यह कुचक्र देर तक टिकेगा नहीं

October 1989

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विगत शताब्दियों में विज्ञान और बुद्धिवान ने असाधारण प्रगति की है। इनके सहारे बहुमुखी प्रगति की आशा की जानी चाहिए थी और सत्गुणी वातावरण फिर से वापस लौटना चाहिए था, पर दुर्भाग्य से वह आशा पूरी नहीं हुई, वरन् उलटे ही दृश्य दृष्टिगोचर हो रहे हैं। असमानताएँ बढ़ी हैं। द्वेष-दुर्भाव में बढ़ोत्तरी हुई है। स्वार्थपरता अधिकाधिक सघन होती गई है। करुणा और शालीनता के स्त्रोत मानी सूखने ही लगे हैं। हर कोई अधिकारों के लिये अपनी माँग बढ़ाने में निरत है, कर्तव्यों की ओर से उपेक्षा की प्रवृत्ति की बढ़ रही है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की दृष्टि से स्थिति दिन-दिन पतन पराभव की ओर गिरते जाने का परिणाम यह हुआ है कि चेतनात्मक वातावरण का हर क्षेत्र प्रदूषण से भर गय है। वायु, जल, मिट्टी, आकाश आदि में बढ़ते जा रहे प्रदूषण इसके अतिरिक्त हैं। आशंका और अविश्वास बढ़ते-बढ़ते आगामी संभावित महायुद्ध की तैयारियों में जुट गये हैं। वैज्ञानिक आयुधों के ऐसे आविर्भाव हुए हैं, जो यदि चल पड़े तो इस सुन्दर दुनिया का और उसकी प्राणि सम्पदा का अस्तित्व भी शेष रहने देंगे या नहीं, इसमें सन्देह है। साधारण क्रम से भी विषाक्तता जिस तेजी से बढ़ रही है उसे देखते हुये लगता है कि कहीं दुनिया धीमी आत्महत्या की ओर नहीं बढ़ रही बढ़ती हुई नशेबाजी और अन्धाधुन्ध जनसंख्या वृद्धि ऐसे दो उदाहरण हैं जो प्रगति और शान्ति की संभावनाओं को धूमिल करके दुख देते हैं। गरीब-अमीर के, नर और नारी के, जाति-पाँति के, अशिक्षित-शिक्षित के, बढ़ते हुये अन्तर भी निराशाजनक संभावनाओं के घटाटोप समेट कर ही सामने खड़े कर देते हैं। असंतोष, आशंका, उद्विग्नता और असहयोग की बढ़ती हुई मानसिकता हर किसी को तनावग्रस्त किये हुये है।

अवाँछनीय वातावरण से न शरीर स्वस्थ रहता है न मन सन्तुलित। देखा जाता है कि अधिकाधिक शरीर दुर्बलता और अस्वस्थता से ग्रस्त हैं। जिन्हें पूर्णस्वस्थ कहा जा सके, उनके दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं। ईर्ष्या, द्वेष से जलती हुई मानसिकता ने घर-घर में श्मशान जैसे वीभत्स दृश्य उपस्थित कर दिए हैं। सहयोग तो स्वार्थ भर के लिए शेष रह गया है। उस आत्मीयता की अभिवृद्धि हो ही नहीं रही है, जिसके कारण एक और एक मिलकर ग्यारह बनने की उक्ति सार्थक होती है।

पिछली दो-तीन शताब्दियों में प्रगति के नाम पर जो कुछ सुविधा साधन बन पड़े हैं, उन्हें मोटी दृष्टि से देखने पर प्रतीत होता है कि धरती पर देवताओं न नया स्वर्ग लोक बसा लिया है। पाँच सौ वर्ष पुराने व्यक्ति कहीं जीवित हों और पुराने जमाने तथा आज के युग की वह आज तुलना करें, तो उसे इस प्रगतिशीलता पर आश्चर्य चकित होकर रहना पड़ेगा। किन्तु ऊपर की सुसज्जा वाली परत उघाड़ते ही जो अनुभव होता है, उसे नरक से भी गया गुजरा कहा जा सकता है। दृष्ट चिन्तन ने आचरण को भ्रष्ट करके रख दिया है। शालीनता का स्थान निष्ठुरता ने ग्रहण कर लिया हैं वासना, तृष्णा और अहंता की कभी न पूरी होने वाली खाई, को पाटने में लोग अहर्निश इस प्रकार लगे हैं, मानों कुबेर के साधन और इन्द्र के वैभव से उन्हें कम नहीं, अधिक ही चाहिए। इस व्यामोह के कुचक्र से मनुष्य इतने गहरे दलदल में धँसता ही चला गया है कि उबरने की बात सोचना तक संभव नहीं बन पड़ रहा है, फिर छुटकारा मिले भी तो कैसे?

बाहर से बन-इन कर निकलने की विडम्बना में भीतर ही भीतर मनुष्य कितना खोखला हो गया है, इसे देखकर आश्चर्य होता है। परिणाम सामने हैं समृद्धि भले ही बढ़ी हो, पर मनुष्य भीतर से इतना खोखला होता चला गया है मानों धुन समुदाय ने किसी खम्भे को पूरी तरह जराजीर्ण करके रख दिया हो और वह अब-तक धराशायी होने की बाट जोह रहा है।

वैभव का बाहुल्य और उद्विग्नता का विस्फोट साथ-साथ कैसे बैठे रह सकते हैं? यह लगता तो आश्चर्यजनक है, पर विश्लेषण इसी यथार्थता के निष्कर्ष पर पहुँचता है परिस्थितियों पर और भी अधिक ऊहापोह करने पर पता चलता है कि हम सब किसी महाअशुभ के महागर्त में गिरने जा रहे है। वैभव का दुरुपयोग प्रयोक्ता के लिए ही नहीं, सर्व साधारण के लिए भी विपत्ति लाता है। कला समृद्धि चतुरता, सम्पदा आदि के सभी पक्ष यदि नीतिमत्ता की राह छोड़ दें तो फिर ईश्वर ही मालिक है।

मनःस्थिति के गड़बड़ा जाने पर परिस्थितियों की विपन्नता स्वाभाविक है। जिधर से भी पर्दा उठाया जाता है, उधर ही चमकीले खोखले की आड़ में एक विषैला सर्प बैठा दीखता है। प्रगतिशीलता ने मनुष्य को जिस स्तर का बना दिया है, उसे देखते हुए लगता है कि वर्जनाओं का उदरस्थ करने से पूर्व निकटवर्तियों और समीपस्थों का भक्षण कर जाने की नीति अब अपवाद नहीं रही वरन् उसने सार्वजनिक प्रचलन की मान्यता प्राप्त कर ली है। इस बीच मानवी गरिमा की सत्ता को ढूँढ़ निकालना सुनिश्चित हो रहा है। जहाँ दीखता भी है वहाँ उपजने वाली आशा भीतरी छझ को देखकर निराशा में बदल जाती हैं।

दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन जाता है। उसने वर्तमान प्रगति के पक्षधर दर्शन, कौशल, स्वभाव, रुझान, प्रयास आदि को सहचर बना लिया है। ऐसी दिशा में अनर्थ का ही पोषण हुआ है। विकृत मानसिकता ने मो विपन्न परिस्थितियों को ही जन्म दिया हैं और विषधरों का एक अच्छा खासा समुदाय फन फैलाये हुए दसों दिशाओं में कोलाहल मचाता दिखता है। लगता है कि सब चलता रहा तो आदिमकाल से अबतक संचित की गयी मानवी संस्कृति और प्रगति का अन्त होकर रहेगा।

स्थिति से सभी विचारशील निश्चिन्त हो उसके हल खोजते भी हैं और सुझाते भी हैं, पर कार्यान्वयन का अवसर आते ही उसके लिए साहस का अन्त हो गया प्रतीत होता है। अभ्यस्त विचार ही स्वभाव में सम्मिलित हो कर एक से एक बड़े कौतूहल और कुकृत्य कर दिखते हैं। जो इस कुचक्र से बच रहे हो उनकी गणना अपवाद रूप में उंगलियों पर करनी पड़ेगी।

साधारण बुद्धि वैभव की चमकदार पिटारी में बैठे विनाश के महाविषधर का अभाव न पा सकें, यह संभव है। किन्तु उस मदारी को तो वास्तविकता का ज्ञान होना ही चाहिए, जिसके इशारे पर यह सब भला-बुरा विस्तार होता रहता है। स्रष्टा ने मनुष्य एवं इस धरती को अपनी सर्वोत्तम कलाकृति के रूप में बनाया है। मनुष्य की संरचना प्रायः उन्हीं तत्वों से की है जिसके द्वारा कि उसका अपना अस्तित्व विनिर्मित हुआ है। नियन्ता की इच्छा यही रही है कि बड़े अरमानों के साथ बनाई गई उसकी इस कलाकृति का विकास हो। वह न इस धरित्री का अन्त चाहता है और न उसे यह सुहाता है कि मनुष्य आत्म हत्या के मार्ग पर चलकर अपना विनाश अपने आप करले। इसलिए उसने इस आड़े वक्त में डूबती नाव को बचाने के लिए कुशल मल्लाह जैसा पराक्रम कर दिखाने का निश्चय किया है। “हारे को हरि नाम” ही एक मात्र सम्बल रह जाता है। गज और द्रौपदी जैसे अनेक उदाहरण भी इसके प्रमाण हैं। बालकों को कारण बनाने का कौतूहल अभिभावक एक सीमा तक ही देखते हैं। जब वे माचिस का खेल खेलने पर उतारू होते हैं तो उनकी इस हरकत को रोक भी दिया जाता है।


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