निंदा से विचलित क्यों हों?

October 1989

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प्रसिद्ध विचारक हरिभाऊ उपाध्याय के एक मित्र थे जो गाँधी जी के कटु आलोचक थे। यों गाँधी जी के आलोचकों की कमी नहीं थीं, लेकिन ऐसे आलोचक कम ही रहे जो उनके संपर्क में आने के बाद भी उनकी आलोचना निन्दा करते रहे हों। कारण कि जब भी कभी उनके सामने निन्दा-आलोचना का प्रसंग उठता तो वे प्रत्येक आलोचना का इस प्रकार उत्तर देते कि सामने वाले का हृदय उनके मानवीय गुणों के सम्मुख नतमस्तक हुए बिना नहीं रहता था।

उपाध्याय जी के उन मित्र को गाँधी जी की अहिंसा बड़ी आपत्तिजनक लगती थी। और वह जब भी अवसर मिलता गाँधी जी पर आक्षेप किये बिना नहीं रहते थे। एक बार उन्होंने बड़े उत्साह के साथ कहा कि यदि आप महात्मा जी से मेरभ् मुलाकात करा दें तो देश का भला होगा। क्योंकि मेरा मन महात्मा जी को खूब खरी खोटी सुनाने का है। ताकि वह अपनी रीति नीति बदलें और उनकी अहिंसा से देश को जो नुकसान होना बन्द हो जाय।

एक दिन सामना होने पर उपाध्याय जी को गाँधी जी से यह कहता ही पड़ा “बापू! यह हमारे आर्य समाजी मित्र हैं, बड़े दबंग और आपके कटु आलोचक। कई बार आपसे मिलने के लिए कह चुके हैं। “गाँधी जी ने हँसते हुए कहा- “हाँ-हाँ जरूर इनकी बातें तो जरूर सुनूँगा।” वे महाशय डिब्बे के अन्दर पहुँचे और खड़े खड़े ही गाँधी जी को अण्ट-शण्ट कहने लगे। बापू उनकी बातें सुनते हुए बोले कृपया बैठ जायँ। इससे आपको सुनाने में सुविधा होगी और मुझे सुनने में भी।

तभी गार्ड ने सीटी दी और गाड़ी ने प्लेट काम छोड़ दिया। उन महाशय को इसका कोई ख्याल नहीं रहा और वह अपनी आलोचना जारी ही रखे रहे। पता तो तब चला जब गाड़ी ने गति पकड़ ली और पता चलते ही उपाध्याय जी के मित्र के चेहरे पर घबराहट आ गई। मनोविज्ञान के पारखी गाँधी जी ने उनकी घबराहट का कारण जान लिया और कहा-”आप चिन्ता न कीजिए। आपकी बहुत सी बातों से मेरा भला हो रहा है और जो मुझे जंच रही हैं उन्हें ग्रहण कर रहा हूँ।” इतने में टिकट चेकर ने टिकट माँगा।

तत्काल गाँधी जी कह उठे। “यह मेरे साथ हैं। अभी अजमेर से सवार हुए हैं जल्दी के कारण टिकट नहीं बन सका। इसलिए इनका टिकट बना दीजिए” और गाँधी जी ने उनका टिकट बनवाया। टिकट बना कर टी.टी.ई. जैसे ही आगे बढ़ा गाँधी जी ने नितान्त सहज भाव से कहा-आप अपनी बात जारी रखिए।

लेकिन अब आलोचक महोदय से कुछ कहते नहीं बन रहा था। वह तो गाँधी जी के कारण अपनी फजीहत होने से बच जाने के कारण यह सोच रहे थे कैसा विचित्र है यह व्यक्ति जो अपने आलोचक के प्रति भी मैत्री का भाव रखता है। उसे एक भी अक्षर नहीं याद आ रहा था, जबकि उसकी किसी कटूक्ति पर उसे हाँ या अच्छा से अधिक कुछ सुनने को मिला हो। बापू ने उसके असमंजस को भाँप कर जवाब देते हुए कहा- प्रत्येक में दोष भी रहते हैं और गुण भी। मेरी भी यही स्थिति है। पर वास्तविक मनुष्य वही है जो अपने दोषों को खोज उनके निवारण का सच्चे हृदय से प्रयत्न कर रहा हो। अन्यथा उसे मनुष्य तो नहीं कहा जा सकता। आपने दोषों को खोजने में मेरी मदद की अतएव आपसे बड़ा मित्र और कौन होगा?


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