आ रहा है अध्यात्म प्रधान युग।

October 1989

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मनुष्य कैसा था? क्या बन गया? और क्या बनने जा रहा है? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए चिरकाल से ऊहापोह चल रही है। स्वर्ग से आदम हव्वा धरती पर धकेल दिए गए और उन्होंने यहाँ आकर जो सन्तानें उत्पन्न की वे मनुष्य बन गई। ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पन्न की और उसी समय श्रेष्ठ प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजा। इन आख्यानों से मानवी बुद्धि सन्तुष्ट नहीं होती। खोज बीन करने वाला वैज्ञानिक मन इस संदर्भ में तर्क व प्रमाणों को आधार मान कर खोजें करता रहा है।

मानवीय विकास के कालक्रम के अनुरूप उसकी सभ्यता का स्वरूप देखने पर स्पष्ट होता है कि प्रारम्भिक स्तर में मानव शरीर की दृष्टि से तो विशालकाय था पर कल्पना व विचारणा की दृष्टि से मन्द था। इस समय प्रधानता भी शरीर बल की थी। परिवर्धित प्राण सुपुष्ट शरीर ही विकसित होने की पहचान थी। पी.बिर मैन “मोर आँन ह्यूमन इवाल्यूशन” में कहते हैं। कि इस काल में शारीरिक वीरता ही सर्वश्रेष्ठ गुण था। आवश्यकता भी इसी की थी। मनुष्य को शरीर बल के सहारे ही सिंह व्याघ्र तथा अन्य इन्हीं जैसे हिंसक प्राणियों से लड़ना। एम. स्टैनफार्ड ने “लिग्विस्टिक एन एना लिटिकल अप्रोच” में वरच्यू शब्द की उत्पत्ति “विर” से बताई है जो संस्कृत के वीर शब्द से बना है। इसके विश्लेषण में उनका कहना है सभ्यता के उदय काल में वीरता का स्थान सर्वोपरि था। शरीरबल की ही प्रधानता हैं। प्रतिभा पुरुषार्थ का यही अकेला क्षेत्र था।

इसके बाद मानसिक संकल्पा व भावना का उदय हुआ। प्रकृति का सिद्धान्त है जिस तत्व की उपयोगिता समझी जाएगी आवश्यकता अनुभव की जाएगी और प्रयोग में लाई जाएगी वह बढ़ेगी और प्रयोग में लाई जाएगी वह बढ़ेगी, मजबूत होगी। मनुष्य के सम्बन्ध में यही हुआ। मनुष्य के सम्बन्ध में यही हुआ। शारीरिक बल को गौण चिन्तन को श्रेष्ठ माना जाने लगा। भावनाएँ उदय हुई। परिवार व्यवस्था पनपी, समाज सुसंगठित हुआ। इसी समय प्रथम काव्य मुखरित हुआ वेदों की ऋचाएँ गूंजी। यह था धरती का प्रथम सतयुग, अथवा यों कहें भावनामय युग। आत्मीयता इसी युग में पहले पहल पनपी। समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए शासन व्यवस्था सृजी गई। कर्तव्य कर्म की मीमाँसाएँ हुई। स्मृतियाँ प्रकाश में आयीं।

के.एन.राघवन ने “इण्डियन कल्चर एजेंस” में इसी मत का प्रतिपादन किया है। मन का विकास होने पर शरीर कहीं चला गया हो ऐसा नहीं, उसका अस्तित्व बरकरार रहा पर आवश्यकतानुरूप। एक चीज अवश्य घटित हुई शरीर को मन का अनुगामी बनना पड़ा पहले जहाँ शारीरिक शक्तियों का ही गुणगान होता था अब मानसिक शक्तियों का वर्चस्व स्वीकारा गया। सुव्यवस्था आत्मीयता व भावना से ओत-प्रोत वातावरण की दृष्टि से उस सतयुग को अभी भी सराहा जाता है।

इस विकास के आयाम में एक नया आयाम आया-बौद्धिक विकास का इस काल में तरह तरह के अन्वेषण हुए। सभ्यता ने नया रूप लिया। काव्य के स्थान पर विज्ञान प्रकाश में आया। भावना के स्थान पर बुद्धि का वर्चस्व हुआ। पुरानी मान्यताएँ टूटीं, नए आधार गढ़े गए। ऐसा लगने लगा कि पुराना सतयुग ढह गया। कुछ ने इसे घोर अनर्थ कहा अब क्या होगा? बुद्धि अपने रंग बिरंगे रूपों में सामने आयी। भावना-मय युग की मान्यताएँ एक-एक करके अस्वीकृत होने लगीं यही है वह काल जिसे हम वर्तमान कह सकते हैं और जिसमें हम जी रहे हैं।

आज की स्थिति भले हमें कष्ट प्रद लगे, दयनीय प्रतीत हो। पर वास्तविकता कुछ और है जिन्हें पहले के दिव्यदर्शी ऋषियों ने जिन्होंने मानवीय चेतना के आयामों को जाना था उल्लेख किया है। भगवान कृष्ण गीता में स्पष्ट करते है “मनसस्तु परा बुद्धे” अर्थात् मनके बाद बुद्धि। तो यह समय भी अपने विकास का अनिवार्य चरण है, इसे आना ही था। किन्तु यह अन्तिम नहीं है। यह तो केवल बीच की एक कड़ी भर है।

अब प्रश्न यह बचता है कि क्या बनने जा रहा है मनुष्य? इसका उत्तर बहुत आसान है। गीता की भाषा में कहे-बुद्धे परवस्तु सः अर्थात् बौद्धिक सभ्यता के बाद आध्यात्मिक सभ्यता। यह आध्यात्मिक सभ्यता शब्द बिलकुल नवीन है। पिछले सतयुग में अथवा वर्तमान तक व्यक्ति आध्यात्मिक हुआ करते थे। सभ्यता अध्यात्मिक हुई हो, ऐसा कभी सुना नहीं गया और सुना नहीं जा सकता था। शारीरिक प्राणिक युग में कोई अध्यात्म का नाम क नहीं जानता था। भावनामय युग अथवा सतयुग में व्यक्ति आध्यात्मिक हुए। व्यक्ति को आध्यात्मिक बनाने के लिए तरह तरह की प्रणालियाँ खोजी गई। जिनका अवलम्बन करके व्यक्ति आध्यात्मिक हो सकता था। पर पूरा समाज आध्यात्मिक हो यह अभी तक के मानव के लिए नयी बात है पर है सत्य।

श्री अरविंद “लाइफ डिवाइन” में भावी युग अथवा अध्यात्म युग का वर्णन करते हुए कहते हैं। कि यह सतयुग पिछले से मिला होगा। इन्हीं मनुष्यों में से एक जीवन प्रजाति जन्म लेगी। एक ऐसी प्रजाति जो अभी से पूर्णतया भिन्न होगी। यह भिन्नता शक्ल सूरत की दृष्टि से नहीं अपितु आचार व्यवहार सामाजिक संरचना की दृष्टि से होगी। फिर मनुष्य की बुद्धि, मन व शरीर का क्या होगा? इस प्रश्न के उत्तर में वह कहते हैं कि ऐसा नहीं होगा कि मनुष्य इन सबसे विहीन हो पिछले युगों में भी ऐ नहीं हुआ।

मन का विकास होने पर शरीर लुप्त नहीं हुआ। वरन् उसे भनक, अनुगामी बनना पड़ा। बुद्धि के विकास पर मानव शरीर लुप्त नहीं हुए। पर उनकी क्रिया विधि में व्यापक फेर बदल हुई। इस स्थिति में बरबस बुद्धि आज्ञाकारिता स्वीकारनी पड़ी। मन व शरीर दोनों बुद्धि के सेवक हो गए। अब बारी बुद्धि के सेवक बनने की है। उसे आत्मा का सेवक बनना होगा। मन व शरीर भी इसी का अनुगमन करेंगे। दूसरे शब्दों में इसे यह भी कह सकते हैं कि समूची मानवी सत्ता आत्मा की अनुगामिनी बनेगी। यह स्थिति किसी अकेले व्यक्ति की नहीं वरन् पूरे समाज की होगी।

डाँ. राधाकृष्णन “आइडियालिस्टिक व्यू आफ लाइफ” में कहते हैं कि “अध्यात्म के सम्बन्ध में लोगों की मान्यताएँ भ्रमात्मक हैं। वस्तुतः अध्यात्म कोई अजूबा न होकर एक जीवन दृष्टि है। जिसके अनुसार जीवन जीने का अर्थ है सबमें अपनत्व। भावी युग में मानवीय जीवन का व्यवहार केन्द्र बिन्दु यही रहेगा। सहयोग-सहकार, प्रेम-स्नेह सहृदयता के रूप में मानसिक गुण बुद्धि के गुणों में विवेक, परिष्कृत विचारणा,परख चिन्तनशीलता किसी व्यक्ति तक सीमित न रह कर समूचे समाज सारी सभ्यता को आप्लावित कर लेंगे। उन्हीं को स्वाभाविक मानकर जीना पड़ेगा। यद्यपि प्रवाह से कोई बचेगा नहीं। किन्तु बच निकलने की कोशिश वाले उसी तरह पिछड़ गया। भावी युग के मनुष्य की तुलना में अजा का अनगढ़ मानव कुछ इसी प्रकार का होगा।

इस आध्यात्मिक सभ्यता का प्रसव काल पूरा होने को है। अच्छा यही है कि हम भी भावी युग के अनुरूप गुणों को अपने में तेती से विकसित करें ताकि हमें पिछड़ना व चिरकाल के लिए पछताना न पड़े।


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