नारी अबला नहीं, शक्तिशाली है

October 1989

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सामाजिक नव निर्माण के क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका के प्रश्न को विवादास्पद माना जाता रहा है। अभी भी स्थिति अनिर्णीत ही हैं। लोगों का मत है कि फ्लोरेंस नाइटिंगेल, जोन आफ आर्क का सामाजिक क्षेत्र में नेतृत्व सिर्फ इसलिए सफल रहा क्योंकि उनके देश की सामाजिक संरचना इसके अनुकूल थी। जबकि भारत की सामाजिक स्थिति पर्याप्त भिन्न है। यहाँ पर पश्चिमी उदाहरणों को प्रामाणिक नहीं ठहराया जा सकता।

कुछ अंशों में बात सही भी है प्रत्येक देश की अपनी सामाजिक स्थिति होती है। अनेक बातों में स्वाभाविक भिन्नता भी। ऐसी दशा में जो प्रक्रिया एक स्थान पर सम्भव है दूसरे स्थान पर असम्भव भी हो सकती है। किन्तु अपने देश में सामाजिक नवगठन के क्षेत्र में महिलाओं का योगदान मात्र पश्चिम का अंधानुकरण भर नहीं है अपितु सुदूर अतीत से इसकी अपनी गौरवमयी परम्परा रही हैं।

यह मान्यता पूर्णतया भ्रमात्मक है कि स्त्रियाँ सामाजिक जीवन में पुरुषों के बराबर सफलता प्राप्त करने में अक्षम है। पुरुषों और महिलाओं में शारीरिक संरचना एवं क्रियाविधि सम्बन्धी कुछ अन्तर हो सकता है। पर मानसिक प्रखरता अन्तर हो सकता है। पर मानसिक प्रखरता बौद्धिक तेजस्विता के क्षेत्र में वे न केवल समान हैं अपितु एक कदम आगे भी। इतिहास में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जबकि ज्ञान विद्वत्ता शौर्य और सेवा के क्षेत्रों में से कई में जिन्हें केवल पुरुषों के वश में समझा जाता रहा है, उनमें महिलाओं ने पुरुषों से भी अधिक सफलता प्राप्त की। प्राचीनकाल में घोषा गोधा, शाश्वती, सूर्या, सावित्री, अनुसुइया आदि कई विदुषियाँ थी ज्ञान तत्वविधा के साथ बल और शौर्य में पुरुषों से शानी रखती थीं। दशरथ की पत्नी कैकई ने तो एक बार हारते हुए दशरथ को युद्ध क्षेत्र में अपने रण कौशल से विजय भी दिलाई थी। यही कारण है कि प्राचीन नीतिकारों ने राज सिंहासन का आधा भाग महारानी के लिए अनिवार्य घोषित किया था। उसे राजा के बदाबर न्याय और प्रशासन का अधिकार भी मिला हुआ था।

न केवल प्राचीन काल में बल्कि मध्ययुग में भी लक्ष्मी बाई, दुर्गावती, अहिल्या बाई आदि कई महिलाएँ हुई हैं जिन्होंने पुरुषों के कार्य क्षेत्र में घुसकर उन्हें पीछे छोड़ दिया था, कहा जा सकता है तब परिस्थितियाँ कुछ और थीं। अब विगत दिनों की अंधकार बेला ने महिलाओं की शक्ति को कुँठित कर दिया है और उनकी क्षमता और शक्ति को जंग लग गयी हो तो यह भी निराधार ही सिद्ध होता हैं स्वतंत्रता संग्राम के समय जन चेतना जाग्रत करने में कस्तूरबा, सरोजनी नायडू कमलानेहरू, राजकुमारी अमृतकौर, विजय लक्ष्मी पंडित कमला देवी, चट्टोपाध्याय, भीकाजी, कामा, अवंतिका बाई गोखले, आदि अनेकों महिलाओं ने जो कार्य किया उसे किसी भी रूप में पुरुषों द्वारा चलाए गए अभियानों से कम नहीं कहा जा सकता। ये तो हुई विशिष्ट महिलाओं की बात साधारण स्त्रियों ने भी स्वतंत्रता आन्दोलन के उन मोर्चों को फतह कर दिया जिन्हें पुरुषों ने अपने वश से बाहर का जान कर छोड़ दिया था। विदेशी और वस्तुओं के बहिष्कार का जब आह्वान किया गया तो सत्याग्रह का एक बड़ा रूप सामने आया पिकेटिंग। पिकेटिंग में उन दुकानों पर जिन पर कि विदेशी वस्तुएँ बेची जाती थीं धरना दिया जाता था। पुरुषों को प्रारम्भ में इस कार्य में सफलता नहीं मिली तब आगे आयीं महिलाएँ और उन्होंने तब तक धरना दिए जाने की दृढ़ता दिखाई जब तक कि दुकानें बन्द न हो गई।

भारत की विभूतियों में अग्रगण्य सरोजनीनायडू ने उच्चशिक्षा प्राप्त करने के बाद भी समाज और संस्कृति के प्रति अपने दायित्व को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। न केवल राजनैतिक स्वतन्त्रता के लिए वरन् मनुष्य को दास बनाने उसे अपने अधिकारों से वंचित करने के प्रत्येक कारण के विरुद्ध लड़े गए धर्म युद्ध में योद्धा की भूमिका निबाही। अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के हितों की रक्षा, असहयोग सत्याग्रह, नारी उत्कर्ष समाज सुधार, बाल सुधार, साक्षरता, शिक्षाप्रसार, आदि कई उनकी समाज सेवा साधना के अंग रहें। श्रीमती शचीरानी गुर्दू के अनुसार वे सफल कवियित्री पटु राजनीतिज्ञ, कुशलता, सजग कार्य कर्त्री और साथ ही साथ सफल गृहणी भी थीं। सन् 25 में काँग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने यह सिंह गर्जना की कि देश व समाज के नवसृजन काल में कायरता सबसे अक्षम्य अपराध और निराशा सबसे बड़ा भयानक पाप हैं।

एक प्रख्यात लेखक ने जागरूक भारतीय महिलाओं के सम्बन्ध में लिखा हैं। भारतीय राष्ट्रीयता स्वीकार करने वाली एनीबेसेन्ट भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की अध्यक्ष बनीं। यही पद बाद में सरोजिनी नायडू ने सुशोभित किया। श्रीमती नायडू एवं श्रीमती हीराटाटा ने महिलाओं के मताधिकार का प्रश्न लेकर आन्दोलन भी चलाया। कमला देवी चट्टोपाध्याय प्रथम महिला थीं जो चुनाव में खड़ी हुई। स्वतन्त्रता आन्दोलन का संचालन करने वाली वीरांगनाओं में श्रीमती भीकाजी कामा, विजय लक्ष्मी पण्डित मृदला साराभाई लक्ष्मी मेंनन अरुणा असफअली, दुर्गाबाई देशमुख कमला नेहरू, मणिबेन, पटेल सुशीला नैयर, पद्मजा नायडू अनुसुइया बाई काले आदि नामों की एक लम्बी सूची है जो भारतीय समाज में महिलाओं के गौरव को प्रकट करती है।

यह आरोप स्वतः ही आधारहीन सिद्ध हो जाता है कि महिलाएँ पुरुषों की तुलना में उन्नीस ठहरती हैं। जब कि सचाई यह है कि वे कई मामलों में इक्कीस भी सिद्ध होती हैं। यदि आज कुछ क्षेत्रों में वे पुरुषों से पिछड़ी दशा में हैं तो इसका कारण यह नहीं है कि उनमें कोई न्यूनता है। सही कारण है कि उन्होंने अपने पराक्रम अंतःशक्तियों को विस्तृत कर रखा है। महिलाएँ अबला नहीं हैं। आचार्य विनोबा भावे ने तो महिला की एक नवीन और सटीक व्याख्या कर डाली है कि अगला शब्द बहुत बाद का हैं। उससे पूर्व हमारे यहाँ महिला शब्द व्यवहृत होता रहा है जिसका अर्थ है, महान शक्तिशाली। वस्तुतः नारी अबला नहीं महान शक्तिशाली है और समाज के विकास के नेतृत्व को अपनी प्रखरबुद्धि के सहारे संभाल सकती है।

कहा जाता है कि समय की हवा में तिनका भी तूफान बन जाता है। आज वही समय है ऐसे में शक्ति स्वरूपा नारी प्रचण्ड शक्ति बनकर उभर सके तो कोई आश्चर्य नहीं। माता जी और श्री अरविन्द ने इक्कीसवीं शती को स्पष्ट शब्दों में वदर्स सेंचुरी अथवा “मातृ-शती” कहा है। उनका आगे कहना है कि इस शताब्दी में शासन सुव्यवस्था की जिम्मेदारी नारी के हाथ में होगी पुरुष उसका सहायक भर होगा। एक प्राचीन कहावत का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि जिस देश, समाज, संपत्ति पर नारी का शासन होता है वह समृद्ध रहती है। महर्षि अरविन्द के शब्दों में कालचक्र पूर्ण वेग से गतिमान है। भवितव्यता नारियों पर अपने अनुदानों की वर्षा करने पर उतारू है। ऐसे में उन्हें विचारों और दृष्टिकोण के विस्तार एवं भावनात्मक परिष्कार के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ना होगा ताकि वे आगामी दिनों में सार्वजनिक कार्यों की व्यवस्था को संभालकर समाज का नेतृत्वकर सकें।


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