नींव का पत्थर बनूँ मैं!

October 1989

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बात सन् 1937 की हैं। खादी ग्रामोद्योग संघ के अनुभवी लोकसेवी कार्यकर्ता री कृष्णदास जाजू को महात्मा गाँधी ने किसी महत्वपूर्ण विषय पर वार्ता करने के लिए सेवा ग्राम बुलाया। जाजू जी सगये कि खादी ग्रामोद्योग या अनय किसी रचनात्मक कार्यक्रम के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक विचार विमर्श या निर्देश देने होंगे बापू को। किन्तु बात दूसरी ही थी।

मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा.खरे ने कांग्रेस हाई कमान से बिना पूछ अँग्रेज गवर्नर की सलाह से अपने मंत्री मण्डल में परिवर्तन कर लिया था। उनकी यह सूझ-बूझ उन सहित कांग्रेस की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचने वाली थी। अतः उन्हें अपनी भूल स्वीकार करते हुए मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र देना पड़ा। सरदार पटेल उनके स्थान पर जाजू जी को मुख्य मंत्री बनाना चाहते थे। पर वे जानते थे कि वह इस पचड़े में पड़ना स्वीकार नहीं करेंगे। अतः उन्होंने गाँधी जी से उन्हें इसके लिए तैयार करने को कहा।

बापू के मुख से मध्य प्रदेश का मुख्य मंत्री बनने के आग्रह की यह अनपेक्षित बात सुनकर वे हतप्रभ हो गए। गाँधीजी की आशा के विपरीत उन्होंने अपनी असमर्थता जाहिर की, साथ ही बोले बापू जी मैं तो कांग्रेस का सदस्य तक नहीं हूँ फिर यह कैसे सम्भव है कि मैं किसी प्रदेश की विधान सभा का नेता बन जाऊँ और वरिष्ठ सदस्य देखते रह जायँ।

गाँधी जी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि कोई वरिष्ठ सदस्य आपत्ति नहीं करेगा। किन्तु श्री कृष्ण्दास जाजू नींव के पत्थर बनना चाहते थे, प्रसाद के कगूरों पर लगने वाले सबकी आंखों को बरबस दिखने वाले पत्थर नहीं। वे बोले “आप और कोई आदेश दें मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा पर मुझे इस पद प्रतिष्ठा के दलदल में मत डालिए।”

इतने पर भी गाँधीजी का आग्रह बना रहा। वे राजनेता बनकर रचनात्मक कार्य छोड़ना नहीं चाहते थे। किन्तु इतने बड़े आदमी के आग्रह को उनके मुँह के समाने ठुकराने की धृष्टता भी नहीं कर सकते थे। अतः उनको इस सम्बन्ध में विचार करने की बात कहकर वे वहाँ से लौट आए। कुछ दिनों के बाद उन्होंने सेवाग्राम को एक मार्मिक पत्र प्रेषित किया। जिसमें लिखा “मैं कार्यकर्ता बनना चाहता हूँ नेता नहीं। इसके लिए मुझमें वैसी योग्यता का भी अभाव हैं। मुझे अपने आपको रचनात्मक कार्य में खपाना कहीं अधिक पसन्द है अपेक्षाकृत प्रशासन का भार ग्रहण करने के।”

इसी तरह उनके सामने राज्यपाल बनने का प्रस्ताव भी रखा गया। अनेकों अन्य पद सम्मान के अवसर आये। किन्तु इन सबको ढोने की जगह उन्हें एक विनम्र स्वयं सेवक का स्तर कही अधिक महत्वपूर्ण लगा।

वह कहा करते थे किसी राष्ट्र, समाज, संस्था का जीवन, प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि उसके पास निष्ठावान, निस्पृह स्वयं सेवक कितने हैं। व्यवस्थापकों प्रशासकों की बदौलत न संस्थाएँ जीवित रहती हैं और सार जीवन इसी आदर्श को निभाया और किसी बड़े पदधारी की अपेक्षा अधिक ठोस कार्य किया। आज भी समाज ऐसे लोगों का आह्वान कर रहा है जो उसकी नींव में अपना जीवन खपाते हुए उसके भवन को स्थायित्व प्रदान कर सकें।


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