चिंता की चिता में जलते मन व उनका उपचार

October 1989

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पिछले कुछ सालों से मनोरोग बेतरह बढ़े हैं। इनकी बढ़ोत्तरी शारीरिक रोगों से भी अधिक है। जिस तरह पूरी तरह शारीरिक रूप से स्वस्थ कहें जा सकने वाले कम मिलेंगे। उसी भाँति पूरी तरह मानसिक रूप से ठीक व्यक्तियों की संख्या कम ही है। मन के ठीक न होने की स्थिति मनोरोग है। इसका मतलब हैं मन में गड़बड़ी और टूट-फूट।

क्रेंब्रिज विश्वविद्यालय के मनोरोग विशेषज्ञ डाँ. डेविड जान इग्लेबी ने अपनी पुस्तक “क्रिटिकल साइकियाट्री” में अमेरिका में मनो रोगियों की स्थिति को बताया है। उनके अनुसार एक ही वर्ष (1973) में बीस लाख हुआ। स्थित कम नहीं हुई। इसकी व्यापकता का अनुमान मानसिक चिकित्सा तन्त्र के बड़े आकार के आधार पर किया जा सकता है वहीं के “नेशनल इन्स्टीट्यूट आफ मेण्टल हेल्थ” ने इसका विस्तृत ब्योरा दिया है। इसके अनुसार पाँच लाख अट्ठानबे हजार नौ सौ तिरानवे सरकारी व एक लाख पैंसठ हजार गैर सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले डाक्टरों की संख्या क्रमशः पाँच लाख पैंसठ हजार छह सौ छियानवे और दो लाख चौदह हजार दो सौ चौसठ है।

इतनी बड़ी संख्या और व्यवस्था को आइंस्टीन कालेज ऑफ मेडिसिन साइकियाट्री के प्रोफेसर डा. जोल कावेल, अमेरिकन मानसिक स्वास्वास्थ्य उद्योग का नाम देते हैं। उनका इस विषय में कहना है कि इस व्यवसाय में लगे लोग तो धनवान हो गए। पर रोगियों की संख्या की घटने की जगह बढ़ती जा रही है। इसका एक मात्र कारण है-समस्या पर ठीक से विचार न करना।

सामान्य बुद्धि के लोग परिस्थितियों को ही सब कुछ मान लेते हैं। यह भूल जाते है कि मानने की शक्ति कितनी अद्भुत है। मामूली सी बात असह्य संकट के रूप में दिखना और सचमुच ही किसी बड़ी विपत्ति का आक्रमण मामूली विपरीतता भर लगना अपने चिन्तन की ही दो दिशाएँ हैं। पहली में पड़कर व्यक्ति अपना सन्तुलन गँवा बैठता है। झाड़ी का भूत बन जाना-रस्सी का साँप दिखाई देना, जैसी भ्रम की प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष हो जाती है। जबकि दूसरी के अनुरूप चिन्तन को सही रख सकना सम्भव हो सकता है। परिस्थितियों के साथ चिन्तन की सही संगति न बिठा सकने के कारण ही इतनी बड़ी संख्या में लोग मानसिक बीमारी से जकड़ते जा रहे हैं।

मानसिक बीमारियों से ग्रसित जिन्दगी का सहज आनन्द छिन जाता है। ऐसी स्थिति में वह सनकी, वहमी, शेखचिल्ली, उद्विग्न, असन्तुष्ट, आशंकाग्रस्त चिन्तित, निराश, भयभीत, उदासीन होता चला जाता है। उसका जीवन अपने लिए ही भार बन जाता है। उसके मन में ऐसे चक्रवात उठते रहते है, जो सोचने की स्वस्थ शैली को बुरी तरह तोड़-मरोड़ कर रख देते है। टूटी हुई मनःस्थिति में तथ्य को समझाना सम्भव नहीं रहता। कुछ के बदले कुछ समझना, कुछ करने की जगह कुछ करने लगना ऐसी ही विपत्ति हैं।

ऐसे मनुष्य अत्यधिक हताश रहते हैं। कभी एक तरह की गड़बड़ी करते हैं, कभी दूसरे तरह की। इन हरकतों को प्रेरणा देने वाली मनोवृत्ति को “एजीटेटेड डिप्रेसिव साइकोसिस’ कहा जाता है। न्यूरोटिक डिप्रेशन अथवा साइकोटिक डिप्रेशन एक अन्य स्थिति है। इसमें निराशा छायी रहती है, चित्त उदास रहता है। कुछ नया सोचने करने को जी नहीं चाहता। चुप चाप बैठे या पड़े रहना इनको पसन्द होता है मेनिकडिप्रेशन और एण्डोजेनिक डिप्रेशन की स्थिति में उतार-चढ़ाव आते है। कभी उत्तेजना कभी निष्क्रियता। कुछ दिन या कुछ समय वे सक्रिय दिखते हैं, किन्तु फिर ऐसा कुछ हो जाता है। कि जो किया था, उसे जहाँ का तहाँ छोड़कर फिर ठप हो जाते हैं।

अपने काम में लगातार गलती देखता और उसे सनक की तरह बार-बार दुहराना ‘आब्सेसिग कम्पलसिव न्यूरोसिस’ कहलाता है। बार-बार दाढ़ी बनाना और सोचना अभी भी बाल ठीक तरह नहीं साफ हुए। बार-बार झाडू लगाना और अनुभव करना गन्दगी अभी भी मौजूद है। बार-बार कपड़े, बर्तन आदि धोना घंटों नहाना और यह सोचते रहना कि काम पूरा नहीं हुआ, इसी रोग का लक्षण है। ऐसे में रोगी की स्थिति बड़ी उपहासास्पद हो जाती है।

यह तो कुछ सामान्य रोगों की बात हुई। इसके अलावा जटिल रोगों की बड़ी सूची है। सरकारी मानसिक अस्पतालों में प्रायः पागल ही पहुँचते है। गहरी उदासी, मानसिक तनाव, आदि रोगों से पीड़ित इक्के-दुक्के ही जाते हैं। इसके हल्के स्तर की विक्षिप्तता न तो उपचार के लायक समझी जाती है और न ही उसकी हानि का लेखा जोखा किया जाता है। तलाश किया जाय तो जनसंख्या में से आधे आदमी विक्षिप्तता के नजदीक की स्थिति ही में पाए जाएँगे। कितने ही शारीरिक समझे जाने वाले रोग भी मानसिक होते हैं। डाक्टर उन्हें अपनी जाँच-पड़ताल के आधार पर निरोग बताते हैं पर बीमार का कष्ट ऐसा होता है, जिससे वह गलता-घुलता चला जाता है।

अमेरिकन मनोरोग विशेषज्ञ जोल-कावेल के अनुसार मानसिक चिकित्सक इन रोगों का सामयिक निदान तो कर सकते हैं, पर स्थाई निदान के लिए व्यक्ति को स्वयं जागरूक होना होगा। होता यह है कि डाक्टर कुछ दवाइयों अथवा किन्हीं तकनीकों के आधार पर कारण को अवचेतन में दबा देते हैं, पर जैसे ही परिस्थितियों से उद्दीपन मिलता है, व्यक्ति फिर रोगी बीमार हो जाता है।

मानसिक रोग विशेषज्ञ एरिक फ्राँम का “मैन फार हिमसेल्फ” में मानना है कि इन रोगों की जड़े चिन्तन में समायी हैं। इसी को सँवारना होगा। अभी हम सोचते हैं कि किसे कब-कब क्या क्या दुर्व्यवहार हमारे साथ किया? अब तक कितनी बार असफलताएँ मिलीं कितनी हानियाँ उठानी पड़ी? सामान्यतया हमारी सोच इसी सबका लेखा जोखा करती रहती है। इसकी जगह यह सोचना चाहिए कि अपने पास जो भी है, पर्याप्त है। समय-समय पर जिनसे सहयोग सहायता मिली है, उस पर विचार करना चाहिए। इसके साथ ही यह अनुभव करना चाहिए कि हमारे पास शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमता काफी मात्रा में है। इनका सुनियोजन सभी परेशानियों को दूर कर सकता हैं।

विक्टोर पेकेलिस “रियलाइज योर पोटोन्शियल” नामक पुस्तक में एक उपाय बतलाते हैं- वह है किसी रचनात्मक लक्ष्य का निर्धारण। उनके अनुसार इसे व्यापक और आदर्श होना चाहिए। इस तरह का उद्देश्य निर्धारित करने से मानसिक टूटन खत्म होती हैं। विखरता मन धीरे-धीरे सिमट जाता है। यही नहीं उसे सामूहिक मन से अतिरिक्त ऊर्जा शक्ति भी मिलती है।

उन्होंने टालस्टाय टैगोर आदि महापुरुषों का उदाहरण देते हुए समझाया है कि इस प्रकार के लोगों ने अपने मन को ऐसे ही आदर्श में तन्मय कर दिया था। परिणाम स्वरूप उनका चिन्तन संवारा। साथ ही मनोरोगी होने की जगह स्वस्थ और सबल हुआ। विक्टोर का मानना है कि मन को आदर्श में न तन्मय करने से चिन्तन को एक जगह रोक पाना कठिन है। सही दिशा-धारा न होने से विकृतियों का घुसना स्वाभाविक है। इन्हीं का परिणाम मनोरोग है। अतएव इनसे बचने के लिए उपरोक्त तरीका ही अच्छा है। इसको अपना कर मन को स्वस्थ व शक्ति सम्पन्न बनाया जा सकता है।


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