दैवी चेतना निर्गुण निराकार होने से स्वयं कार्य तो नहीं कर पाती, पर अपने पार्षदों को माध्यम बना कर वह ऐसे सभी कार्य करा लेती है, जिनमें ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेंद्रियों की आवश्यकता पड़ती हो। ‘पार्षद’ का अर्थ है-समीपवर्ती। जो ईश्वरीय सत्ता की दिव्य विभूतियों को अपने में जिस मात्रा में ग्रहण-धारण कर लेते हैं, उन्हें भगवत् सत्ता का उतना ही निकटवर्ती अथवा कृपा मात्र माना जाता है। ऐसे ही लोगों को संसार संतुलन सही बनाये रखने वाले कार्य करने का आदेश-निर्देश उस निराकार सत्ता की ओर से मिलता है, जिन्हें वे पूरा कर भी दिखाते हैं। इस प्रक्रिया में दैवी शक्ति का सहयोग उन्हें मिलता रहता हैं आभास ऐसा होता है, जैसे उसने स्वयं के पराक्रम से यह सब कुछ कर दिखाया है, पर वास्तविकता यह है कि इसमें बाजीगर और कठपुतली वाला खेल ही क्रियान्वित होता है। व्यक्ति माध्यम तो बनता है, पर शक्ति अदृश्य सत्ता की ही काम करती हैं
मनुष्य की शक्ति बहुत सीमित है। उसका शरीर व बुद्धिबल भी नगण्य जितना है। साधन-सहयोग भी वह एक हद तक ही एकत्र कर सकता है। आकाँक्षाओं और संकल्पों की पूर्ति परिस्थितियों पर निर्भर। यदि संकट खड़े करने वाला विपरीत प्रवाह चल पड़े तो बने काम भी बिगड़ने लगते हैं। इसके विपरीत यदि परिस्थितियाँ अनुकूल होकर साथ देने लगें, तो ऐसा भी हो सकता है, जिसमें सरसों को पहाड़ बनने का अवसर मिले एवं “मूक होहि वाचाल” और “पंगु चढहिं गिरिवर गहन” की रामायण उक्ति प्रत्यक्ष होती और लोगों को अचम्भित करती दिखाई पड़े।
भारत एवं विश्व के इतिहास में ऐसे कई मौके उपस्थित हुए हैं, जिनमें इस प्रकार के अद्भुत आश्चर्य होते दिखाई पड़े हैं। यदि कहीं इस प्रकार के चमत्कार दीख पड़े, तो उनमें अदृश्य दैवी चेतना का ही हाथ समझा जा सकता है, भले ही प्रत्यक्ष रूप में श्रेयाधिकारी कोई व्यक्ति क्यों न बने।
थियोसोफिकल सोसाइटी के संचालकों ने भी इस तथ्य को स्वीकारते हुए यह प्रतिपादन विवेचन विस्तार पूर्व किया है कि हिमालय का हृदय समझे जाने वाले उत्तराखण्ड के देवात्मा क्षेत्र में सिद्ध संतों के सभा-सम्मेलन चलते हरते हैं। उनके निर्णय सदा अदृश्य सहायकों के माध्यम से क्रियान्वित होते हैं। इससे सामान्य जनों को जाने-अनजाने ऐसी सहायताएँ मिलती रहती हैं, जिन्हें वे स्वयं के पराक्रम से सम्पूर्ण जीवन में भी उपलब्ध नहीं कर सकते थे।
अदृश्य वातावरण में उपयोगी प्रवाह उत्पन्न करने एवं उसे झकझोरने के क्रम में महर्षि अरविंद का नाम लिया जा सकता है। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में सूक्ष्म वातावरण को गर्म करने में उनने जो असाधारण भूमिका निभायी थी, उसे सूक्ष्मद्रष्टा जानते हैं। उन दिनों भारत ने ऐसे कितने ही प्रबल पुरुषार्थी उत्पन्न किये, जैसे उदाहरण इतिहास के दूसरे कालों में देखने को नहीं मिलते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रत्यक्ष श्रेय यों तो इस दौरान जूझने वाले सेनानियों और मार्गदर्शी नेताओं को ही जाता है, पर दिव्य दृष्टा महापुरुष यह समझ सकते हैं कि इसमें परोक्ष भूमिका महर्षि जैसे योगियों एवं महाकाल के परिवर्तनकारी दिव्य प्रवाह की ही रही थी।
सन्त कबीर का अवतरण तत्कालीन समाज में संव्याप्त मूढ़–मान्यताओं और अन्ध परम्पराओं का खण्डन करने एवं विभिन्न सम्प्रदायों के बीच पारस्परिक सद्भाव बढ़ाने के निमित्त हुआ था। उन्होंने अपने जीवन काल में कितने ही लोगों को ऊँचा उठाया व आगे बढ़ाया। वे मुसलमानों से जितना सद्भाव रखते थे, उससे किसी भी प्रकार कम महत्व हिन्दुओं एवं अन्य धर्मावलंबियों को नहीं देते थे। सभी के लिए उनके दिल में एक जैसा प्यार था। यह बात कट्टर मुसलमानों को बुरी लगी। वे नहीं चाहते थे कि इस्लाम वंश में पैदा होकर कबीर हिंदू धर्म का प्रचार करें। उनमें से कुछ लोगों ने इसकी शिकायत तत्कालीन मुस्लिम बादशाह सिकन्दर लोदी से की। बादशाह ने कबीर को मृत्युदण्ड सुनाया। उन्हें लोहे की बेड़ी में कस कर बहती गंगा में फेंक दिया गया। कबीर डूबे, पर मरे नहीं। चमत्कार यह हुआ कि अन्दर जाते ही लोहे के बन्धन स्वतः टूट गये। वे बहते-बहते किनारे आ लगे। जब यह अद्भुत घटना बादशाह तक पहुँची तो वे अचम्भे में पड़ गये, बाद में क्षमा माँगी तथा धार्मिक एकता संबंधी प्रचार करने की छूट दे दी। प्रस्तुत घटना में कबीर की जीवन-रक्षा अदृश्य सत्ता ने ही की थी, यही माना जाएगा।
विवेकानन्द ने अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि-”अमेरिका में धर्म सभा एवं अन्य धार्मिक सम्मेलनों में जब मैं बोलने के लिए खड़ा होता था, तो आरंभ में चिन्ता रहती थी कि क्या कुछ कह सकूँगा, पर जैसे ही बोलना आरंभ करता था, तो ऐसा लगता था, मानो कोई दिव्य सत्ता जिव्हा पर सवार होकर बोलने के लिए प्रेरित कर रही हैं तब मैं तन्द्रा की स्थिति में ऐसी ज्ञान की बातें करने लगता था, जिसकी जानकारी स्वयं मुझे भी नहीं होती थी। तब ऐसा प्रतीत होता था कि जीभ तो हमारी है, पर वाणी किसी और की।”
यह एक सुविदित तथ्य है कि उच्च उद्देश्यों के निमित्त तपस्वियों एवं देव सत्ताओं की कृपा-वर्षा अनुदान-वरदान के रूप में सदा होती रहती है। गाँधी के प्रखर व्यक्तित्व के पीछे दैवी अनुकम्पा ही थी। महामना मालवीय, हिन्दू विश्व विद्यालय की, हीरालाल शास्त्री वनस्थली बालिका विद्यालय की, श्रद्धानन्द गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना जैसे महत् कार्य मात्र अपने पराक्रम के बलबूते नहीं, दैवी अनुदानों के सहारे ही पूरा कर सके। सुग्रीव, विभीषण नरसी मेहता सुदामा आदि को उच्च स्थिति प्राप्त कराने में भगवत्सत्ता ही सहायक रही। भागीरथ द्वारा गंगा अवतरण एवं परशुराम द्वारा अनीति उन्मूलन में शिव जी का भारी योगदान था। हनुमान-जामवन्त आदि को इतिहास में अविस्मरणीय बनाने वाले भगवान राम ही थे। कुमारजीव, संघमित्रा, महेन्द्र आदि को बुद्ध ने वह सामर्थ्य प्रदान की थी, जिसके बल पर ही वे क्रमशः चीन एवं श्रीलंका में धर्मप्रचार में अग्रणी भूमिका निभा सके। समर्थ का प्रत्यक्ष और परोक्ष आशीर्वाद यदि शिवाजी को न मिला होता, तो वे वह सब कुछ न कर पाते, जो कर गुजरे। उनकी भवानी तलवार के विषय में कहा जाता है कि यह उन्हें देवी की और से गुरु माध्यम से प्राप्त हुई थी। गुजरात के जलाराम बापा का अक्षय अन्न भण्डार भगवान के ही अनुदान-आशीर्वाद का प्रतिफल था।
अरविंद आश्रम की श्री माँ ने अपने जीवन चरित्र में इस बात का उल्लेख किया है कि जब वह छोटी सी बालिका थीं, तभी से बराबर उन्हें ऐसा प्रतीत होता था, कि उनके पीछे कोई अतिमानवी शक्ति है, जो जब तब उनके शरीर में प्रवेश कर उनमें अलौकिक कार्य करा जाती है। उनने लिखा है कि उसी दिव्य सत्ता ने उन्हें भारत आकर श्री अरविंद से संपर्क करने और शेष जीवन समाजोत्थान के कार्य में लगा देने का निर्देश किया था।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि महान व्यक्ति के महान कार्य मात्र. व्यक्तिगत पुरुषार्थ के बलबूते संभव नहीं होते, श्रेय, प्रदान करने वाली दैवी अनुकम्पा ही इनकी पृष्ठभूमि में का करती है। पात्रता विकसित करके ही कोई भी सहज ही इन अनुदानों में लाभान्वित हो सकता हैं।