अध्यात्म यथार्थवादी है, विज्ञान सम्मत भी

October 1989

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चेतन पक्ष को सुनियोजित सुसंस्कृत बनाने की विधा आध्यात्म नाम से जानी जाती है। इसमें वह अनुशासन भी जुड़ा हुआ हैं जिसे संयम या आत्मानुशासन नाम से जाना जाता है। यह न बनने पर जो शेष रह जाता है। उसे आडम्बर या कलेवर ही कह सकते है। रामलीला आयोजन में बड़े आकार के रावण कुम्भकरण आदि खड़े किये जाते हैं। उनमें कौतूहल भर होता है। अधिक से अधिक उन दैत्यों के सम्बन्ध में कुछ जानकारी मिलती है। पर यह नहीं होता कि वे पुतले अपने कलेवर के अनुरूप कुछ कृत्य पराक्रम पुरुषार्थ करके दिखा सकें। यही बात अध्यात्म के सम्बन्ध में भी है। आम तौर से लोग उसके कलेवर भर का वर्णन करने में रुचि लेते है। उसकी मर्यादाओं को जीवन में उतारने का प्रयत्न नहीं करते। फलतः जो कुछ बचा रहता हैं उसे कलेवर की विडम्बना भर कहा जा सकता है।

तथ्य और तत्व का समावेश न होने पर यह स्थिति बन ही नहीं पड़ती जिसमें विज्ञान के समतुल्य या उससे भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध कर सकने की स्थिति बन सके। एक और सजीव हाथी खड़ा हो और दूसरी ओर वैसा ही कागज का पुतला बना कर खड़ा कर दिया हो तो यह आशा नहीं की जा सकती कि तुलना करने पर दोनों की सामर्थ्य समान सिद्ध हो सकेगी। दोनों को समान महत्व या मूल्य मिल सकेगा। दोनों से समान काम लिया जा सकेगा। नकली को अधिक वरिष्ठ या प्रमुख सिद्ध करने का तो अवसर ही कहाँ आता है?

जब जड़ पदार्थों से लाभान्वित होने की शरीरों को स्वस्थ रखने की, व्यापार व्यवसाय की कोई विधि व्यवस्था हो सकती है तो चेतना को सही और सुसंस्कृत बनाए रखने का भी सुनिश्चित अनुशासन रहेगा ही। शरीर की पृष्ठ भूमि में प्राण काम करता है। प्राण के दुर्बल हो जाने या विलग हो जाने पर शरीर महत्वहीन बन जाता है। इससे प्रकट है कि चेतना की-प्राण सत्ता की-विचारणा की अपनी समर्थता और उपयोगिता है। जैसे तैसे जहाँ तहाँ उसे पड़ा नहीं रहने दिया जा सकता है। अनगढ़ बनी रहने पर तो वह जंग खाई हुई घड़ी की तरह समय बताने की अपनी क्षमता से वंचित ही बनी रहेगी। इस दुर्गति से चेतना क्षेत्र को बचाए रहने के लिए अध्यात्म विज्ञान का सुनियोजन हुआ। पदार्थ विज्ञानियों की तरह ऋषिकल्प तपस्वियों ने अपने मानस को प्रयोगशाला बनाकर उन तथ्यों को ढूँढ़ निकाला जिन्हें अपनाकर नर बानर स्तर क एक सामान्य प्राणी किस प्रकार ऋद्धि सिद्धियों के स्वामी, विश्व वसुन्धरा के अधिष्ठाता बन सके। किस प्रकार उसने अपनी प्रसुप्त शक्तियों को खोजा और उन्हें जागृत करके देव मानव का पद पाया।

पदार्थ द्वारा मिल सकने वाले लाभों से सभी परिचित हैं। बलिष्ठ शरीर की उपयोगिता भी निरन्तर सिद्ध होती रहती है। सम्पत्ति के आधार पर इच्छित सुविधा साधन खरीदे जा सकते हैं। यह प्रत्यक्ष उपलब्धियों का महात्म्य हुआ। इससे कहीं अधिक बढ़े चढ़े लाभ विभूतियों के हैं। गुण कर्म की उत्कृष्टता को ही दार्शनिक भाषा में अध्यात्म कहा जाता है उसके आधार पर जो मिल सकता है उसकी जानकारी संसार में सृजन प्रयोजनों में सफल हुए महामानवों की जीवन गाथाओं का पर्यवेक्षण करते हुए सहज ही जानी जा सकती है।

अध्यात्म नेताओं का मत है कि इस विज्ञान के अनुसार आचरण करने पर अदृश्य चेतना के भावना, मान्यता, आस्था, प्रज्ञा, श्रद्धा पक्षों को उच्चस्तरीय बनाया जाता है। वे परिस्थिति होने पर इच्छा, आकाँक्षा, प्रेरणा के रूप में बुद्धिक्षेत्र को देवोपम बनाती है। देवोपम से तात्पर्य है- उत्कृष्टता सम्पन्न आदर्शवादी चिन्तन और चरित्र। व्यक्तित्व का परिष्कार भी इसी को कहते है॥ प्रतिभा परिवर्धन भी इसी को कहते है। प्रतिभा परिवर्धन भी इसी के साथ जुड़ा रहता है। इन विशेषताओं से सम्पन्न होने पर व्यक्ति उस स्तर का बन जाता है जिस श्रद्धेय, सम्माननीय, प्रामाणिक अनुकरणीय, अभिनन्दनीय कहा जा सकें।

अध्यात्म की वास्तविकता का स्वरूप एवं उपक्रम समझ लेने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतना को मनश्चेतना के साथ जोड़ने की यह प्रक्रिया आत्मसंयम, अनुशासन, मर्यादापालन की तपश्चर्या से आरंभ होती है। और उत्कृष्ट आदर्शवादिता से भरे पूरे चरित्र व्यवहार से अपना प्रमाण परिचय पग पग पर देती है। परिष्कृत आत्मा ही परमात्म का है। वेदान्त दर्शन में ‘अयमात्मा ब्रह्म’ ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ ‘तत्वमसि’ ‘सोहम्’ ‘शिवोऽहम्’ जैसे सूत्रों द्वारा वास्तविकता का स्पष्ट करना किया गया है।

इस स्तर के अध्यात्म का विज्ञान भी कैसे विरोध करने का साहस जुटा पाएगा? विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज, अविज्ञात का अनुसंधान और प्रगति के साधन जुटाना है। यदि यही कुछ अध्यात्म के द्वारा चेतना क्षेत्र में सम्पन्न किया जाता हो तो विग्रह क्यों उठेगा? दोनों अपने अपने क्षेत्र में काम करते हुए भी एक दूसरे के पूरक समझे जाने लगेंगे हवा आकाश में परिभ्रमण करती है और आहार दृश्यमान खाद्य-पदार्थों से विनिर्मित होता है। इतने पर भी दोनों की भूमिका जीवन निर्वाह में समान स्तर की होती है। यदि लक्ष्य एक रहें तो उन्हें विरोधी क्यों माना जाएगा। उपलब्धियों का सदुपयोग और जो आगे की संभावनाएँ हैं उनका अनुसंधान यह कार्य यह दोनों महाशक्तियाँ अपने अपने ढंग से सम्पन्न करती रहें तो उनके बीच विग्रह कहाँ रहा?

अन्ध विश्वास फैलाने का आरोप दार्शनिक प्रतिपादनों पर लगता हैं। कारण कि उनका आधार पर जो कुछ कहा जाता है वह सर्वमान्य नहीं होता। मात्र एक वर्ग के लोग ही उसे यथार्थ मानते हैं। अपने को सच्चा और दूसरों को झूठा भी ठहराते हैं। कलह यहीं से आरम्भ होता है। जो बात प्रत्यक्ष प्रमाणित न की जा सके उसे अपनी श्रद्धा के अनुरूप मान्यता देने में तो कोई भी स्वतन्त्र है। पर उन्हें दबाव व प्रलोभन के आधार पर दूसरों पर थोपना अनुचित है। इसी अनौचित्य का विरोध प्रायः विज्ञान वर्ग द्वारा अध्यात्म पर होता रहता है। मरणोत्तर जीवन,सम्प्रदाय विशेष पर ईश्वर की अनुकम्पा या नाराजी जैसे प्रतिपादन से सत्य की शोध में बाधा पड़ती है। प्रत्यक्षवाद का हिमायती बुद्धिवादी वर्ग इसी आधार पर अध्यात्म को अन्ध विश्वासों र अवलम्बित कहता और उसे असामान्य ठहराता है। इस प्रश्न पर सम्प्रदायवादी दार्शनिकों को भी नरम होना चाहिए। साथ ह अनुसन्धान के क्षेत्र में उतर कर यह देखना चाहिये कि उनके प्रतिपादन नीतिशास्त्र और समाज सुनियोजन में किस सीमा तक सहायक सिद्ध होते हैं? सर्व साधारण को उन मान्यताओं के सहारे किन सुव्यवस्थाओं की उपलब्धि होती है? तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण के आधार पर यदि अध्यात्म मान्यतायें सही सिद्ध की जा सकें तो वे प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी खरी सिद्ध होंगी और उनका मान बौद्धिक तथा वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी खरा सिद्ध होता चलेगा फिर किसी को किसी पर आरोप लगाने की आक्षेप थोपने की गुँजाइश न रहेगी।

जो अपनी प्रमाणिकता एवं उपयोगिता सिद्ध कर पाता है, उसी में लोक मान्यता मिलती है। इस संदर्भ में अध्यात्म को स्वयं आत्म निरीक्षण परीक्षण करना चाहिए और जो खरा है वह वाला सिद्धान्त अपनाकर ऐसा कवच पहन लेना चाहिए कि जिस पर बुद्धिवाद का, प्रत्यक्षवाद का अतिक्रमण आघात न पहुँचा सकें।


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