आस्तिकता हृदय की सहज वृत्ति है। किन्तु इसका तात्पर्य किसी एक देशीय वस्तु स्थिति व्यक्ति के साथ एकात्म नहीं है। इसकी एक ही कसौटी है “सुहृदं सर्व भूतानाम्”। जो इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता उसे आस्तिक मानना मनवाना एक प्रवंचना भर है। ये उद्गार हैं देशबंधु चितरंजन दास के। जो स्वयं को इसी कसौटी पर जाँचा परखा करते थे।
कल्याण के आदि सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद पौद्दाद को उन्हें निकट से देखने परखने का अवसर मिला। अपने एक संस्मरण में कहते हैं कि अगाध विद्वता के साथ करुणा और अपरिग्रह का भण्डार उनमें भरा हुआ था। उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य दीन विद्यार्थी, धनाभाव से चिकित्सा कराने में असमर्थ रोगी, मृत पिता का शवदाह करने में अशक्त निर्धन कंकाल शेष क्षुधार्त, आदि विविध रूपों में अभाव ग्रस्त मानवता को तृप्त करना था। पोद्दार जी को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि सुबह से शाम तक जितना कमाते वह सब सूर्य की किरणों के साथ विलीन हो जाता। दो हाथों से धन संग्रह करते और उसे हजार हाथों तक पहुँचा देते थे।
एक बार की बात है डुमराँव राज्य का मुकदमा जीतने पर उन्हें एक दिन में एक लाख रुपये से अधिक मेहनताने में मिला। घर पहुँचते-पहुँचते सारा धन देश और समाज की विविध आवश्यकताओं में नियोजित हो गया। गाँधीजी ने उनकी यह बात सुन रखी थी। जब वह उनसे मिलने उनके घर गए उस समय पोद्धार जी भी मौजूद थे। गाँधीजी ने दास बाबा से पूछा-सूना है आपकी रुपए में पन्द्रह आने कमाई लोग ठग ले जाते हैं।
देश बन्धु ने उत्तर दिया बापू। मैं आस्तिक हूँ। मेरा भगवान, उदास, दुःखी पीड़ित रोगी पड़ता रहे और मैं शौक-मौज में धन उड़ाऊँ यह मेरे से सम्भव नहीं। विभिन्न रूपों में जीवन जीने वाले भगवान को नैवेद्य लगाकर उसका उच्छिष्ट ग्रहण करना ही मुझे प्रिय है।
पास बैठे हुए एक मित्र बोले लेकन फिर भी आपत्ति विपत्ति के लिए कुछ रखे बगैर इस तरह खुले हाथों सेवा कार्यों में लगाना बुद्धिमानी तो नहीं कही जा सकती। देश बन्धु कुछ रोष भरे स्वर में बोले -जो मेरे भगवान की सो में अड़ंगा लगाए, रोड़े अटकाए ऐसी बुद्धि को मैं तिलाँजलि देता हूँ। ऐसे बुद्धिमान बनने से मैं बेवकूफ भला।
परमात्मा अनेक रूपों में विपत्ति में पड़ा तड़पता रहें और उसकी सेवा करने के स्थान पर मैं भावी विपत्ति की आशंका से परेशान होऊँ और धन के ढेर लगाऊँ यहां मेरे से सम्भव नहीं। भगवान ने मुझे हाथ पाँव मस्तिष्क क्षमताएँ दी हैं। वर्तमान में मैं इसका भरपूर उपयोग देने वाले के लिए कर लेना चाहता हूँ।भविष्य क्या होगा अच्छा या बुरा इसके बारे में व्यर्थ अभी सोच सोच कर परेशान क्यों होऊँ?
आस्तिकता मुझे विरासत में मिली है। इसे मैं किसी कीमत में खोना नहीं चाहता। मेरे लिए इसका सीधा-साधा तात्पर्य है अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, शक्ति का एक-एक कण भगवान की सेवा में लगे। फिर सभी कुछ भगवान का ही तो है। मैं तो भगवान की चीन भगवान को अर्पित करता हूँ। इसमें किसी पर मेरा अहसान तो नहीं। यदि ऐसा न करूं तो नास्तिक ओर बेईमान समझा जाऊँ। आस्तिकता की यह नई परिभाषा सुनकर गाँधीजी भाव–विभोर हो गए और मित्र मण्डली आश्चर्य चकित।