गतिशीलता विश्व व्यवस्था की चिरन्तर नीति

April 1981

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सृष्टि में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। सब गतिशील हैं। जड़ चेतन सभी गतिवान हैं। जिन्हें हम स्थिर और जड़ मानते हैं, उनके भीतर भी स्थिरता नहीं है। विद्यमान अणु और परमाणु एक निर्धारित कक्षा एवं गति वेग परिभ्रमण कर रहे हैं। चन्द्रमा पृथ्वी की और पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं। सूर्य अपने सौर मण्डल के सदस्यों सहित महासूर्य अतिसूर्य की परिक्रमा करने दौड़ा चला जा रहा है। इस क्रम का अन्त नहीं है। लगती है तो पृथ्वी भी स्थिर ही है, पर वस्तुतः वह प्रचण्ड वेग से अपनी की कक्षा पर सूर्य के चारों ओर घूम रही है।

स्थिरता भीतर भी नहीं है। शरीर के भीतरी अवयव एक स्वसंचालित प्रक्रिया द्वारा अपने-अपने कार्यों में मुस्तैदी से जुटे हैं। हृदय का आकुँचन प्रकुँचन सदा चलता रहता है। रक्त नलिकाओं में रक्त का प्रवाह सदा जारी है। पाचन तंत्र खाद्य पदार्थों को पचाने ऊर्जा में परिवर्तित करने में लगा रहता है। इसमें थोड़ा भी व्यतिक्रम होने पर विभिन्न प्रकार की विकृतियाँ रोगों के रूप में उठ खड़ी होती हैं। फेफड़े अपना कार्य करते हैं श्वास तंत्र अपना। बाहर से देखने पर तो सब शान्त एवं स्थिर मालूम पड़ता है, पर जीव शास्त्री जानते हैं कि भीतरी अवयव यदि विश्राम करने लगें, अपना काम करना बन्द कर दें तो शरीर को जीवित रखना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जायेगा।

स्थिरता जड़ समझी जाने वाली वस्तुओं में भी नहीं हैं। वस्तुओं के परमाणु के भीतर प्रचण्ड वेग से हलचल हो रही हैं। इलेक्ट्रान, प्रोटान आदि कण केन्द्रक के भीतर बाहर तीव्रगति से निश्चित कक्षा में दौड़े चले जा रहे हैं। उनमें से एक भी बागी होकर अपना काम बन्द कर दे तो पदार्थ सत्ता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाय। पिण्ड हो या ब्रह्मांड, जड़ हो चेतन हलचल सबमें हो रही है। गतिमान सभी हैं।

गति ही जीवन और अगति ही मृत्यु है। सृष्टि में सुसंचालन, सुव्यवस्था एवं अस्तित्व बने रहने के लिये गति आवश्यक है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी ही नहीं उसे पिण्ड-टुकड़े भी चल रहे हैं। वे अनेकों बार पृथ्वी से अलग हुए, अनेकों बार जुड़े। सात महाद्वीपों में पृथ्वी का विभाजित होना टुकड़ों के गतिशील होने का ही परिचायक है। नवीन शोधों के अनुसार ये महाद्वीप भी अपने स्थानों से खिसक रहे तथा स्थान बदल रहे हैं। पृथ्वी के विभिन्न भू-भागों की गति का अध्ययन करने वाले विज्ञान की इस शाखा का नाम ग्लोबल-प्लेट टेक्टोनिक्स है। यह भी पता लगा है कि पृथ्वी पूर्णतया ठोस नहीं है। इसके केन्द्र में अतिशय गाढ़ा तरल पदार्थ है। जिसकी सतह पर 65 कि.मी. से 95 कि.मी. तक की मोटी परत के दस टुकड़े तैरते रहते हैं। इस शाखा में अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि 20 करोड़ वर्ष पहले ये दसों टुकड़े आपसे में मिले हुए थे तथा एक ही महाद्वीप था। गति के कारण कालान्तर में सात द्वीप में विभाजित हो गया। यह महाद्वीप भी स्थिर नहीं है। 1 से.मी. से लेकर 15 से.मी. तक प्रति वर्ष ये विभिन्न दिशाओं में खिसकते जा रहे हैं। यूरोप और उतरी अमेरिका एक दूसरे से प्रतिवर्ष 2.5 से.मी. दूर होते जा रहे हैं। प्रतिवर्ष अनेकों स्थानों पर आने वाले भूकम्पों का एक कारण यह भी बताया जाता है कि कभी-कभी तैरती हुई पृथ्वी की दो पर्तें आपस में टकरा जाती हैं। फलस्वरूप हलचल होती तथा घर्षण के कारण कई बार लावा निकलता तथा नये पहाड़ तक बन जाते हैं।

अमेरिका की ईस्ट ऐंजिलिया यूनीवर्सिटी भू-गर्भ वैज्ञानिक एफ.गे.बिने एवं कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी के डी.एच. मैथ्यू ने 1963 में अपने अनुसंधानों के उपरान्त घोषणा की, कि पृथ्वी के ध्रुव खिसक कर अपना स्थान बदलते जा रहे हैं। पिछली बार ध्रुवों को स्थान बदले 7 लाख वर्ष हो गए। इस तथ्य की जानकारी समुद्र की तलहटी की मिट्टी की रेडियो एक्टीविटी द्वारा मिली है। अमेरिका में तो पांच संस्थान इस अनुसंधान कार्य में लगे हैं। जिनमें स्क्रिप्स इन्स्टीट्यूशन ऑफ ओसिनोग्राफी प्रमुख है। शोध कार्य के लिए संस्था ने एक विशेष प्रकार का ग्लैमर चैलेन्जर नामक जहाज का निर्माण किया है। इस जहाज द्वारा पिछले कुछ वर्षा में समुद्र की तलहटी में 300 से भी अधिक छिद्र मिले हैं। छिद्रों की गहराई एक हजार मीटर से अधिक है। इनके भीतर से निकाली गई मिट्टी 16 करोड़ वर्ष पुरानी बतायी जाती है।

प्रसिद्ध भूगर्भ वेत्ता ‘रावर्टजीन’ और जॉन होल्डलन का कहना है कि 20 करोड़ वर्ष पूर्व जापान उत्तरी ध्रुव के पास था और भारत दक्षिणी ध्रुव के पास। सर्वप्रथम आस्ट्रेलिया और भारत का दक्षिणी भाग दक्षिणी ध्रुव से अलग हुए और क्रमशः खिसकते हुए आज की स्थिति में आ गये। यह प्रक्रिया 18 करोड़ वर्ष पूर्व आरम्भ हुई। जिसमें सर्वाधिक यात्रा भारत के भू भाग ने 8800 मील की तय की है।

इन वैज्ञानिकों का कहना है कि निकट भविष्य में उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका पश्चिम की ओर बढ़ेंगे तथा पनामा और मध्य अमेरिका उतर की ओर। पृथ्वी के भीतरी खण्डों को खिसकने, गति करने के कारण हिमालय पर्वत और ऊँचा उठेगा तथा भारत का भू-भाग पूर्व की ओर बढ़ेगा। आस्ट्रेलिया उत्तर की ओर बढ़ता हुआ एशिया के भू-भाग से मिल जायेगा। भूमध्य सागर पर नये द्वीप उभरने की संभावना भी की जा रही है। ऐसी स्थिति में जैसे जैसे अफ्रिका और यूरोप निकट आते जायेंगे भूमध्य सागर का अस्तित्व क्रमशः मिटता जायेगा।

गति एवं परिवर्तन का यह क्रम पिण्ड एवं ब्रह्मांड में सर्वत्र ही चल रहा है। कितने ही जीव नित्य पैदा होते और कितने ही मरते हैं। कितने ही पदार्थ विखण्डित होते और कितने ही जुड़ते हैं। परिवर्तन की यह श्रृंखला पृथ्वी ही नहीं सारी सृष्टि में चलती रहती है। तारों, ग्रहों-उपग्रहों में भी कितने ही अपना स्थान बदलते रहते, टूट कर नष्ट-भ्रष्ट होते रहते हैं। आवश्यक नहीं कि उन सभी की जानकारी मनुष्य को हो। अभी तो कितने ही ग्रह नक्षत्रों के विषय में जानकारी तक नहीं मिल पायी है। उनके स्वरूप एवं होने वाले परिवर्तनों की जानकारी तो दूर की बात है। भौतिक यंत्रों की पकड़ में आने वाली संरचनाओं की ग्रह-नक्षत्रों की ही जानकारी वैज्ञानिकों को मिल सकी है। गति एवं परिवर्तन की स्वसंचालित प्रक्रिया में बनी इस सृष्टि की अनेकों गतिविधियाँ अब भी रहस्यमय बनी हैं।

गति एवं परिवर्तन सृष्टि की अनिवार्य प्रक्रिया है जिसके चक्र में सभी जड़ चेतन बंधे हैं। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को अन्य जीव सहर्ष स्वीकार करते तथा उसके अनुरूप अपनी गतिविधियों का तालमेल बिठाते हैं। मनुष्य ही है जो सदा अनुकूल परिस्थितियों में ही बना रहना चाहता तथा प्रतिकूल में समायोजन नहीं कर पाता। सृष्टि की इस अनिवार्य प्रक्रिया एवं तथ्य को स्वीकार करना ही विवेक संगत है। तटस्थता, स्थिरता तो मृत्यु का परिचायक है, परिवर्तनशीलता जीवन का। कालचक्र में बंधी इस परिवर्तन प्रक्रिया को स्वीकार करने, उसके अनुरूप अपनी गतिविधियों का निर्धारण करने से ही संतुष्ट बना रहा जा सकता है।


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