विचारों में निहित रचनात्मक शक्ति

October 1989

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विचार स्वयं में एक सामर्थ्य है। ये अपनी निर्धारित रीति-नीति से स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए परिणाम-प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। प्राण शक्ति के चुम्बकीय और अधिक हो जाती है। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति में मौलिक रूप से यह सामर्थ्य विद्यमान होती है। किन्तु इतने पर भी इने-गिने लोग ही ऐसे होते हैं जिन्होंने इसका सही व सन्तुलित उपयोग करने की कला का मर्म जाना हो।

दार्शनिकों ने विचारों क्षमता पर विशद चिन्तन किया है। आचार्य शंकर का इस सदी में मानना है, कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना मानसिक जगत होता है। इसे विचारों एवं कल्पनाओं का संसार कह सकते हैं। यद्यपि विचार की प्रक्रिया में बुद्धि की प्रधानता होती हैं। पर व्यापक अर्धो में दोनों ही मानसिक चेतना के अंतर्गत आते है।

बौद्ध मत के अनुसार भी प्रत्येक मनुष्य अपने ही जगत में रहता एवं विचरण करता है उसका यह संसार दूसरे मनुष्य के संसार से भिन्न होता है। इन विभिन्न जगतों में एक प्रकार का सामंजस्य होने पर ही ये एक दूसरे में अन्त; प्रविष्ट हो सकते हैं। इसी स्थिति में व्यक्ति एक दूसरे के संपर्क में आता है इसी तरह पारस्परिक विचारों को समझा जा सकता है।

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी उपयुक्त दार्शनिक चिन्तन को अपनी प्रयोगात्मक कसौटी पर खरा सिद्ध किया है। उनके अनुसार जब कोई बात किसी समूह में कही जाती है तो प्रत्येक व्यक्ति उसे बलग ढंग से समझाता है। वक्ता ने अपने कथन को जिस भाव से कहा है, इसे ठीक उसी तरह ग्रहण नहीं किया जाता इसके स्थान पर ऐसी चीज को ग्रहण किया जाता है जो उसके मन में पहले से भरी हो।

वस्तुतः मन विचारों को गढ़ने एवं आकार देने का कारण है। यह ज्ञान का कारण नहीं है। इसके द्वारा प्रत्येक क्षण इन आकरों की रचना की जाती है। विचार आकारमय होते है।

मनःशास्त्री पोफैन बरगर ने अपनी रचना “प्रिन्सिपल्स आफ अप्लाइड साइकोलॉजी” में इन विचारमय आकारों को विवेचित किया हैं। उनका अपने इस अध्ययन में मानना है कि इनका अस्तित्व विचारमय आकारों को जगत में भेज देता है, तो ये अपने अस्तित्व के प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए जगत में विचरण करने लगते हैं।

ड्यूक विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. जे.बी. राइन के अनुसार परामनोविज्ञान में विचार संचरण प्रणाल का आधार यही है। विचारों का गठन हमारे द्वारा किसी व्यक्ति या विषय वस्तु पर चिन्तन करने पर होता है। यह सृजित विचार एक आकार धारण करके उसे खोजने के लिए निकल जाता है। यदि इस विचार के पीछे कोई संकल्प नियोजित है, तो मानसिक क्षेत्र से निकला यह विचारमय आकार अपने को चरितार्थ करने की चेष्टा करता है।

मनो अध्येता राबर्टो असागिओली का अपनी कृति “साइको-सिन्थेसिस” में मानना है कि “जब इन विचारमय आकारों का फल प्राप्त होता है तब हम उस विषय की इच्छा या परवाह छोड़ चुके होते है। इस तरह की अव्यवस्थित विचार प्रणाली को वैचारिक परिपक्वता में एक कमी के रूप में जाना जा सकता है।

इस कमी को श्री एच.ए.रुगल ने “द-साइकोलॉजी ऑफ एफिसिएन्सी” में भली प्रकार स्पष्ट किया है। उनका मानना है कि कुछ लोगों की रचना शक्ति अत्यन्त सशक्त होती हैं। यही कारण है कि उनकी मनोरचनाएँ सदा कार्यान्वित होती है। पर अधिकाँश व्यक्तियाँ की मनोमय व प्राणमय सत्ता सधी हुई नहीं होती है। इस कारण वे कभी एक चीज पर विचार करते हैं-कभी उसकी विरोधी चीज पर। अतएव उनकी ये विरोधी रचनाएँ तथा उनके परिणाम एक दूसरे से टकराते और भिड़ते रहते हैं। श्री रुगल इस संदर्भ में एक तथ्य और उद्घाटित करते है कि निषेधात्मक विचारों की रचना करके भी हम स्वयं विरोधी परिणामों को आमन्त्रित करते हैं।

उनका मत हैं कि उपर्युक्त तथ्य को विस्मृत कर देने की ही परिणति है कि बहुसंख्य व्यक्ति अपनी दुर्व्यवस्था पर आश्चर्य चकित होते हैं। उन्हें अपने जीवन में इतनी अधिक अव्यवस्था और असामंजस्य का कारण ही नहीं समझ में आता। वे इस तथ्य को अनुभूत नहीं कर पाते कि उनकी परिस्थितियों की विषमता स्वयं के विचारों एवं इच्छाओं की ही उपज हैं। बेमेल और विरोधी जान पड़ने वाली यह स्थितियाँ व्यक्ति के जीवन को असह्य प्रायः बना देती हैं।

परामनोविज्ञान का यह अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण है किन्तु इसकी समग्र महत्ता तभी है, जब जीवन में इसके सदुपयोग के रहस्य को जाना जाय। श्री अरविन्द अपने योग विषयक पत्रों में इसे स्पष्ट करते हुए कहते है। कि साधारणतया मनुष्य अपने विचारों की प्रभावोत्पादकता जाने बिना इनका बेतुका सृजन करते रहते हैं। उनको इसका तनिक भी पता नहीं है कि उनकी विचार रचनाएँ किस प्रकार गति एवं क्रिया करती हैं। इस प्रकार की अज्ञानमय विश्रृंखल अवस्था में गढ़े हुए विचार परस्पर टकराते रहते है। इनकी टकराहट मानसिक श्रम, भार व थकान के रूप में अनुभूत होती है।

आत्म विश्लेषण व आत्म-परीक्षण की विधि द्वारा स्वयं के विचारों का अध्ययन किया जा सकता है। तत्पश्चात् संकल्पपूर्वक अनवरत उन पर नियंत्रण द्वारा उनको गढ़ा जा सकता है। आत्मानुशासन द्वारा इनके गठन तथा संकल्प द्वारा प्राण शक्ति का नियोजन विचारमय आकार को पूर्ण शक्ति और सफलता प्रदान कराता हैं।

श्री अरविन्द के द्वारा उपदिष्ट उपरोक्त प्रणाली को मनोवेत्ता “थाँट प्रासेस” क नाम से बताते हैं। शास्त्रों में इसे ही ‘निदिध्यासन’ कहकर बताया गया हैं विभिन्न चिन्तक और विज्ञानवेत्ता देर तक एक ही विषय वस्तु पर विचार करते रहने की रुचि एवं आदत उत्पन्न करते है। फलतः वे समुद्र में गहरे उतरने वाले गोताखोरों की भाँति बहुत से मणि-मुक्तक खोजने में सफल हो जाते हैं। किनारों पर टहलने वाले दर्शकों को तो सीप और घोंघे जैसी चीजें ही हाथ लगती है।

आन्तरिक अभिरुचि को इस ओर मोड़ देने से सहजतापूर्वक निषेधात कुविचारों से छुटकारा पाया जा सकता है। इस तरह छुटकारा पा जाने वाले लोग गहने व आदर्शोन्मुख होते हैं। उथले लोगों की वैचारिकता हवा में उड़ते तिनके की भाँति है। ये हवा के रुख को देखकर अपनी गतिविधियाँ परिवर्तित कर देते हैं। जबकि विचार साधना के धीन आदर्शपूर्ण लक्ष्य पर चट्टान की तरह अटल रहते है।

विचारों की यह साधना अपने आप में सम्पूर्ण व समग्र है। आचार्य शंकर अपनी रचना “अपरोक्षानुभूति” में इसका महत्व बताते हैं कि जिस प्रकार प्रकाश के बिना कभी पदार्थ का भान नहीं होता उसी प्रकार बिना विचार साधन के जीवन जीने की कला का बोध सम्भव नहीं।

निःसन्देह इसका महत्व हमारे बहुआयामी जीवन के प्रत्येक आयाम में है। इसको हृदयंगम कर ही मन व प्राण को आत्मानुशासन द्वारा संचालित कर विचारों के सुगठन तथा उनके सदुपयोग का मार्ग अपनाया जा सकता है। इस तरह सफल और समुन्नत जीवन की मंगलमयी उपलब्धियाँ पचुर परिणाम में प्राप्त की जा सकती है।


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