जन सहयोग की सम्पदा

April 1981

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक बार श्रावस्ती नगरी में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। अपनी समृद्धि के लिये प्रख्यात आध्यात्मिक प्रेरणा का यह केन्द्र उजाड़ जैसा लग रहा था। अनावृष्टि एवं अतिवृष्टि की दोहरी मार से सर्वत्र हाहाकार मच गया। सूखे ने क्षेत्र की अधिकांश फसल नष्ट कर दी थी। जो बची थी उसे बाढ़ बहा ले गयी। भूख से व्याकुल नर-नारियों, बाल, वृद्धों का मरण निकट दिख रहा था।

भगवान बुद्ध उन दिनों नगर में निवास कर रहे थे। स्थिति को असह्य जानकर उन्होंने नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की एक सभा बुलायी। दूसरे दिन सभी व्यक्ति उपस्थित हुये।

तथागत ने संक्षेप में परिस्थिति की विकटता समाई और उपस्थित लोगों से पूछा- “आप में से कौन है जो क्षुधार्त जन समुदाय की प्राण रक्षा का उत्तरदायित्व वहन कर सके।”

सभा मण्डप में निस्तब्धता छाई रही सभी निराश मुद्रा में सिर झुकाये मौन बैठे थे। स्थिति स्पष्ट थी। किसी का साहस लग नहीं रहा था। तथागत ने अब सामान्य जनों की अपेक्षा समर्थ सम्पन्न लोगों पर दृष्टि दौड़ाई और एक-एक करके पूछना आरम्भ किया कि क्या इस विषम स्थिति में वे कुछ कर सकते हैं?

सेठ रत्नाकर अर्थात् रत्नों का खजाना के नाम से जाना जाता था। पर यह क्या? आत तो वह भी हताश दिखाई पड़ रहा था। महाप्रज्ञ की स्थिर निगाहों ने उसे बोलने पर बाध्य किया। निराश स्वर में वह बोला- “भगवन्!” इस दुर्भिक्ष में हम अपने को असमर्थ पा रहे हैं। हमारा कोष समाप्त होता जा रहा है।

निगाहें आगे बढ़ी। राज्य के सबसे साहसी योद्धा जयसेन पर रुकीं। जयसेन ने बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थी। उसने अपने जीवन में कभी हार नहीं मानी थी। पर आज तो साहसी योद्धा का भी सिर झुका हुआ था। हताश स्वर में उसने कहा- ‘आचार्य श्रेष्ठ!’ मैं तो अपने शरीर का रक्त देने तक को तैयार हूं, पर इस विप्लव में अन्न की इतनी व्यवस्था कर सकना हम से सम्भव नहीं है।

‘धर्म पाल’ जो अपनी दान वीरता के लिये प्रख्यात था, उसकी वाणी में भी निराशा की स्पष्ट छाप थी। भगवान बुद्ध चिन्ता विमग्न हो उठे। इस नीरवता को तोड़ा एक किशोर भिक्षुणी ने। आगे बढ़कर उसने भगवान बुद्ध की चरा रज माथे पर लगायी और कहा- “देव! क्षुधा पीड़ितों को अनाज बाँटने का उत्तरदायित्व मैं लेती हूँ। मुझे आशीर्वाद दें कि इसका निर्वाह कर सकूँ।’’

एक सामान्य भिक्षुणी के इस दुस्साहस को देखकर सभाविद् आवाक् रह गये।

तथागत को सभाजनों के मन की बात समझते देर न लगी। अनजान बनते हुये उन्होंने बालिका से पूछा- “भद्रे! तू कठिन दायित्व किस प्रकार पूरा करेगी?” बालिका के सौम्य स्वर गूँज उठे। “देव” जिनके पास अनाज के भण्डार हैं उनसे मैं भिक्षा मागूंगी। प्रत्येक से एक मुट्ठी अन्न के लिये याचना करूंगी। जो भिक्षा द्वारा अन्न संग्रहित होगा इससे भूखों की क्षुधा मिटाऊंगी।”

तथागत के नेत्र सजल हो उठे। सभा में आशा का संचार हुआ है। ‘‘एक नगण्य-सी लड़की इतना साहस जुटा सकती है तो हमारी स्थिति तो कहीं अधिक अच्छी है। हर व्यक्ति यह सोचने लगा” बालिका के साहस ने साहस को जगाया पुरुषार्थ से पुरुषार्थ को प्रेरणा मिली और त्याग की सद्भावभरी परम्परा चल पड़ी। दुर्भिक्ष से लोहा लेना जो कभी असम्भव जना पड़ता है अब संभव हो गया। हर व्यक्ति बढ़ चढ़कर अनुमान प्रस्तुत करने लगा। और दुर्भिक्ष पीड़ित में प्रत्येक की प्राण रक्षा सम्भव हो गई।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118