हँसती-मुस्कराती-आकृति-प्रकृति

October 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बन्द कली में फल का अस्तित्व तो होता है। पर वह मुंदी संकुची सिकुड़ी होने के कारण एक गोली सी बनी पत्तियों की छाया में मुँह छिपाये बैठी रहती है। उसका प्रभाव स्वरूप तब निखर कर आता है जब वह खिलती है और अपने आकार का विस्तार करती हैं। तभी उससे फूल की संज्ञा और प्रशंसा मिलती है। तितली भौंरों से लेकर भावुक जनों तक सभी उसके इर्द गिर्द मँडराते हैं।

मनुष्य के होठों के बीच दबी हुई सम्पदा उदासी की मनःस्थिति में दबी बँधी और छिपी रहती है। किन्तु जब भीतर से उल्लास उभरता है। व्यक्तित्व की गरिमा का दृश्यमान अरुणोदय होता है तो मुख अनायास ही पड़ता हैं और बंद दाँत मोती के दोनों की तरह दीख पड़ते हैं।

सूर्य की ऊर्जा का उदय होते ही तालाबों में कमल खिल जाते हैं। सूर्यमुखी के जिधर तिधर सीधे हुए फूल प्रभात को नमन करने के लिए अपनी दिशा वहीं कर लेते हैं यही बात मनुष्य के संबंध में भी है। संतुष्ट प्रसन्न और आशान्वित व्यक्ति की विशिष्टता अपनी वाणी में बोलती हैं यह अभिव्यक्ति अपनी साँकेतिक होती है। शब्दावली का समावेश न होने पर भी वह स्थिति को प्रकट कर देती है।

होठों को मनहूसों की तरह बन्द रखना ऐसा है जैसा किसी जीवित मनुष्य को मुर्दे का कफन उढ़ा देना। उसे किसी सुन्दर गुलदस्ते की बोरी में बँद कर देने के समान है।

भावना रहित व्यक्ति ही डरे सहमे और सकुचे रहते हैं। अपना मन न खोल सकने वाले आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित व्यक्ति मौन साधे बैठे रहते हैं। अन्यथा हलके मन वालों की पहचान यह है कि अपना मन जिस सीमा तक खोल सकना संभव है उस सीमा तक खोलें। मन की बात कहें और उस प्रोत्साहन पर दूसरों को भी यह अवसर दें कि वे भी मन की बात कह सकें। इतना ही नहीं अपनी प्रसन्न संतुष्ट आशान्वित मनोवृत्ति का परिचय प्रकट होने दें। इससे मनुष्य का गौरव बढ़ता है और उस बात का परिचय मिलता है कि भीतर खोखलापन नहीं है। वरन् कुछ ऐसा भी है जिसे मधुर, सरस, उज्ज्वल और आकर्षक कहा जा सकें।

कहते हैं कि जब मनुष्य हँसता है तो मोती उगते और फूल झड़ते हैं। इस प्रसाद को पाने के लिए हर कोई लालायित रहता है। हँसते हुए मनुष्य को देख कर देखने वाले को भी हँसना आता है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि रोते को देख कर रोना आता है और क्रोधी की समीपता में क्रोध का आवेश चढ़ आता है। यह बिना पूँजी का उपहार है जिसे किसी को भी कितनी ही दे तक कितनी ही बड़ी मात्रा में दिया जा सकता है।

यह सोचना व्यर्थ है कि अपने दाँत प्रकृति ने कैसे ही क्यों न बनाये हों पर जब वे खिलते हैं तो सहज सौंदर्य से भर जाते हैं।

मुस्कराने की आदत मानसिक स्वास्थ्य को कायम रखने और दूसरों को वही उपहार बाँटने की दृष्टि से नितान्त सस्ता और बहुमूल्य उपक्रम है। यदि स्वभावतः ऐसी प्रकृति न मिली हो, वातावरण ने यदि इस सद्गुण को विकसित होने का अवसर न मिलने दिया हो तो फिर अपने प्रयत्न से एक उपयोगी व्यायाम या योगाभ्यास की तरह इसे आरंभ करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles