चिन्तन की अनगढ़ता ही दरिद्रता है!

October 1989

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जीवन चेतना का भी नाम है। शरीर अच्छा भला होते हुए भी यदि किसी कारण उसकी प्राण ज्योति बुझ जाय तो समझना चाहिए कि मृत्यु की घड़ी आ गई और जो शरीर कुछ क्षण पहले अपना काम ठीक प्रकार कर रहा था उसकी सभी हलचलों का समापन हो गया। इससे प्रतीत होता है कि प्राण में मनुष्य का परिचय उसके शरीर की स्थिति के अनुरूप समझा और बताया जाता है। पर उसकी वास्तविक क्षमता चेतन तत्व पर निर्भर है। यह तत्व बहुधा अचेतन के रूप में अवयवों का अनवरत संचालन करता रहा है और विराट सत्ता के साथ जुड़ जाने पर अतीन्द्रिय दिव्य क्षमताओं का भी परिचय देने लगता है पर साधारणतया उसकी विधि व्यवस्था विचार शक्ति के रूप में ही काम करती देखी जाती है। यों विचार नए-नए आते और उठते रहते हैं पर जिनका निरन्तर अभ्यास चलता रहता है वे भी अभ्यास सा स्वभाव बन जाते हैं। व्यक्तित्व के रूप में अपना परिचय देने लगते हैं।

शरीर में यों रक्त संचार प्रधान प्रतीत होता है पर बारीकी से पर्यवेक्षण किया जाय तो पता चलेगा कि जीवन सत्ता के हर पक्ष को विचार ही प्रभावित करते हैं। यहाँ तक कि रक्त संचार प्रश्वास, चयापचय, निमेष-उन्मेष आकुँचन-प्रकुँचन आदि में भी मन का ही एक अवचेतन नाम से जाना जाने वाला पक्ष काम करता रहता हैं।

नाम रूप से किसी का परिचय प्राप्त करना एक बात है, पर किसी की विशेषताओं को जानना हो तो उसके गुण कर्म स्वभाव को योग्यता विशेषता को जानना होगा। व्यक्तित्व इसी को कहा समझा जाता है। यह और कुछ नहीं विचारों क अभ्यस्त पक्ष का ही एक नाम है। कौन व्यक्ति क्या है? इसका वास्तविक परिचय जानना हो तो उसके अभ्यस्त विचारों का ही परिचय प्राप्त करना पड़ेगा। कारण कि उन्हीं के कारण शारीरिक और मानसिक गतिविधियों का प्रत्यक्ष संचालन होता है। प्रसन्नता, उदासी, नाराजी, निराशा आदि मानसिक परिस्थितियाँ ही हैं। जिनके कारण शरीर की आकृति प्रकृति में तत्काल अन्तर पड़ता दीखता है। शरीर जड़ पदार्थों का बना होने के कारण वह चेतना के अभाव में स्वेच्छापूर्वक कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं होता। उसे जैसी जैसी मानसिक प्रेरणाएँ मिलती रहती हैं तद्नुरूप ही उसके क्रिया कलाप का संचालन होने लगता है। मन चलने का आदेश देता है तो पैर चलने लगते हैं। खुजली का अनुभव हो तो उंगलियां बनाये स्थान को खुजलाने लगती हैं। मल मूत्र त्यागने की, भूख प्यास की अनुभूति सर्व प्रथम मस्तिष्क में ही होती है। इसके उपरान्त अन्य अवयव तद्नुसार सरंजाम जुटाने लगते हैं। नींद मस्तिष्क को ही आती हैं और देखते देखते पैर पसर जाता है। क्रोध आवेश की मनःस्थिति में उत्तेजित मस्तिष्क होने के कारण भूख प्यास और नींद भूख सब कुछ गायब हो जाते हैं और उत्तेजना से अनुप्राणित शरीर असाधारण और अस्वाभाविक गतिविधियां अपना बैठता है। चेतना एक दर्पण है। जिसका बारीकी से निहारने पर पता चलता है कि मनुष्य की अन्तरंग मनः स्थिति क्या हैं?

जीवन क्या है? विचारों की परिपक्वता से विनिर्मित एक स्वभाव समुच्चय। इसी कारण मनुष्य मनुष्य की शारीरिक संरचना में यत्किंचित अंतर रहते है। उसके वास्तविक मूल्याँकन में जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है। शिष्ट अशिष्ट की भाव भँगिमाएँ उनकी वास्तविक स्थिति का अधिकाँश परिचय बिना पूछे बताये ही दे देती है। गुण, कर्म, स्वभाव का परिचय भी हाव भाव में हलचलों और क्रिया कलापों के सहारे बिना पूछ ताछ किए भी बहुत कुछ अंशों में मिल जाता हैं। वस्तुतः विचार ही मनुष्य जीवन के हर पक्ष पर छाए रहते हैं। अनुमान तो अन्य प्राणियों की मनःस्थिति का भी उनकी चेष्टाओं को देखकर लगता रहता हैं। मनुष्य तो विचार प्रधान जीवधारी है। उसकी समूची सत्ता और महत्ता विचारों से ही अनुप्राणित होती है। इसलिए संपर्क में आने वालों के सम्बन्ध में हम एक मोटा अनुमान सहज ही लगा लेते हैं। शरीर और मन पारस्परिक एक दूसरे के साथ विच्छिन्न रूप में जुड़े हुए पाये जाते हैं।

मनुष्य का मूल्याँकन उसकी आदतों के अनुरूप होता है। विचार ही शरीर पर विशेषतया मुख्य मण्डल पर छाए रहते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से ज्ञात और विज्ञात चेष्टाएँ एन पड़ती हैं, जो किसी के स्तर एवं चरित्र का अधिकाँश परिचय देती रहती हैं।

इन तथ्यों पर जितना अधिक विचार किया जाय उतना ही स्पष्ट यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य और कुछ नहीं मात्र कुछ विचारों के संकेतों पर नाचने वाली कठपुतली मात्र है। जो अभ्यास में आते रहने के कारण परिपक्व हो जाते हैं और आदतों के रूप में अपना परिचय देने लगते हैं।

यह भी किसी हद तक है कि अभ्यस्त गतिविधियों के कारण विचारों का एक प्रवाह बन जाता है। पर यह और अधिक सही है कि विचारों की निजी क्षमता होती हैं और वह प्रयोग में आते रहने के कारण जीवन के अनेक पक्षों को प्रभावित करती है। यही कारण है कि किन्हीं आदतों को बदलने के लिए तदनुसार विचारों के परिवर्तन करना पड़ता है। उन्हें न बदला जा सकें तो क्रियाएँ अपने अभ्यस्त आचरण से विरत होने के लिए सहज तैयार नहीं होतीं। नशेबाजी का उदाहरण प्रत्यक्ष हैं। जिन्हें उस प्रकार की आदतें पड़ जाती है वे तक तक छूटती नहीं जब तक कि प्रतिपक्षी विचारों की सशक्तता समुचित दबाव न देने लगे। यही बात अभिनव आदतों के संबंध में भी है।

तथ्य और निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जीवनक्रम में आवश्यक हेर-फेर करने के लिए तद्नुसार विचारों का गठन और परिपाक करना होता है। इसके बाद ही अभीष्ट परिवर्तन की बात बनती है। विचार जहाँ के तहाँ बने रहें तो चाहते हुए भी व्यक्ति अपने में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन कर सकने में समर्थ नहीं हो पाता।

इन दिनों बहू संख्यक लोगों की मान्यताएँ आस्थाएँ विचारणाएँ इच्छाएँ और गतिविधियाँ ऐसी हैं जिन्हें दूरदर्शी विवेकशीलता की कसौटी पर सही नहीं माना जा सकता। तात्कालिन लाभ की कल्पना में आकुल व्याकुल होकर लोग कुछ भी कराने को तैयार हो जाते हैं। इन्हें इतनी फुरसत नहीं होती कि क्रिया की प्रतिक्रिया का अनुमान लगा सकें और यह सोच सकें कि आज की उतावली कल कितने बड़े दुष्परिणाम उपस्थित कर सकती है। ऐसा उत्कट आभास न होने पर गाड़ी ढर्रे पर चलती रहती है। भली बुरी आदतें अपने स्थान पर जमी रहती है और मनुष्य व्यामोह ग्रस्तों की तरह वैसा ही करता रहता है जैसा कि दूरदर्शी विवेक शीलता के रहते वैसा करना अनुचित एवं हानिकर माना जाता है।

मनुष्य स्वभाव से अनुकरण प्रिय है। इर्द गिर्द के लोगों को जैसा करते देखता है उसी की नकल बनाने लगता है। उचित अनुचित का विवेक करने के लिए तो विकसित विवेकशीलता चाहिए। उसका प्रायः अभाव रहता है। जैसा कुछ अधिकाँश लोगों को करते देखा जाता है, उसी को सही मानने और अनुकरण करने का मन बन जाता है। दुर्व्यसन प्रायः इसी कारण छूत की बीमारी की तरह फैलते हैं। क्योंकि उन्हें अधिकाँश लोग अपनाते दीखते हैं। अस्तु विचारों के सुनियोजन पर सावधानी पूर्वक ध्यान दिया जाना चाहिए।

चिन्तन को सुगढ़ बनाने के लिए सतत् प्रयासरत रहना चाहिए।


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