सूझबूझ ने खोला समृद्धि का द्वार!

October 1989

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इंग्लैण्ड का जान फौस्टर नामक युवक लिवरपूल् का रहने वाला था। बेरोजगार होने के कारण बहुत तंगी में दिन काट रहा था। एक दिन वह विचारमग्न बैठा इस उधेड़बुन में पड़ा था कि इस आर्थिक तंगी की स्थिति से कैसे निपटा जाय? क्या युक्ति अपनायी जाय, जिससे दुर्भाग्य के यह दिन दूर हों? वह यह सब सोच रहा था और हाथ में पत्नी की हेयरपिन लिए निरुद्देश्य मोड़-मरोड़ रहा था। पत्नी आयी, तो वही पिन बालों में लगा कर एक पार्टी में चली गई। वहाँ उसने थोड़ी देर डांस भी किया। पार्टी समाप्त हुई तो पति पत्नी दोनों वापस घर लौट आये। पत्नी ने थोड़ी देर बाद जब अपना सिर टटोला तो उसकी आश्चर्य की सीमा न रही, जब उसने देखा कि उस टेढ़ी पिन को छोड़ कर अन्य सारी पिनें गिर कर कहीं खो गई थीं। यह बाज जब उसने पति को बतायी, ता वह खुशी से उछल पड़ा। उसे गरीबी से पिण्ड छुड़ाने का उत्तम उपाय मिल गया था। इससे पूर्व जो पिनें बनती थीं। वह सीधी होती थीं। फलतः बालों से फिसल कर तुरंत गिर पड़ती थीं। इसे बनाने वाली कम्पनी को भी लम्बे समय से कोई ऐसी नई डिजाइन की पिन की तलाश थी, जो झटके के बावजूद वालों में फँसी रह सकें, गिरे नहीं। यह उपयुक्त अवसर देख आर्मस्ट्राँग ने अपनी इस पिन को पेटेण्ट करा लिया, जिसे बाद में कम्पनी ने 40 लाख पौण्ड की विशाल राशि देकर खरीद लिया और इस प्रकार उसकी तंगी सदा-सदा के लिए समाप्त हो गई।

इसे मानवी सूझबूझ कहें, अंदर से उठने वाली प्रेरणा अथवा केवल संयोग। किन्तु बहुधा ऐसा होता देखा गया है कि महत्वपूर्ण खोजें इसी आधार पर हुई और ऐसा करने वाले देखते धनवान बन गए।

कभी-कभी एकाकी उलझन भरी परिस्थिति में व्यक्ति में ऐसी सूझ उत्पन्न कर देती है, जो अनजाने ही उसके लिए भाग्योदय साबित होती है। यही स्थिति जेम्स मिचनर नामक एक अमरीकी नागरिक के साथ गुजरी। द्वितीय विश्व युद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका में वह एक नौसैनिक अधिकारी था। एक बार सुरक्षा की दृष्टि से वह प्रशान्त महासागर में अपनी मोटरबोट में घूम रहा था। तभी उस क्षेत्र में उसे एक छोटा द्वीप दिखाई पड़ा। उसकी इच्छा उस द्वीप को देखने की हुई और इसी उद्देश्य से वह वहाँ पहुँचा, किन्तु अन्ततः भटक गया और लम्बे समय तक वहाँ से बाहर न आ सका। वह टापू बिलकुल निर्जन था। उसकी फौजी जिन्दगी की व्यस्तता और श्रमशीलता समय के खालीपन में आड़े आ रही थी। बहुत सोच−विचार कर उसने एक निश्चय किया कि क्यों न कुछ लिखा जाय। अपने सैन्य जीवन में उसने जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, उसे कहानियों के कथानक के रूप में अपनी मोटरबोट में मौजूद पोर्टेबल टाइपराइटर में उतारना आरंभ कर दिया। बाद में यही उसकी प्रथम पुस्तिका “टेल्स ऑफ दि साउथ पैसेफिक” के नाम से प्रख्यात हुई। अपनी पाण्डुलिपि लेकर वह वापस बाहर आने व अपने शहर पहुँचने में सफल हुआ। अपनी इस कृति पर उसे पत्रकारिता का सर्वोच्च पुलिट्जर पुरस्कार मिला इसके बाद उसकी लेखन प्रतिभा विकसित होती गयी व वह सम्पन्न बन गया।

प्रतिभा के बीजाँकुर चाहें जिस रूप में विकसित हों, व्यक्ति को निहाल कर देते हैं। यदि भौतिक प्रगति व समृद्धि ही अभीष्ट हो तो वह भी निश्चित ही मिलकर रहती है।


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