ज्योति अवतरण की उच्चस्तरीय साधना

October 1989

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आध्यात्म साधना विधानों में प्रकाश का महत्वपूर्ण स्थान है। इसको माध्यम बनाकर आन्तरिक प्रकाश को जाग्रत किया जाता है। जिस प्रकार नव ग्रहों और उपग्रहों का केन्द्र सूर्य है। पृथ्वी का केन्द्र ध्रुव प्रदेश हैं। परमाणु का शक्ति केन्द्र ध्रुव प्रदेश है। परमाणु का शक्ति केन्द्र उसका मध्यवर्ती केन्द्र-’न्यूक्लियस’ कहलाता है। उसी प्रकार मस्तिष्क मानवी चेतना का केन्द्र है और उसका मध्य बिन्दु आशा चक्र कहलाता है। उसे जीवन दुर्ग का प्रवेश द्वार कह सकते हैं। प्रकाश ज्योति की त्राटक साधना से इसका उन्मीलन संभव होता है।

योगशास्त्रों में आज्ञा चक्र को दिव्य नेत्र एवं पौराणिक अलंकारिक चिरण किया गया है। इसे ही ‘दिव्य दृष्टि’ का केन्द्र माना जाता है। महाभारत के सारे दृश्य संजय ने इसी माध्यम से देखे और धृतराष्ट्र का सुनाये थे। कृष्ण के विराट स्वरूप को अर्जुन ने एवं राम के स्वरूप को कौशल्या ने इसी प्रकार दृष्टि से देखा था। इसकी शक्ति कितनी विशिष्ट होती है, इसका पुरातन विवरण शंकर जी द्वारा कामदेव को जला दिये जाने के रूप में मिलता है प्रकाश पुँज की ध्यान-धारणा इसे ‘लेसर स्तर’ की बना देती है। इस ऊर्जा पुँज के सहारे ऐसा कुछ भी किया जा सकता है जिससे दिव्य दर्शन के अतिरिक्त शाप-वरदान का उद्देश्य भी पूरा हो सके। शक्तिपात में सम्मोहन में उस नेत्र शक्ति का ही प्रयोग किया जाता है जो पहले से ही तृतीय नेत्र के भंडार में भर ली गई होती है। इस शक्ति से उत्पन्न हुई दिव्य दृष्टि अनेकों का अनेक प्रकार से भला भी कर सकती हैं।

तृतीय नेत्र का स्थान दोनों भृकुटियों के मध्य में है। इसकी दिव्य क्षमता को जाग्रत करने की साधना साधारणतया त्राटक के आधार पर की जाती है। प्रत्यक्ष प्रकाशमान वस्तु को देखकर उसका स्वरूप नेत्रों में बन्द करके चिन्तन करते रहने की विधा को त्राटक साधना कहा गया है। इससे चर्म चक्षुओं में आत्म तेज का आविर्भाव होता है और दृष्टिकोण के परिमार्जन का क्रम चल पड़ता है। योगाभ्यास परक साधना क्रम में इससे मनकी एकाग्रता सधती है और अभ्यास क्रम में बढ़ते हरने पर वह अतंतः समाधि स्थिति तक साधक को पहुँचा देती है।

त्राटक-विधियाँ अनेक प्रकार की हैं। मैस्मरेज्म के अभ्यासी सफेद कागज पर काला गोला बनाते हैं। उसके मध्य में श्वेत बिन्दु रहने देते हैं। इस पर नेत्र दृष्टि और मानसिक एकाग्रता को केन्द्रित किया जाता है। अष्टधातु के बने तश्तरीनुमा पतरे के मध्य में ताँबे की कील लगाकर उस मध्य बिन्दु को एकाग्र भाव से देखते रहने का भी वैसा ही लाभ बताया जाता है। पर सम्मोहन का लक्ष्य एकाग्रता सम्पादन तथा बेधक दृष्टि प्राप्ति के भौतिक प्रयोजन तक ही सीमित है। इसलिए इस अभ्यास से वह लाभ नहीं मिल पाता जो त्राटक के बताये गये हैं।

भारतीय योगशास्त्रों के अनुसार त्राटक के अभ्यास में चमकते प्रकाश को उपयुक्त माना गया है। सूर्य, चन्द्रमा, तारे अथवा दीपक के प्रकाश साधनों को काम में लाने का विधान है। बाह्य एवं प्रत्यक्ष त्राटक के लिए दीपक, मोमबत्ती, बल्ब आदि की आवश्यकता पड़ती है। जबकि अन्तः त्राटक में इन उपकरणों की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसमें प्रकाश ज्योति का मानसिक एवं भावनात्मक ध्यान करने से ही काम चल जाता है।

अंतःत्राटक प्रकाश ज्योति पर ही किया जाता है। उसके आरंभिक चरण में कुछ क्षण तक बाह्य त्राटक कर फिर उसी का ध्यान करते हैं। प्रातः कालीन उदीयमान सूर्य जब तक स्वर्णिम रहे, तब तक कुछ-कुछ सेकेंड के लिए उसका प्रत्यक्ष आँखों से दर्शन और फिर नेत्र बन्द करके उसका ध्यान करने से अंतःलोक की भूमिका बन जाती है। यही कार्य पूर्णिमा का चन्द्रमा देखने और आँखें बन्द करने से भी हो सकता है उस समय अन्य तारकों की ओर ध्यान न जाये। शुक्र, गुरु जैसा किसी प्रकाशवान तारे का इस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।

अन्तःत्राटक प्रारंभ करते हुए कुछ समय ध्येय प्रकाश की स्थिति वहीं रखनी पड़ती है, जहाँ उसे देखा गया था। प्रभात कालीन स्वर्णिम सविता को सुदूर पूर्व में उगते हुए जहाँ देखा गया, आरंभिक दिनों उसे वहीं सूक्ष्म दृष्टि से देखना होता है और भावना की जाती है कि प्रकाश पुँज की ज्योति किरणें अन्तरिक्ष में होकर उतरती हैं और अपनी उत्कृष्टता को स्थूल शरीर में बल, सूक्ष्म शरीर में ज्ञान एवं कारण शरीर में भाव बन कर प्रवेश करती हैं। परिणामतः शरीर संयमी, सक्रिय स्वच्छ बनता है, मन में उसी प्रकार की किरणों संतुलन विवेक शालीनता, सद्ज्ञान बनकर बरसती हैं। कारण शरीर में अन्तःकरण में सद्भावना और श्रद्धाभक्ति के रूप में वे प्रकाश किरणें अवतरित होती हैं। इस प्रकार समूचा व्यक्तित्व दिव्य ज्योति से जगमग हो उठता हैं।

बाह्य–त्राटक के लिए खुली आँखों से अभ्यास करना होता है। पर अन्तः त्राटक के लिए ध्यान मुद्रा है। भगवान बुद्ध के चित्रों में प्रायः यही स्थिति चित्रित की जाती है। इस स्थिति प्रकाश पुँज की अवधारणा और अधिक प्रगाढ़ भाव से की जाती है। बिजली के बल्ब का मध्यवर्ती फिलामेण्ट जिस प्रकार चमकता है और उसकी रोशनी बल्ब के भीतर भाग में भरी हुई गैस में प्रतिविम्बित होती है, उससे बल्ब का पूरा गोला चमकने लगता है और उसका प्रकाश बाहर भी फैलता है। ठीक यही भावना अन्तःत्राटक का यह प्रथम चरण है। बाहर से भीतर की ओर ज्योति का प्रवेश करने की प्रक्रिया प्रथम भूमाक कहलाती है। क्रमिक विकास में इसी प्रक्रिया के विस्तार की सुविधा रहती है। यह स्थिति अधिक परिपक्व-परिपुष्ट हो चलने पर प्रकाश की स्थापना भीतर की जाती है और उस आत्म ज्योति की-ब्रह्म ज्योति की आँच भीतर से निकलकर बाहर की ओर फैलती अनुभव होती है। बल्ब फिलामेण्ट भीतर तो ज्योतिर्मय होता ही है अपनी आभा से संपर्क क्षेत्र को भी प्रकाशवान बना देता है। आँतरिक ज्योति के प्रकटीकरण में भी ऐसी ही स्थिति बनती है। अन्तःत्राटक का साध आत्मसत्ता को प्रकाश से परिपूर्ण तो देखता ही है, साथ ही अपने प्रभाव क्षेत्र में भी आलोक बिखेरता है।

अन्तः त्राटक उच्च भूमिका में प्रकाश ज्योति को आज्ञा चक्र केन्द्र में स्थापित करते है। इससे भी आगे यह आभा हृदय केन्द्र में ले जाई जाती है। इस उच्च भूमिका में श्रद्धा प्राण रहती है और ध्येय ज्योति की सविता की चेतना द्युति के रूप में अनुभव किया जाता है। शास्त्रों में इसे ही- “हृत्पुण्डरीक मध्यस्थाँ प्रातः सूर्य सम प्रभाम्” अर्थात् हृदय कमल के मध्य में प्रातःकालीन सूर्य की प्रभा सदृश निर्दिष्ट कर वर्णन किया गया है। यही हृदय रूपी कमल में उल्लासित सविता की ज्योति है। अध्यात्म साधकों द्वारा बाह्य एवं अंतः त्राटक की साधना इसी परम ज्योति के दर्शन कर जीवन लक्ष्य प्राप्त करने के लिए की जाती है। साधक और सविता को एक बना देने का लक्ष्य अन्तःत्राटक द्वारा ही पूर्ण होता है। दिव्य दृष्टि इसी से खुलती और ज्योतिर्मय बनती है। प्रतिभा उन्नयन का आधार भी यही हे।


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