सौंदर्य का सच्चा मापदण्ड

October 1989

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कुटिलता विजातीय द्रव्य है। उसे आत्मा सहज ही आत्मसात् नहीं करती। किसी प्रकार देह भीतर पहुँचाई जाय तो उसे वमन विरेचन आदि उपायों द्वारा निकाल बाहर करने की चेष्टा करती है।

मनुष्य स्वभाव सज्जनोचित, सौम्य, स्नेहिल एवं उदार बनाया गया है। उसमें मधुरता और मृदुलता की मात्रा अधिक है। यही है उसकी विशिष्ट मानसिक सम्पदा जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य अपने मित्र सहयोगी बढ़ाता है। सद्व्यवहार का द्वार खोलता है और उत्साह पूर्वक जीवन बिताता है।

जिसके स्वभाव में कुटिलता, धूर्तता, अनाचार एवं उद्दण्डता का समावेश जितनी अधिक मात्रा में है वह उतनी ही मात्रा में विक्षुब्ध रहेगा और उसका प्रदर्शन शरीर के अंग अवयवों पर उभरता हुआ दीख पड़ेगा। इन विकृतियों से लदा हुआ कोई श्वेत वर्ण व्यक्ति नखशिख से आकर्षक होते हुए भी गंभीरता पूर्वक देखने से स्पष्ट ही कुरूप दीख पड़ेगा।

सुन्दरता की मोटी पहचान है-किसी की त्वचा सफेद होना। मांसपेशियों में मजबूती रहना, आँखें बड़ती, दाँत साफ होना, नखशिख सुन्दर होना। आरंभिक दर्शन और परिचय में किसी के रूप की सुन्दरता इतने ही लक्षणों से समझ ली जानी हैं पर यह भौंड़ी पहचान है। किसी क्षेत्र के लोगों की बनावट एक प्रकार की होती है दूसरे क्षेत्र वालों की दूसरी तरह की। चमड़ी या बनावट देश कर सुन्दरता-असुन्दरता का आकलन नहीं किया जा सकता कई काले दुबले भी इतने सुन्दर होते हैं कि उन्हें हर घड़ी देखते रहने को ही मन करता है और कई मोटी दृष्टि से सुन्दर लगने पर भी ऐसा लगता है जिनके पास बैठने, उनसे बात करने को भी मन नहीं करता। वरन् उलटे डर लगता है और मन कतर है कि जितनी जल्दी संपर्क टूटे उतना ही अच्छा है।

इस विसंगति का एक ही कारण है कि मनुष्य की मानसिकता भी उसके अवयवों पर विशेषतया चेहरे पर उभर आते है और वह दर्शक के अन्तराल तक अपना प्रभाव छोड़ती है।

चेहरा ऐसा विशेष अंग है जिस पर मानसिकता बहुत अंशों तक छाई रहती है। जिसमें सहज सौजन्य है जो चरित्र निष्ठा के प्रति आस्थावान हैं। जिनके मन में शुभेच्छा और सद्भावना का उभार है, उनके यह गुण चेहरे के विभिन्न अंगों द्वारा सहज छलकते हैं। उनके चिंतन में मुसकराहट में एक दिव्य कोमलता उभरी रहती है। वाणी में आत्मीयता की इतनी मिठास रहती है जिस पर गायकों का आलाप निछावर किया जा सके। इच्छा होती है, इस सौजन्य के प्रति श्रद्धा समर्पित करने की। इसके विपरीत जिनके भीतर कुटिलता भरी रहती है वे ठगों और बहुरूपियों की तरह बाहर से भले ही सब्जबाग दिखाते रहें पर भीतर जो ठगने की शोषण और विश्वासघात करने की कुटिलता भरी रहती है वह छिपाने पर भी छिपती नहीं। आँखें मनुष्य के अन्तराल का दर्पण है। उन्हें बारीकी से देखा जाय तो यह पता चल सकता है कि असलियत क्या है?

दर्शनीय आवेश एक सम्मोहन है जो चातुर्य जंजाल में फँसाकर ठग सकता है किन्तु सामने वाले के अंदर ऐसा प्रेम और विश्वास उत्पन्न नहीं कर सकता जिससे मित्रता और घनिष्टता न केवल उत्पन्न होती है, निभती है वरन् अपनी उत्कृष्टता के कारण अनेकों का उच्चस्तरीय मार्गदर्शन भी करती है।


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