राजा जनक विदेह क्यों कहलाए?

October 1989

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गुरु ने शिष्य से कहा “तुझे अब व्यावहारिक ज्ञान की दीक्षा के लिए राजा जनक के पास जाना होगा। राजा जनक राज काज करते हुए राज महलों में रहकर भी सद्ज्ञान को प्राप्त हो गये हैं उन्हें विदेह कहा जाता है” शिष्य बड़ी उलझन में पड़ गया कि ख्याति लब्ध गुरु के पास वर्षों रहा, घेर तप किया किन्तु फिर भी ज्ञान प्राप्त न हो सका। भला राज महलों में किस तरह ज्ञान मिलेगा। किन्तु गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर शिष्य राजा जनक के राज दरबार में पहुँचा। देख राजा जनक के राज दरबार में पहुँचा। देखा राजा जनक काज में व्यस्त है। राजमहलों में सुख सुविधा की प्रचुर सामग्री सुलभ है। नाच, गान, रास रंग में पूरा राज दरबार डूबा है वह बड़ा हैरान हुआ कि इस विलासी राजा से क्या ज्ञान मिलने वाला है। किन्तु फिर भी राजा को अपने आने का मन्तव्य कह सुनाया।

राजा जनक न कहा कि “आज तो वह राज महलों को घूम कर देखलें। कल सत्संग और ज्ञान की बात करेंगे और एक दीपक हाथ में थमाकर कहा कि देखना यह दीपक बुझ न जाय अन्यथा महल के रास्ते विकट है। भूल भुलैयों में भटकने का डर है”। शिष्य ने पूरा महल घूमा तो किन्तु मन में डर बैठा ही रहा कि यदि दीपक बुझ गया तो रास्ते से भटक सकता है। अतः महल भली प्रकार न देख सका। पूरा ध्यान दीपक सम्हालने में ही लगा रहा।

सोने को सुन्दर, सुकोमल विस्तर पलंगों की व्यवस्था तो थी किन्तु शयन कक्ष में पलंग के ठीक ऊपर नंगी तलवार पतले धागे से लटकती देखकर शिष्य रात भर न सो सका। रत भर सोचता रहा कि गुरु ने किस मुसीबत में फँसा दिया। यहाँ क्या ज्ञान मिलेगा? जान बच जाय यह क्या कम है। प्रातः शिष्य राजा जनक के पास जाकर बोला “महाराज अब क्या आज्ञा हैं। राजा ने पूछा- “रात को नींद कैसी आई पहले यह तो बताइए” उसने कहा “बिस्तर पलंग आदि की व्यवस्था बहुत अच्छी थीं, किन्तु सिर पर नंगी तलवार लटकती देखकर रात भर नहीं सो सका। इससे तो अच्छी नींद हमें हमारे झोपड़ों में ही आती थी।” अब सम्राट ने कहा ठीक है। आओ भोजन करलें। सुस्वाद भोजनों का थाल परोसकर शिष्य के सामने रक्खा और कहा भोजन करें। किन्तु एक संदेश आपके गुरु का आया है कि शिष्य को सत्संग में ज्ञान प्राप्त होना ही चाहिए। यदि न हो तो फिर सूली लगवा दें।” यह समाचार सुनकर शिष्य स्वादिष्ट भोजन का स्वाद भूल गया अब तो उसको सूली सामने नजर आने लगी। बड़े बेमन से भोजन किया और उठकर चल दिया और हाथ जोड़ कर राजा से प्रार्थना की महाराज अब नहीं करना सत्संग। प्राण बच जाँय यही बहुत है।

राजा जनक ने कहा “सत्संग तो हो चुका, तुम इतना भी नहीं समझ सके”। शिष्य ने कहा वह कैसे? राजा ने कहा- “जैसे तुम रात दीपक लेकर महल में घूमें किन्तु दीपक बुझने के भय से महल का सुख न भोग सके। इस प्रकार मुझे हर समय यह ध्यान बना रहता है कि यह जीवन का दीपक बुझने ही वाला है अतः मैं रास रंग में रमता नहीं मात्र दृष्टा बना रहता हूँ। राज काज करता अवश्य हूँ किन्तु लिप्त नहीं होता।”

“रात को नंगी तलवार लटकती देखकर तुम सो नहीं सके। इसी प्रकार मुझे प्रतिपल मृत्यु का ध्यान रहता है। मृत्यु कभी भी घट सकती है अतः मैं रास रंग में कभी डूबता नहीं। सुस्वाद भोजन में तुम्हें जिस तरह सूली का संदेश सुनकर स्वाद नहीं आया। इसी प्रकार संसार में सब कुछ चल रहा है, घट रहा किन्तु मुझे भी उस शाश्वत अन्तिम सन्देश का प्रतिपल स्मरण रहता है। अतः माया, ममता, लोभ और आकर्षणों में मैं कभी लिप्त नहीं होता। मैं महल में अवश्य हूँ किन्तु महल मुझ में नहीं। ज्ञानी का यही परम लक्षण है कि वह संसार में अवश्य है किन्तु संसार रंचमात्र भी उसमें नहीं है। वह कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता”। शिष्य उसी क्षण परम ज्ञान का प्राप्त हो गया। विदेह से वह सही अर्थों में तत्वदर्शन की दीक्षा ले चुका था।


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