत्री-उपासना छोड़ दी। उपासना का सत्परिणाम बस इतना ही दिखाई पड़ा कि उनके मन में तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो गया। इससे उनने ग्रह-त्याग कर यायावरी अपना ली और दुखियों-पीड़ितों का दुःख कम करने में उनकी सहायता करने लगे। उनके इस परोपकार वृत्ति युक्त जीवन आरंभ होने के कुछ माह उपराँत एक दिन माँ गायत्री उनके सम्मुख प्रकट हुई वर माँगने को कहा। विद्यारण्य मुनि बड़े अचकचाये। असमंजस में पड़ कर उन्होंने पूछा “माते। अब तो कोई कामना मेरी शेष रही नहीं सब विगलित हो गई। यदि सचमुच ही आपने मुझ पर अनुग्रह किया है, तो सिर्फ इतना बता दीजिए कि मेरी अब तक की उपासना निष्फल क्यों चली गई अब जबकि मैंने उपासना बिलकुल छोड़ दी है, तब आपने दर्शन क्यों दिये ? यह मेरी समझ में नहीं आया।” “माँ आद्यशक्ति की वाणी फूट पड़ी तुम्हारे 24 महापातक थे। 23 पुरश्चरण से तुम्हारे 23 जन्मों के पाप धुल गये ओर जब तुमने सेवा जैसा पुण्य कार्य आरंभ कर 24 वें जन्म के पाप को भी धो लिया, तो अब में तुम्हारे समक्ष हूँ। तुमने तनिक उतावली कर दी। इसलिए उस दौरान तुम्हें मेरी कृपा नहीं मिल पायी।” विद्यारण्य स्वामी का समाधान हो चुका था। कुछ ऐसा ही घटनाक्रम माधवाचार्य के साधनात्मक जीवन के संबंध में भी घटित हुआ था।
इस प्रकार उपासना की सफलता में कितने ही ऐसे सत्य हैं, जिन्हें उसकी परिपक्वता के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। पातंजलि योगदर्शन के ‘अभ्यास-वैराग्य’ प्रकरण में सफलता के तीन सोपान गिनाये गये हैं - (1) - दीर्घकाल अर्थात् जब तक साधना से सिद्धि न मिल जाय, तब तक उसे निष्ठापूर्वक करते रहना चाहिए। (2) नैरन्तर्येण या नित्य-नैमित्तिकत्ता। इसके अंतर्गत उस प्रमाद से बचने को सलाह दी गई है, जिसमें उपासक दस दिन उपासना करके चार दिन आराम करने की बात सोचते हैं। इसके उपासना निष्फल जाती है। उसे नित्य-नैमित्तिक क्रिया की तरह प्रतिदिन आस्था पूर्वक किया जाना चाहिए। (3) सत्कारासेवित् अर्थात् चित्त की एकाग्रता। उपासना के दौरान मन के भटकाव को रोककर ध्यान आराध्य देव पर लगाये रहना और संपूर्ण उपासना काल में उसी का चिंतन-मनन करना-इसे उपासना को सफलता का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है।
इन सब बातों को ध्यान में रख कर यदि उपासना क्रम निरंतर जारी रखा जाय, तो कोई कारण नहीं, कि सामान्यजन भी उस विभूति से वंचित रह जायें, जिसे सिद्ध संत इसके माध्यम से अब तक हस्तगत करते आयें हैं।