अपनों से अपनी बात

October 1989

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घरेलू व्यक्तिगत विशेष अवसरों पर मित्र परिवारी सम्बन्धी सभी एकत्रित होते है ताकि उस विशिष्ट घटना की प्रतिक्रियाओं से परिचित होने के अतिरिक्त आवश्यक योगदान भी दे सकें। प्रसवकाल में जहाँ सुसमाचार मिलने की सम्भावना रहती है वहाँ असह्य कष्ट से लेकर जोखिम तक का खतरा रहता है। सगे संबंधी इस सूचना को पाकर इर्द−गिर्द ही रहते हैं ताकि किसी प्रकार की आवश्यकता पड़ने पर अपना कोई रोल निभा सकें।

विवाह समय में भी ऐसी ही उपस्थिति आवश्यक समझी जाती हैं कि परिवार से जुड़े नये सदस्य बढ़ने और उस आगमन के साथ नई परिस्थितियाँ बनने सम्बन्ध में अपनी उपस्थिति का प्रभाव सभी संबंधित लोगों पर छोड़ सकें। मित्र की प्रसन्नता में भागीदार बन सकें। मृत्यु बीमारी या दुर्घटना का समाचार सुनकर भी स्वजन दौड़ आते हैं। लोकाचार निर्वाह के लिए ही नहीं, इसलिए भी कि उस संकट की घड़ी में उनको किसी प्रकार की सहायता अपेक्षित हो तो उसे भावना पूर्वक कर सकें। बिखरे हुए कुटुम्बी अक्सर किसी बड़े त्यौहार पर एकत्रित हो लेते हैं, ताकि दूर दूर रहने के कारण जो आत्मीयता घट जाती है उसे साल में एकबार तो तरोताजा करके अपेक्षा वृत्ति विकसित न होने दी जाय।

प्रज्ञा परिवार के इस दिशा में बड़े कदम मथुरा में सहस्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ के साथ सम्पन्न हुए। उन दिनों परिवार में जितने प्रमुख सदस्य थे वे लगभग सभी उस अवसर पर एकत्रित हुए। उद्देश्य था देव संस्कृति को उपेक्षित स्थिति से उबारना और उसमें पुनर्जीवन जैसी प्राण चेतना उत्पन्न करना। पाँच दिन के आयोजन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाले निर्णय हुए। साथ ही एक सुनियोजित संगठन भी बनाया गया। युग निर्माण परिवार नाम दिया गया। उपस्थित लोगों में जो अतीव कर्मठ ढूँढ़े गये उन्हें उस संगठन को संयोजक बना दिया गया। उन्होंने जाते ही अपने क्षेत्र में प्राणपण से काम करना शुरू किया। बाद में हजारों सम्मेलन, समारोह ऐसे स्थानों पर हुए। सहस्रों ही प्रज्ञापीठों के भवन बने और ऐसे रचनात्मक और सुधारात्मक आन्दोलन आरंभ हुए जिनकी प्रगति देखते हुए संसार भर में तहलका मच गया। इस प्रयास को अपने ढंग के अद्भुत पराक्रम और अभूतपूर्व अभियान की संज्ञा दी जाने लगी। वही एक बार लगा हुआ जोरदार धक्का अब तक काम देता आया है और स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि “इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य” नाम से जाने जाने वाले संसार भर को झकझोर कर रख देने वाले आन्दोलन का सुनियोजित उद्गम केन्द्र शांतिकुंज बन गया है। उसे गंगोत्री, जमुनोत्री, अमरकंटक, मानसरोवर स्तर का देव सरिताओं का उद्गम स्वीकारा जा रहा है। ऐसी ही उसकी छवि भी बन रही हैं।

इक्कीसवीं सदी के आगमन में अभी 11 वर्ष से कुछ ही अधिक समय बाकी है इस अवधि का संधिपर्व माना गया है। संध्याकाल, ग्रहणकाल, ऋतु परिवर्तन आदि ऐसे ही मध्यान्तर होते हैं जिनमें अपने अपने ढंग की विशेषताएँ देखी जाती हैं। सन् 89 आरंभ होकर सन् 2000 तक चलने वाले इन बारह वर्षों में प्राणवानों के निमित्त महाकाल की एक विशेष चुनौती माना गया है। और कहा गया है कि वे निजी कारोबार में व्यामोह में संभव कटौती करें और युग धर्म के परिपालन में ऐसा उच्चस्तरीय दायित्व निबाहें जिनमें उद्भूत तप ऊर्जा से नवयुग की ज्ञानगंगा के सतयुगी गंगावतरण की घटना की फिर से पुनरावृत्ति देखी जा सकें। यह युगसाधना मूलतः भाव, ज्ञान और कर्म के अदृश्य तथ्यों पर निर्धारित हैं पर सर्व साधारण को दृश्यमान परिचय प्राप्त हो सके, इसके लिए बाहर वर्षीय प्रत्यक्ष पुरश्चरण की आवश्यकता पड़ी। उपयुक्त वातावरण बनाने, इसे अपनाने और प्रवाह में बहने की इससे आशा की गई है। सन् 89 के आरंभ से ही युगसंधि पुरश्चरण शान्तिकुँज हरिद्वार में विधिवत् आरंभ हो गया है। प्रज्ञा संस्थानों और प्रज्ञा मण्डलों में उसकी छोटी अनुकृतियाँ साप्ताहिक सत्संगों के रूप में हो रही हैं। दीपयज्ञ के विशालकाय समारोह इसी संदर्भ में हो रहे हैं और भी अनेक गतिविधियों का उद्घाटन, शुभारंभ विस्तृतीकरण अपने ढंग से हो रहा है, जिनका प्रत्यक्ष परिचय परिजनों को समय-समय पर मिलता रहेगा। प्रस्तुत गुरुपूर्णिमा से तो बड़ा प्रत्यक्ष कार्य इतना ही किया गया है कि हरिद्वार के वर्तमान में आश्रम के ही 50 कमरे नये बनाने का कार्य आरंभ हो गया है ताकि इस युग समारोह के भागीदारों को यहाँ आने पर किसी प्रकार ठहरा तो सकें।

राम वनवास, पाण्डवों का वनवास नल-दमयंती का बन निवास प्रायः बारह बारह वर्ष का ही था। बारह वर्ष का एक युग भी माना जाता हैं। हर बारह वर्ष में इस संसार में अत्यन्त महत्वपूर्ण परिवर्तन भी होते रहते हैं। जिन्हें सूक्ष्मदर्शी प्रज्ञावान अधिक स्पष्टता से देख सकते हैं। अखण्ड ज्योति परिजनों में से प्रत्येक से यह अपेक्षा की गई है कि इस परिवर्तन पर्व में वे मात्र मौन दर्शक न रहेंगे। भीम, अर्जुन, अंगद, हनुमान जैसे पराक्रम न सही तो वे शबरी, गिलहरी, गिद्ध जैसी हलकी-फुलकी भूमिका तो अवश्य निभा सकेंगे। समय का अपना महत्व होता है। जो गुजर जाने पर फिर हाथ नहीं आता। सत्याग्रह संग्राम में जो आड़े दिन के लिए सम्मिलित हुए वे स्वतंत्रता सैनिक कहलाये, गौरवान्वित हुए और अनेक सुविधा उपहारों से अपने को कृतकृत्य कर सके। समझा जाना चाहिए कि युगसंधि के बारह वर्ष इतने बड़े आन्दोलन की भूमिका है जिसे युगान्तरीय अभियान के रूप में चिरकाल तक स्मरण किया जा सकेगा।

प्रस्तुत महापुरश्चरण का एक पक्ष है सूक्ष्म वातावरण को सृजनात्मक प्राण ख्तना से भर देना। दूसरा है इस महा अभियान में सम्मिलित होने वालों की प्रत्यक्ष प्रतिभा का परिवर्धन करना, प्रतिभा हो तो प्राण चेतना और उसी के आधार पर मनुष्य की जीवट, दूरदर्शिता, साहसिकता, क्षमता, दक्षता जैसी अनेकानेक विशेषताएँ उभरती हैं। उन्हीं के बल पर लोग लौकिक जीवन में सम्पन्नता और आन्तरिक जीवन की महानता अर्जित करने में सफल होते हैं। धन तो धूप-छाँव की तरह आँख मिचौनी खेलता रहता है, किन्तु यदि प्रतिभा का स्तर परिष्कृत जैसा बन जाय तो उसकी लाभ श्रृंखला पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। अपने और दूसरों के लिए आगे बढ़ने, ऊँचा उठने का पथ प्रशस्त करती रहती है। सम्पत्ति से भी अधिक आत्मिक महानता का परिचय देने वाली विभूतिमत्ता का प्रतिफल अनेक गुना स्थायी भी है और महान भी।

युगसंधि काल में साधना परक तपश्चर्या की साधना में जहाँ व्यक्ति की स्थिति के अनुरूप उपासना का विधान है, वहाँ हर भागीदार को न्यूनतम दो घंटे समयदान के रूप में अपने क्षेत्र में अनुदान प्रस्तुत करते रहने का भी विधान हैं यह पुण्य और परमार्थ का समन्वय ऐसा है जिसके फलस्वरूप भागीदारों की प्रतिभा का परिष्कार वातावरण में सृजन चेतना के समावेश और नव निर्माण में पुरुषार्थपरक योगदान के तीनों पक्ष जुड़े हुए हैं और त्रिवेणी संगम की समता करते हैं। अभियान की भागीदारी को एक शब्द में उदीयमान सौभाग्य कह सकते हैं।

यों इस उदीयमान प्रकाशपुँज से आलोकित तो विश्व का कोना-कोना होगा, पर उस सूत्र संचालन में भागीदारी प्रमुखता और प्राथमिकता रहेगी। कहावत है कि शालीनता और उदारता का प्रारंभ अपने घर से करना चाहिए। अपने निजी शरीर के उपरान्त मनुष्य क सबसे अधिक प्रभाव अपने परिवार पर ही होता है। कारण कि उप परिवार के लोग अनेक आदान-प्रदानों के सहारे असाधारण रूप से गुथे रहते हैं। शान्तिकुँज ने मानवी सभ्यता के पुनरुत्थान का कार्य अपने हाथों आन्दोलन के रूप में शुरू किया है। यों उसके सहभागी तो करोड़ों बन गये हैं और बनेंगे, पर शुभारंभ श्री गणेश के समय तो घर-परिवार के लोग ही पुकारे जाते हैं। उनके सहयोग पर उत्साह भी बढ़ता है और उपेक्षा बरतने पर निराशा भी होती है।

संदेशों और दायित्वों की एक निराली श्रृंखला है। उसकी कड़ियाँ समयानुसार खुलती ओर दृष्टिगोचर होती रहेंगी। इसमें से प्रथम चरण यह है कि अखण्ड ज्योति के सभी सदस्य एक बार समय निकाल कर नौ दिन के लिए शांतिकुंज एक सत्र में सम्मिलित होने की तैयारी करें। एक पुरश्चरण इस देव भूमि पर कर लेने से जो महानता उनके भीतर दबी पड़ी है, वह निखरेगी। महाकाल की वाणी सुन सकने लायक अपने बंद कपाट खुलेंगे। डायनुमों के संपर्क से अचानक बुझी बैटरी फिर सक्रिय हो जाती है। साधना सत्रों का यही प्रधान उद्देश्य हैं।

युगसंधि महापुरश्चरण की वातावरण को संशोधित करने वाली आध्यात्मिक प्रक्रिया अगले दिनों तेजी से चलेगी और उसके एक करोड़ भागीदार बनेंगे। सन् 2001 में इस महासाधना के युग की पूर्णाहुति होगी। इन ग्यारह वर्षों में एक लाख प्राणवान कार्यकर्ता कार्य क्षेत्र में उतार दिये जायेंगे दस वर्ष जीवित रहने के अवकाश शायद हमें न मिले। क्योंकि अन्य अत्यन्त प्रचण्ड चोर्ये इतने विशालकाय हैं जिन्हें सूक्ष्म शरीर की शक्ति से ही तोड़ा जा सकता है। इस विवशता में हमारा स्थूल शरीर अदृश्य हो सकता है, फिर भी अपने वर्तमान दायित्वों को हम शान्तिकुँज में अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते हुए भी उससे अधिक अच्छी तरह चलाते रहेंगे, जितना कि प्रत्यक्ष शरीर द्वारा कर पाते हैं। हमारी लेखनी बराबर चलती रहेगी, भले ही उसका रेखाँकन किन्हीं अन्य हाथों से होता दिखायी पड़े। एक लाख कार्यकर्ताओं का परिपूर्ण प्रशिक्षण और एक करोड़ का सहयोगी समुदाय जुटाने में विशालकाय भौतिक साधन जुटाने पड़ेंगे। इतने अधिक कि जिनका आज तो साधारणजनों के लिए कल्पना कर सकना कठिन पड़ेगा। इतने पर भी यह सुनिश्चित समझा जाना चाहिए कि निर्धारित योजना उसी तरह चलती रहेगी, जैसे कोई शरीरधारी, प्रबल पुरुषार्थी कर सकता है। दैवी शक्ति की निर्धारित योजना को पूरा करने के एिल मुफ्त का श्रेय लेना किसी को क्यों कुछ भारी पड़ेगा?

अन्य भी योजना के अति महत्वपूर्ण पृष्ठ है। जो समयानुसार खुलते और सामने आते रहेंगे। आज तो इनता समझ लेना ही पर्याप्त है कि इक्कीसवीं सदी इस विश्व की सबसे बड़ी सबसे व्यापक और सबसे आश्चर्यजनक उथल-पुथलों से भरी क्रान्ति है। उसके परिवर्तनों और घटनाक्रमों का अंकन तो इतिहास के पृष्ठों पर रहेगा ही, बड़ी बात यह है कि इसी अवधि में इतने महामानव दूध में से मलाई की तरह उछल कर ऊपर आयेंगे जिन्हें देखते हुए श्रेय साधकों द्वारा भागीरथ जैसे गंगावतरण का नाम दिया जा सके। बगीचा लगाने वाले की तीन पीढ़ियाँ मोद मनाती हैं स्वतंत्रता सैनिक इन दिनों भी गौरवान्वित हो रहें हैं। यह सृजन कार्य से जुड़े श्रेय का ही कमाल हैं।

ऐसा ही कुछ अपने लिए प्राप्त कर सकना संभव हो सके, उसकी पृष्ठभूमि समझने के लिए, युगसंधि पुरश्चरण में भाग लेने के लिए अखण्ड ज्योति के प्रत्येक परिजन का आह्वान किया जाना है। अच्छा हो उसके लिए बहुत दिन तक योजना बनाने में समय गँवाया न जाय और आगामी एक वर्ष में इस प्रक्रिया को पूरा कर लिया जाय।


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