इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण की पूर्व तैयारी महाकाल ने समय रहते आरंभ कर दी है। अरुणोदय से पूर्व ऊषाकाल अपनी अरुणिमा दिग्-दिगन्त में बिखेर ने लगता है। युगसंधि के इन ग्यारह वर्षों में भी पूर्व सूचना देने वाले मुर्गे जोरों से बाँग लगाने लगे हैं। सोते को करवट बदलते और करवट बदलने वालों को जम्हाई लेते हुए उठ खड़े होने के दृश्य सब ओर अनायास ही दीखने लगे हैं। मनुष्य की शक्ति असाधारण है। देवताओं की क्षमता पर संदेह व्यक्त किया जा सकता है, पर मनुष्य तो स्रष्टा की कलाकारिता का सर्वोत्तम प्रतीक जो ठहरा। वह बिगाड़ करने में भी पीछे नहीं रहा। पर अब जल्दी उसने प्रवाह बदला है तो सृजन की संभावनाएँ भी दीख पड़ने लगी हैं। जब भी मनुष्य अपनी कर्मठता को उजागर करने पर उतारू हुआ तभी उसने कमाल करके दिखा दिया है।
मिश्र के पिरामिड साक्षी है कि सूडान में पत्थर का नामों निशान न होने पर भी उसने सुदूर क्षेत्रों में बिखरे पत्थर चूने, बजरी को समेट कर भव्य चट्टो बनालीं और इस रेगिस्तानी इलाके में ऐसी अद्भुत पिरामिड श्रृंखला खड़ी कर दी कि अब तक के वैज्ञानिक इस रहस्य का पूरी तरह पता नहीं लगा सके हैं कि ऐसी विकट परिस्थितियों में यह सब किन लोगों द्वारा किन साधनों द्वारा सृजा गया होगा।
चीन की योजनों लम्बी दीवार बना लेने की मनुष्य में जब ठानी तो उस अजूबे को बनाकर खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं, उत्तर से साइबेरिया की हवाएँ जब उस क्षेत्र को बुरी तरह गड़बड़ाये दे रही थीं। तो वहाँ के निवासियों ने ऊँचे वृक्षों की हजारों मील लम्बी, 5 मील चौड़ी एक हरित दीवार और खड़ी करके प्रकृति की चुनौती का मुँह मोड़ दिया। हालैंड की घटना का जिन्हें स्मरण हैं, वे जानते है कि उफनते समुद्र को पीछे धकेल कर उसने सैकड़ों मील लम्बा तथा चौड़ा इलाका कैसे छीन लिया औंस उस भूमि पर कितने सुन्दर नगर और कारखाने सिर उठाये खड़े हैं।
मध्यपूर्व की कम्बोडिया की सीमा से लगी हुई अंगकोरवाट श्रृंखला विश्व विख्यात है। इक्कीस इक्कीस मंजिल ऊंचे ये देवालय आज भग्नावशेष स्थिति में है, पर मनुष्य की श्रमशीलता, बुद्धिमता और संकल्पशक्ति की साक्षी अभी भी दे रहें हैं और चिरकाल तक देते रहेंगे। स्वेज और पनामा की नहरें यही बताती हैं कि प्रकृति के अवरोध कितने ही बड़े क्यों न हों मनुष्य की प्रचण्ड संकल्पशक्ति उनका मुँह मोड़कर रख देने में समर्थ है।
पिछली शताब्दियों से आरंभ हुई और अब तक चली आ रही एक से एक बढ़कर अवांछनियताओं की विजय दुदुंभि बजती रही हैं पर जब सृजन के भव्य भवन खड़ करने का निश्चय कर लिया है तो उनकी पूर्ति के मार्ग में अड़ने वाली वे बाधाएँ भी हटकर रहेंगी, जो सुखद संभावनाओं की चरितार्थ करने में व्यवधान बनतीं।
उदाहरणार्थ इक्कीसवीं सदी के नारीशक्ति प्रधान होने की संभावना का शुभारंभ देखने ही योग्य है। शासनतन्त्र से कोसा दूर रखी गयी पिछड़ी समझी जाने वाली नारी अब तीस प्रतिशत जनता का कानूनी प्रतिनिधित्व प्राप्त करने जा रही हैं यही बात युग निर्माण योजना ने आज से पचास वर्ष पूर्व “नर और नारी एक सामान” तथा “जातिवंश सब एक समान” नारे के रूप कही थी। इसका संकेत था कि नारी हर क्षेत्र में अपने अधिकार और दायित्व नर के कंधे से कंधे मिलाकर काम करती हुई दिखाई देगी। इसी उदाहरण को जापान की राजनीति में नारी प्रगति तथा वर्मा में तानाशाही शासन के खिलाफ उभरने वाली नारी नेतृत्व के प्रस्तुत करके दिखा दिया है।
युग परिवर्तन की महाक्रान्ति के असंख्यों विभाग-उपविभाग है। उन सभी में नव जीवन का संचार होता हुआ देखा जा सकता है। लगता है कोई महान जादूगर अपने चमत्कारों की पिटारी खोलकर सर्व साधारण को यह अवगत कराने जा रहा है कि दैत्य की दानवी दमनकारी शक्ति क्यों न हो विश्वकर्मा की सृजन सामर्थ्य उससे कहीं अधिक बड़ी चढ़ी है। परिस्थितियों का कायाकल्प करने के लिए सामर्थ्य पुँजों, महामनीषियों और सृजन के कलाकारों ने अपने अपने पुरुषार्थ तेज कर दिये है। लगता है कि समाज के कायाकल्प को कोई भी भवितव्यता टाल नहीं सकेगी।
तथ्य की संभावना को साकार करने में लगे अनेक प्रयोगों से एक छोटा उदाहरण अपने प्रयासों का भी है। उसे देख कर यह जाना जा सकता है कि हवा का रुख किधर है। पूर्व दिशा से उठने वाली एक छोटी बदली भी हर किसी को यह अश्वासन देती है कि घनघोर वर्षा होने की अब ओर प्रतीक्षा न करनी पड़ेगी।
शान्तिकुँज ने इसी वर्ष अपने चार कार्यक्रम विचार क्रान्ति के संदर्भ में घोषित किये है। एक यह कि अपने परिकर के प्रायः चौथाई करोड़ लोगों को व सृजन के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करने का, बैटरी चार्ज करने स्तर का कार्यक्रम आरम्भ किया गया है। नौ दिन ओर एक माह के निरन्तर चलने वाले सत्रों में भावनाशील परिजनों को आमंत्रित किया गया है। उनकी ठहरने भोजन शिक्षण आदि की व्यवस्था में किसी को असमंजस हो तो सबको यह समझ लेना चाहिए कि जब जनमानस का परिष्कार सत्प्रवृत्ति संवर्धन किसी को आवश्यक तो नहीं, अनिवार्य भी प्रतीत होता है तो महाकाल इसे भी कहीं न कहीं से पूरी करता चलेगा। वह अपनी महान पर परम्परा से मुँह मोड़ने वाला नहीं है।
युगसंधि के दिनों में ही शाँतिकुँज का दूसरा संकल्प है एक लाख सृजन शिल्पी कार्य क्षेत्र में उतारना। इसे साधु ब्राह्मण परम्परा का समय के अनुरूप पुनर्जीवन कह सकते है। सिखों राजपूतों, ब्राह्मणों, में यह परम्परा रही है कि परिवार का एक सदस्य उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी समर्पित किया करते थे। आज वह पुनर्जीवन कठिन इसलिए प्रतीत होता है कि हर व्यक्ति के पास पैसा और प्रजनन के अतिरिक्त कोई उद्देश्य है ही नहीं इस ऊसर भूमि जैसे बियाबान में नन्दनवन जैसे उद्यानों को उगाना ओर परिपुष्ट कर सकना किस प्रकार संभव हो सकेगा? फिर जो युग प्रहरी निकल कर आगे आयेंगे, उनके भोजन व्यय की व्यवस्था कैसे जुटेगी? प्रश्न टेढ़ा है। इस समस्या का प्रत्यक्ष समाधान देने वाला अन्तराल के विश्वास कक्ष में बैठा हुआ कोई कहता है कि बलिदानियों को युद्ध क्षेत्र में तो मरना पड़ा है। पर भूखे रहने के कारण कभी भी प्राण त्याग नहीं करना पड़ा। यदि एक लाख युगशिल्पी कार्य क्षेत्र में उतरने ही है। तो फिर उनके साथ ही उनके निर्वाह की व्यवस्था भी जुड़ी होगी।
तीसरा संकल्प युगसंधि की इस छोटी अवधि में नालन्दा, तक्षशिला, श्रावस्ती आदि के अनुकरण का है, जिसके अनुसार घर घर अलाव जगाने वाले युगशिल्पी अभिनव प्रवर्तन का संदेश लेकर पहुँचाने के लिए जाने वाले है। नालन्दा विश्वविद्यालय से प्रशिक्षित श्रावक-परिव्राजक मध्यपूर्व, इंडोचनी, श्रीलंका, चीन, कोरिया कम्बोदिया आदि क्षेत्रों में बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन का आलोक वितरण करने के लिए गये थे और वे हजार वर्ष तक जमे। तक्षशिला विश्वविद्यालय ने भी यही कमाल कर दिखाया था। ये सभी यात्राएँ, दलदलों पर्वतों, हिमप्रदेशों, रेगिस्तानों में हुई थी। फिर भी विश्व परिक्रमा रुकी नहीं। उसी हाथी का अनुकरण करने की मेंढक ने ठानी है। एक लाख साइकिल सवारों की पद यात्राएँ निकालने की बात विनोबा की पदयात्रा की तरह सोची गयी है, व यह अवश्य पूरी होगी।
चौथा संकल्प नारी जागरण का है। घूँघट, पर्दे में कैद अशिक्षित, रूढ़िग्रस्त नारी में उस चेतना का संचार कैसे किया जाय, यह कार्य कोई कम जोखिम भरा नहीं है। पर गुत्थियाँ अनसुलझी तो भी नहीं रहने दी जा सकती। आधी जनशक्ति अपंग तो नहीं छोड़ी जा सकती।
क्या ये चार संकल्प पूरा होने से युग−परिवर्तन जैसा महान प्रयोजन पूरा हो जाएगा। समझा जाना चाहिए कि संसार में प्रतिभाएँ एक से एक बढ़कर भरी पड़ी है। वे समय की पुकार सुने बिना रहेगी नहीं। मंदिरों में बजने वाले घड़ियाल, मस्जिदों में गूँजने वाली अजान जो न सुन सकें उन्हें मुर्गों के झुण्ड भी कुहराम मचाकर नींद हराम करने से चूकने वाले नहीं है। मनस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी वर्ग भी अगले दिनों आगे आएगा और स्रष्टा द्वारा निर्धारित संभावना को पूरा करने में एक से एक बढ़कर कीर्तिमान स्थापित करेगा।
जब स्वल्प साधनों वाले शाँतिकुँज ने यह कमाल कर दिखाने का निश्चय किया है तो अगले दिनों अखाड़े में उतरने वाले महामल्लों का तो कहना ही क्या, जो अपनी उठा पटक से दर्शकों तक को चकित करके रहेंगे।