प्रसन्नता- एक सुलझी हुई मनःस्थिति

October 1989

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आनन्द जीवन का लक्ष्य माना, समझा और कहा जाता है। पर यह स्मरण ही नहीं आता कि वस्तुतः यह शब्द किस भाव संवेदना के लिए प्रयुक्त किया जाता है और किया जाना चाहिए?

यदि आनन्द को प्रसन्नता के अर्थ में लिया जाय तो हर खुशी को इसी श्रेणी में गिना जायेगा। भले ही वह कितने ही बुरे उपायों से, बुरे उद्देश्य की पूर्ति के लिए, क्यों न की गई हो। चटोरे लोग स्वादों को चखने में मजा लेते हैं। कामुक प्रकृति के लोगों पर यौनाचार का भूत ही सवार रहता है। उस संदर्भ में उन्हें जब जितना अवसर मिला जाता है तब उन्हें उसी अनुपात से प्रसन्नता हाथ लग जाती हैं। शिकारियों को बधिकता में प्रसन्न होते देखा गया है। यहाँ तक कि चोर, उचक्के, ठग, प्रपंची का जब दांव लग जाता है तो शेखी बघारते और मूंछें ऐंठते देखे गये हैं। शोषकों की प्रकृति ही ऐसी बन जाती है कि उन्हें पर पीड़न में ही अपने दर्प की पूर्ति होती दिखाई देती है।

दृष्टिकोण में यदि सौंदर्य का पुट हो तो दृश्यमान पदार्थों और प्राणियों में से जो भी सुरुचि कर प्रतीत होते हैं, उन्हें देखने भर से प्रसन्नता होती है। उमड़ती मेघ–मालाएँ रात के समय हँसते तारागण, उड़ते पक्षियों की शोभाएँ, जलाशयों में उठती लहरें अनायास ही मन की कली खिलाती हैं चहकते पक्षी मन बहलाते हैं। खिलते फूल आँखों में रस भर जाते है। जमीन पर बिछी मखमली फर्श जैसी घास कितनी सुहावनी लगती है। हरे भरे खेत, हिलोरें लेते तालाब, शीतल हवा के झोंके संपर्क मात्र से प्रसन्नता प्रदान करते हैं। यह सब मिलाकर आनन्द से सराबोर झरने की तरह झरते हुए सहज पुलकन उत्पन्न करते हैं। सज्जनों के द्वारा किये गये सत्कर्म जब चर्चा का विषय बनकर कानों तक पहुँचते हैं तब तो लगता है मानों संसार में सर्वत्र सुखद ही सुखद भरा है। यह बिना मोल मिलने वाला आनन्द है। जिन्हें अपने चिन्तन में सदाशयता का समावेश किये रहना बन पड़ता है वे अपनी उपलब्धियों से ही नहीं आसपास के वातावरण से भी पर्याप्त मात्रा में आनन्द उपलब्ध कर लेत हे। इस प्रयोजन में प्रकृति की संरचना उसका स्वाभाविक रूप से समुचित सहयोग करती है। आनन्द से उत्पन्न हुआ व्यक्ति अपने निजी चुम्बकत्व के अनुरूप वातावरण स्वयमेव एकत्रित कर लेता है।

दुष्टता की अपनी एक विलक्षण प्रकृति है। वह जिधर भी घूमती है अपने ही अनुरूप देखती है। जिस रंग का चश्मा आँख पर पहना जाता है। उसी रंग से रंगी हुई सब वस्तुएँ दीखती हैं। स्वर्ग की तरह नरक भी एक दृष्टिकोण ही है। सज्जनों को सज्जनता का बाहुल्य इस संसार में दीख पड़ता है पर दुर्जनों को तो कहीं भी दुर्जनता के अतिरिक्त और दीखता सूझता ही नहीं। अपने अनुरूप वहाँ न भी हो तो कल्पना करके वैसा ही कुछ गढ़ लेते हैं। भूत पलीत प्रायः मन की आशंकाओं और कुशंकाओं के सहारे ही गढ़े होते है। उनकी वास्तविक उपस्थिति न होने पर भी झाड़ी ही वैसी आकृति बना लेती है और इस कदर डराती है। कि भयभीत मनुष्य को उससे जान बचाना ही कठिन पड़ जाय। रस्सी का साँप बन जाने की उक्ति प्रसिद्ध हैं आशंका और अविश्वास का मानस होने पर साधारण व्यक्ति ही शत्रु जैसे प्रतीत होते हैं और लगता है कि उनकी साधारण सी चेष्टाएँ भी उनके लिए कुछ षड्यंत्र जैसा गढ़ रही है।

अपने स्तर के लोग सभी आसानी से ढूंढ़ लेते हैं। उनके साथ घनिष्टता जोड़ते और अपने स्वभाव का गिरोह बना लेते हैं। जुआरी नशेबाज, व्यभिचारी, प्रकृति के लोग अपनी प्रकृति के सहचर कहीं से भी तलाश लेते है। न होने पर सामान्य लोगों पर अपनी आदतों का शिकार बनाकर देखते देखते मंडली खड़ी कर लेते हैं। जल कुँभी की बेल किसी जलाशय के निकट छोटे रूप उगती है फिर इतनी तेजी से बढ़ती है कि कुछ ही समय में उस समूचे जलाशय पर कब्जा जमा लेती है। मक्खी, मच्छर भी अपनी बिरादरी तेजी से बढ़ाते हैं और अल्प संख्या में होते हुए भी तेजी से बढ़ते हुए निकटवर्ती क्षेत्र पर आधिपत्य जमा लेते हैं। एक जैसी भूमि में विभिन्न प्रकाश के बीच पड़ने पर वे अपने अपने सजातियों की ही उत्पत्ति करते है।भूमि वही रहती है। खाद पानी भी एक जैसा मिलता है किन्तु पौधों की आकृति एवं प्रकृति वैसी ही देखी जाती है। जैसा कि बीज था। परिस्थितियाँ लोगों के सामने अलग-अलग प्रकार की आती हैं पर वस्तुतः वे मनःस्थिति का ही उत्पादन होती हैं। एक जैसे वातावरण में जन्मे और पले लोग चित्र विचित्र शैली के जीवनयापन करते और विभिन्न प्रकार की दिशा द्वारा अपनाते हुए कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। सगे भाइयों तक में अन्तर पाया जाता है। यह विभेद उनकी प्रकृति के अनुरूप आदतों से प्रेरित होकर विकसित होते है।

परिस्थितियां प्रतिकूल होने पर आवश्यक नहीं कि उन्हें दुर्भाग्य का ही अनुभव किया जाय। इसके विपरीत यह भी हो सकता है कि उन्हें अपने पुरुषार्थ के लिए चुनौती समझ कर अधिक हिम्मत और अधिक सूझबूझ से काम लिया जाय। सर्दी की ऋतु कड़ाके की ऐसी ठंड लेकर आ सकती है जिसके प्रभाव से कष्ट सहने और बीमार पड़ने की स्थिति दबोच ले। पर यदि सूझ बूझ से काम लिया जाय तो खिड़कियाँ बन्द करने गरम कपड़ों का प्रबंध करने जैसे उपायों से उसे मजेदार भी बनाया जा सकता है। तपाने वाली गर्मी के जूते और छाते का उपयोग करके उस दबाव को हलका किया जा सकता है। विरोधियों का आतंक भले ही कितना ही बड़ा क्यों न हो अपनी सच्चाई उजागर करने और भयभीत न होकर मुकाबला करने के लिए उठ जाने पर संकट का अधिकाँश भाग टल जाता है। अधिक रोगी भर्ती होने पर डाक्टर घबराते नहीं वरन् दूने उत्साह से दूना परिश्रम करते हुए अनेकों की जानें बचाते और स्वयं क्षेत्र प्राप्त करते है। इसी प्रकार अन्य प्रतिकूलताएँ सामने आने पर जो अपने धैर्य, साहस और प्रयास का अनुपात बढ़ा देते हैं वे उस संकट को पार ही नहीं कर लेते वरन् सर्व साधारण की दृष्टि में अपनी गरिमा में चार चाँद लगा देते हैं।

सोने का खरा होना कसौटी पर कसे जाने और आग में तपने पर ही सिद्ध होता है। इसके बिना उसकी प्रमाणिकता पर कहाँ कोई विश्वास करता है। मानने को तो किसान भी अभागा कहा जा सकता है जो पूरे साल भर कड़ी मेहनत करता और ऋतु प्रतिकूलताओं से जूझता है। पर जब उस प्रयास के फल स्वरूप कोठे भरा अनाज घर आता है तो सभी की बाछें खिल उठती है। और समझा जाता है कि कठोर परिश्रम में निरत होना और कठिनाइयों से जूझना उस समय कैसा ही क्यों न लगे पर अनंतः संतोष और आनन्द का निमित्त कारण ही होता है। आनन्द क्या है? उसके उत्तर में वैभव, विलास और शोभा श्रृंगार के साथ ही उसे नहीं जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि उनके कारण शक्तियों का क्षरण ही होता है। प्रसन्नता एक मनः स्थिति है जिसे उपयोगी कार्य करते हुए शौर्य पराक्रम के साथ जोड़ा जा सकता है। कर्त्तव्य पालन का आनन्द ही वास्तविक है। उसके रहते प्रतिकूलताएँ भी अनुकूलताओं जैसा संतोष प्रदान करती है।


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