प्रकृति प्रेरणा का भयावह व्यतिरेक

October 1989

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मौत तो क्या बुढ़ापा भी नहीं टाला जा सकता पर इन दोनों का समय हम अपेक्षाकृत आगे धकेल सकते है। दीपक में पतली बत्ती डालें निर्वात स्थान पर रखें तो वह देर तक जलता रहेगा पर यदि बत्ती मोटी कर दी जाय, दीपक टूटा होने से तेल बहने की गुंजाइश रहे, रखे स्थान पर हवा के तेज झोंके आते रहें तो उसके असमय में ही बुझ जाने की आशंका है। जीवन भी एक ऐसी सम्पदा ह जो कुछ अपवादों को छोड़कर शेष सभी को समान रूप से मिली है। निर्धारित आयुष्य को हम चाहें तो पूरी अवधि तक बिना किसी कठिनाई के भोग सकते है।

सृष्टि के सभी प्राणी युवा होने की आयु से पाँच गुनी अधिक आयु तक जीते हैं। इस नियम को हम अपने परिचित पशु पक्षियों पर पूर्णरूपेण लागू होते देख सकते हैं। मनुष्य 25 वर्ष में युवा होता है। तद्नुसार वह 125 वर्ष तक जीवित रह सकता है। रूस के उजेविकस्तान क्षेत्र के लोग आमतौर से सौ वर्ष से अधिक जीते है॥ कितने ही तो 150 या उससे भी अधिक जीते देख गये हैं। इसके लिए उन्हें कुछ विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता। मात्र इतना ही करते है कि प्रकृति के सामान्य नियमों का सरल मन से पालन करते रहते है। बस इतने भर से ही वे उस दीर्घायुष्य के लाभ को प्राप्त कर लेते हैं।

भारत गरम देश है तो भी यहाँ के जलवायु में साधारण आयु 100 वर्ष मानी गई है। आशीर्वाद मंत्र में सौ वर्ष जीने की सक्षम रहने की शुभ कामना व्यक्त की गई है। इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में अभी भी व्यक्ति ऐसे पाये जाते है। जिनकी आयु सौ वर्ष य उससे ऊपर है। इसके लिए उन्हें कोई जादुई आहार नहीं अपनाना पड़ा न कोई टॉनिक भस्म रसायन आदि का आश्रय लेना पड़ा। यह सब सहज स्वाभाविक रीति से ही होता रहा। प्रकृति की मर्यादाओं का उल्लंघन न करना यह एक ही पाया ऐसा है जिस अपना कर कोई भी व्यक्ति दुर्बलता रुग्णता से बचा रह सकता ह। और दीर्घजीवन का अधिकारी बन सकता हैं।

इस संदर्भ में सादगी सरलता नियमितता व्यवस्था आदि ऐसे गुण हैं जो जीवन को न केवल लम्बा बनाते हैं वरन् उसे स्वस्थ और सुखी भी रखते हैं। आहार और विहार की नियमितता बरती जाय तो क्षमताओं का अपव्यय न हो जिसके कारण जीवनी शक्ति का भण्डार चुकता है और साथ ही अशक्तता का दौर बुढ़ापे जैसी व्याधियों समेत असमय में ही आधमकता हैं।

चिड़ियाँ संख्या होते ही अपने घोसलों में लौट जाती हैं। सबेरा होने पर बसेरे से बाहर निकलती है। वन्य पशु भी ऐसा ही करते हैं। जिनकी संरचना भिन्न प्रकार से हुई है वही निशाचर पशु पक्षी, दिन में विश्राम करते और रात में आहार खोजने के लिए निकलते है। इस प्रकार आधा समय विश्राम के लिए और आधा समय श्रम करने के लिए मिल जाता हैं सभी प्राणी ऋतुओं के प्रभाव से यथा संभव बचते तो हैं पर साथ ही उनके संपर्क में भी रहता है। ऋतुएँ शरीर पर अपना प्रभाव छोड़ती हैं और वह उपयोगी भी होता है। सूर्य के संपर्क से सभी जीवनीशक्ति प्राप्त करते हैं। मनुष्य है जा अपनी जीवन चर्या में प्रकृति विरोधी व्यतिरेक करता रहता है। रात का बहुत देर तक जगता है। तेज प्रकाश के दबाव में आँखों पर मस्तिष्क तंत्र अनावश्यक दबाव डालता रहता है सीलन भरे अँधेरे वाले ऐसे मकानों में रहता है। दिन में सूर्य किरणों और साफ हवा का आवागमन नहीं होता। कपड़ों से लदे रहने पर ऋतुओं का प्रभाव भी शरीरगत सुदृढ़ता को सहज क्रम में नहीं बनने देता।

इन्द्रियों के माध्यम से जीवनी शक्ति का क्षरण होता है। इसमें अतिवाद बरतने भर से भण्डार समय से पहले ही चुक जाता है। आँखों पर, मस्तिष्क पर अतिशय दबाव और हाथ पैरों को समुचित श्रम करने का अवसर न मिलना ऐसा व्यतिरेक है जिसके कारण या तो अवयव बहुत जल्दी घिस जाते हैं और फिर निकम्मे पड़े रह कर जंग खाये जैसे निकम्मे हो जाते है। दोनों ही विपन्नताऐं ऐसी हैं जो स्वस्थता को चोट पहुँचाती हैं और जीवन की लम्बी अवधि पर खेदजनक कुठाराघात करती हैं। प्रकृति पुत्र अन्य सभी जीवधारी भोजन की तलाश में, विनोद-मनोरंजन के लिए दिनभर भागते दौड़ते रहते हैं। इसमें उन्हें समुचित श्रम करने का गहरी साँस लेने का और खुली धूप हवा में रहने का स्वच्छ जलाशयों में पानी पीने का अवसर मिलता है। यही है वह प्रकृति अनुसरण जिसके कारण उन्हें रोगों के चंगुल में नहीं फँसना पड़ता। दुर्घटनाओं को छोड़कर अकारण मृत्यु का शिकार नहीं बनना पड़ता।

प्राणि वर्ग में नर मादाओं के समूह साथ साथ मिल जुलकर रहते हैं। सामान्य समय में न उनमें कामुक चिन्तन चलता है न अश्लील छेड़-छाड़ की विडम्बना की पनपती है। गर्भाधान का उपयुक्त अवसर आने पर मादा की ओर से प्रणय निवेदन होता है। नर एक प्रयोग में ही उस आवश्यकता को पूरी कर देता है। फिर जब तक वैसी स्थिति न बने, दोनों पक्षों में से कोई भी यौनाचार का विचार नहीं करता। इस मर्यादा पालन के कारण ओजस् यथावत बना रहता है और उनकी दृढ़ता को अक्षुण्ण बनाये रखता है। उसके विपरीत मनुष्य किशोरावस्था की कच्ची उम्र से ही कामुकता के गर्त में गिरना आरंभ करता है और वृद्धावस्था तक उस कुचेष्टा को किसी न किसी रूप में अपनाये रहता है। फल यही होता है कि शरीरगत ओजस् तेजस् और आत्मिक क्षेत्र का वर्चस् निरन्तर घटता जाता है। ऊपर का कलेवर तो किसी प्रकार दर्शनीय बना रहता है पर भीतर वह जीवन नहीं रहता, जो रोग-कीटाणुओं के विरुद्ध लड़ सके। भीतर की गंदगी को बाहर निकालने की भूमिका को समुचित रीति से सम्पन्न करता रह सके। अंदर की गंदगी और बाहर की आक्रामकता, अभावग्रस्तता मिलकर व्यक्ति को खोखला बना देते हैं। जिन्हें संयम अपनाने की विवेकशीलता नहीं है वे अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारते हैं और असंयम की वेदी पर आत्महत्या जैसी दुर्घटना के शिकार बनते हैं। जिन्हें ब्रह्मचर्य का अन्यान्य इंद्रियों के संयम-सदुपयोग का ज्ञान नहीं, समझना चाहिए कि उन्हें जीवित रहने का, निरोगतापूर्वक दीर्घायु रहने का महत्व ही मालूम नहीं है।

प्राणि वर्ग में नर मादाओं के समूह साथ साथ मिल जुलकर रहते हैं। सामान्य समय में न उनमें कामुक चिन्तन चलता है न अश्लील छेड़-छाड़ की विडम्बना की पनपती है। गर्भाधान का उपयुक्त अवसर आने पर मादा की ओर से प्रणय निवेदन होता है। नर एक प्रयोग में ही उस आवश्यकता को पूरी कर देता है। फिर जब तक वैसी स्थिति न बने, दोनों पक्षों में से कोई भी यौनाचार का विचार नहीं करता। इस मर्यादा पालन के कारण ओजस् यथावत बना रहता है और उनकी दृढ़ता को अक्षुण्ण बनाये रखता है। उसके विपरीत मनुष्य किशोरावस्था की कच्ची उम्र से ही कामुकता के गर्त में गिरना आरंभ करता है और वृद्धावस्था तक उस कुचेष्टा को किसी न किसी रूप में अपनाये रहता है। फल यही होता है कि शरीरगत ओजस् तेजस् और आत्मिक क्षेत्र का वर्चस् निरन्तर घटता जाता है। ऊपर का कलेवर तो किसी प्रकार दर्शनीय बना रहता है पर भीतर वह जीवन नहीं रहता, जो रोग-कीटाणुओं के विरुद्ध लड़ सके। भीतर की गंदगी को बाहर निकालने की भूमिका को समुचित रीति से सम्पन्न करता रह सके। अंदर की गंदगी और बाहर की आक्रामकता, अभावग्रस्तता मिलकर व्यक्ति को खोखला बना देते हैं। जिन्हें संयम अपनाने की विवेकशीलता नहीं है वे अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारते हैं और असंयम की वेदी पर आत्महत्या जैसी दुर्घटना के शिकार बनते हैं। जिन्हें ब्रह्मचर्य का अन्यान्य इंद्रियों के संयम-सदुपयोग का ज्ञान नहीं, समझना चाहिए कि उन्हें जीवित रहने का, निरोगतापूर्वक दीर्घायु रहने का महत्व ही मालूम नहीं है।


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