भविष्य इस प्रकार का उभरेगा

October 1989

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समतल भूमि पर मध्यम चाल से चलता हुआ मनुष्य मंजिल पार करने में आवश्यक समय तो लगा लेता है पर यात्रा बिना थकान वाली और सुरक्षित रहती है। यदि वह नीचे खाई खन्दक में गिरने पर उतारू हो, मिनटों में लुढ़कता लुढ़कता सैंकड़ों गज गहरे खड्ड की गहराई में पहुँच सकता है। मध्यम चाल स्वाभाविक है और बेतहाशा दौड़ अस्वाभाविक। ऐसी गति अपनाने वालों की थोड़ी ही देर में साँस फूलने लगती है और थक कर चूर हो जाते हैं। समय चक्र के संबंध में भी यही बात है, उसे क्रमबद्ध रूप से पार करना ही हितकर हैं।

पिछली कुछ शताब्दियों में प्रगति के नाम पर हर क्षेत्र में भारी छलांगें लगाई गई हैं। आरंभ में उस आधार पर बड़ी सफलता का भले ही अनुमान लगाया गया हो पर समय बीतते बीतते परिणाम सामने आ गये और अतिवाद अपनाने की प्रतिक्रिया सामने आ उपस्थित होने लगी।

जब बारूद का आविष्कार नहीं हुआ था तब थोड़े युद्ध होते रहते थे और उनका फैसला भी जल्दी ही हो जाता था। बारूद का परिष्कृत स्वरूप डाइनामाइट जब युद्ध प्रयोजनों में प्रयुक्त होने लगा तो द्वितीय विश्व युद्ध और तृतीय विश्वयुद्ध की विभीषिका ने विकराल रूप धारण कर लिया। असीम धन जन की हानि हुई। भीमकाय कारखानों का उत्पादन खपाने के लिए उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद के विस्तार का सिलसिला चल पड़ा और संसार भर में तनाव का, पिछड़ेपन का, अनाचार का बोलबाला दीख पड़ने लगा। वायु, जल, भूमि, आकाश, पाताल ऐसे प्रदूषण से भरने लगे जो अनंतः प्राणी समुदाय के लिए प्राणनाशक ही हो सकता था। ऊर्जा का अविराम उपयोग तापमान बढ़ाता जा रहा हैं उसके आधार पर हिमखंड पिघल पड़ने समुद्र में बाढ़ आने, हिमयुग लौट पड़ने, आकाश का “ओजोन” रक्षा कवच फट जाने जैसे अनेकों संकट अपनी पूर्व-सूचना देने लगे। यह समस्त कुचक्र तथा कथित प्रगतिशीलता की धुरी से बँधे हैं। इनका विस्तार पिछली कुछ ही शताब्दियों में हुआ है, कारण कि वैज्ञानिक आविष्कारों और उनके मनमाने उपयोग की धमा-चौकड़ी इसी बीच मची है।

समय के पर्यवेक्षकों से लेकर सामान्य बुद्धिवाले तक को यह अनुभव होता है कि तथाकथित प्रगति का उद्धत उपयोग नशा पीने की तरह अवाँछनीयता अपनाने में हुआ है। फलतः शारीरिक अस्वस्थता, मानसिक उद्विग्नता, आर्थिक अभावग्रस्तता, पारिवारिक अन्यमनस्कता और सामाजिक क्षेत्र में उद्दण्डता की बेहतर अभिवृद्धि हो चली है। फलतः जिस ओर भी नजर उठाकर देखा जाता है वर्तमान और भविष्य विपत्तियों से घिरा हुआ ही दीखता है। लगता है कि यही स्थिति देर तक चलती रही तो महाविनाश ही हाथ रह जायेगा।

स्मरण रखने योग्य यह तथ्य है कि इस सुन्दर सृष्टि का नियन्ता कोई असाधारण दूरदर्शी है वह मनुष्य को एक सीमा तक उद्दंडता अपनाने की भी छूट देता है ताकि उसके दुष्परिणामों को देखते हुए अपनी समझ से आवश्यक सुधार परिवर्तन कर सके, पर जब सभी मर्यादायें तोड़ फेंकी जाती हैं तो सुधारने के लिए वही शक्ति हस्तक्षेप करती हैं जिसने असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए शपथपूर्वक वचन दिया हुआ है।

अगले दिनों यही होने जा रहा है। निकट भविष्य में एक ऐसा तूफान आ रहा है जो अनौचित्य के स्थान पर औचित्य की स्थापना कर सके। उलटों का उलट कर सीधा कर सकें।

यह भूल सुधार की बेला है। से प्रायश्चित्त के लिए पड़ने वाला दबाव भी कह सकते हैं, अपनायी गयी अवांछनीयता को छोड़ने के लिए बाधित करने वाला प्रतिकार भी।

प्रस्तुत विकृतियों में से प्रत्येक को पतन की दिशा छोड़कर उत्थान का मार्ग अपनाना होगा। ध्वंस के निमित्त लगी हुई शक्ति का सृजन के लिए नये सिरे से निर्धारण करना होगा। इस परिवर्तन की व्यापक प्रक्रिया को समय का परिवर्तन या युग परिवर्तन कहा जा सकता है। त्रेता में रामराज्य के रूप में सतयुग की वापसी संभव हुई थी। द्वापर में अवांछनीय बिखराव को समेट कर सुव्यवस्थित विशाल भारत की संरचना हुई थी और सुख-शान्ति का समय फिर वापस लौटा था। इन दिनों भी प्रायः उसी की पुनरावृत्ति होने जा रही है। सूर्य सदा अस्त की नहीं रहता। डरावनी और असुविधाओं से भरी रात अनन्त नहीं है, उसका समापन होकर ही रहता हैं प्रभात का अरुणोदय भी अपने समय पर उगकर रहता है। इन दिनों इसी स्तर की संधिवेला है ऊषाकाल की लालिमा को उभरते और ऊँची उठने का आभास नहीं क्षणों में पूर्वांचल को शायमान करते देखा जा सकता है।

परिवर्तन की बेला में सर्वप्रथम आबादी घटाने की आवश्यकता पड़ेगी। अन्यथा प्रगति प्रयास कितने ही बड़-चढ़े क्यों न हों वे आवश्यकता कि तुलना में क्रम ही पड़ते जायेंगे। पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में वे आपस में ही लड़ मर कर महाविनाश के गर्त में गिरेंगे। तरीके जो भी अपनाये जाँय आबादी को नियंत्रित किये बिना कोई गति नहीं। समस्याओं का कहीं समाधान नहीं। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संयम बचाव आदि जिससे जो बन पड़े उसे यह सीखना और सिखाया जाना चाहिए कि शान्ति और प्रगति का समय-वास लाने के लिए प्रजनन को जिस प्रकार भी बन पड़े निरुत्साहित किया जाना चाहिए।

अगले दिनों भीमकाय कारखाने छोटे कुटी उद्योगों का रूप अपना कर गाँव कस्बों में बिखर जायेंगे। तभी प्रदूषण रुकेगा और तभी हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी मिलने का सुयोग बनेगा।

हर किसी औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार करना पड़ेगा। अन्यथा विलास, दर्प, अपव्यय, प्रदर्शन की अहंकारिता के लिए नीति और अनीति से बहुत जोड़ने, जमा करने और खर्चने की हविस में जिन्दगियाँ खप जायेंगी। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त व्यवहार में उतरने पर ही यह संभव होगा कि ऊँचे टीले नीचे झुकें और नीचे खाई खन्दकों को भर कर समतल का सृजन करें। कृषि उद्यान और हरे मैदान और नगर, उद्योग आदि ऐसी ही भूमि की तो अपेक्षा करते हैं। अमीरों और गरीबों की बीच की दीवार टूटते टूटते वे विसंगतियाँ भी मिटेंगी जिनके कारण जाति वंश के लिंग भेद के मनुष्य-मनुष्य के बीच भारी असमानता दीख पड़ रही है।

आधी आबादी नारी के रूप में मुद्दतों से क्रीत-दासी की तरह बँधुआ मजदूरों जैसा परावलम्बी जीवन जीती रही हैं। अगले दिनों वह पूर्व मानवाधिकार सम्पन्न स्तर को उपलब्ध कर सकेगी। इसका शुभारंभ तो सूर्योदय के देश जापान से हो ही चुका है। एशिया, चीन, इजराइल, बुल्गारिया आदि में उसे पहले से ही अधिकार प्राप्त है। यदि यह हो गया तो कमाऊ हाथ दूने हो जायेंगे और किसी को किसी पर लदने और किसी को किसी का भार वहन करने की आवश्यकता न पड़ेगी सभी एकता की स्थिति में रहते हुए स्नेह सहयोग का रसास्वादन कर सकेंगे। प्रगति भी देखते देखते दूनी हो चलेगी।

भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय, प्रचलन की विभिन्नता ने सार्वभौम एकता में भारी व्यवधान खड़ा कर रखा है। अगले दिनों सभी विश्व नागरिक होंगे। विश्व मानव के रूप में विकसित हुए सार्वभौम सभ्यता की छत्र छाया में ही मनुष्य हिल मिल कर रह सकेंगे। मिल बाँट कर खाते हुए हँसती हँसाती जिन्दगी जी सकेंगे।

युग की आवश्यकता के अनुरूप नागरिक और वातावरण विनिर्मित करने वाली शिक्षा एवं साहित्य का नये सिरे से निर्माण होगा। उसमें प्रभावित हुए बिना मनुष्य समाज का एक भी सदस्य बाकी न रहेगा। विद्यालयों के समकक्ष ही पुस्तकालयों का भी महत्व होगा। अध्यापकों की तरह साहित्य सृजेता भी जन मानस को उच्च स्तरीय बनाने में समान योगदान देंगे।

प्रत्येक क्रिया-कलाप में सहकारिता आधारभूत व्यवस्था बनेगी। परिवार स्तर की निर्वाह पद्धति हर कहीं अपनाई जायगी। उद्योग मनोरंजन, उपभोग, विनिमय आदि में सहकारिता को अधिकाधिक स्थान दिया जायेगा। कोई अपने को एकाकी अनुभव न करेगा, ‘हम सब के-सब हमारे’ का मंत्र हर किसी के मन मानस में गूँजता रहेगा। इसी आधार पर वर्तमान का अनावरण तथा भविष्य का निर्धारण ढल कर रहेगा।

शासन को लोक जीवन में कम से कम हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ेगी। उसका वजन पंचायती और स्वेच्छा सेवी संस्थाएँ सहकारी समितियाँ पूरा कर देगी। अवाँछनीय तत्वों का नियंत्रण और प्रगति का संतुलित मार्ग दर्शन ही उसका प्रमुख कार्य रह जायेगा। चुनाव की पद्धति अति सरल और बिना खर्च वाली होगी। मौलिक अधिकारों के नाम पर किसी को असामाजिक कार्य करने की छूट न मिलेगी। दुर्बलों का न्याय मिलना कठिन न होगा। क्योंकि यथार्थता जाँचने की जिम्मेदारी पूरी तरह शासन संस्था वहन करेगी अनुशासन को सर्वत्र मान्यता मिलने से भ्रष्टाचार की गुंजाइश न अफसर के लिए रहेगी न जन साधारण के लिए।

वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, आर्चीटेक्ट, मनीषी, साहित्यकार, कलाकार जैसी प्रतिभाएँ सार्वजनिक सम्पत्ति बन कर रहेंगी। वे अपनी विशेष योग्यता का विशेष मूल्य माँगने का दुस्साहस न करेंगी, कारण कि उन्हें अधिक समर्थ सुयोग्य बनाने में वर्तमान समाज एवं चिरकालीन संचित ज्ञान-सम्पदा का भी तो भरपूर लाभ मिलेगा। अकेला रह कर तो कोई व्यक्ति वन मानुष य नर वानर से अधिक कुछ बन ही नहीं सकता। जिसे अधिक मिला है उसे लोक सेवा का अधिक श्रेय लेकर ही संतोष करना चाहिए।

व्यक्ति को समाज का एक अविच्छिन्न घटक बन कर रहना होगा। मर्यादाओं का पालन और सवर्जनाओं का अनुशासन शिरोधार्य करना होगा। उच्छृंखलता बरतने का न कोई प्रयास करेगा और न समुदाय उसे वैसा करने देना सहन करेगा। अपना सुख बाँटना और दूसरों का दुख बँटाना। सही रहना और सही रहने देना इसी में जियो और जीने दो का सिद्धान्त पलता हैं मानवी गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने में ही मनुष्य का गौरव, सम्मान एवं स्तर बनता है। यह मान्यता अगले दिनों हर किसी को सच्चे मन से अपनानी होगी।

इन सिद्धान्तों का कहाँ किस प्रकार कौन कैसे क्रियान्वयन करेगा? यह परिस्थितियों पर निर्भर रहेगा समस्त संसार में उच्च सिद्धान्त तो एक तरह अपनाये जा सकते हैं, पर उनके क्रियान्वयन में समयानुसार ही निर्धारण हो सकता है। इसलिए क्रिया कलापों की अपनी अपनी स्थिति के अनुरूप ही व्यवस्था बन सकती है। यह सुनिश्चित है कि भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल एवं सुखद संभावनाओं से भरा पूरा होगा।


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