असंतुलन और विक्षेप, सर्वथा अहितकर

April 1981

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घटकों के रूप में मनुष्य जाति अलग-अलग दिखायी पड़ती हुई भी परस्पर एक दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी है। सोचा यह जाता है कि भले-बुरे चिंतन एवं गतिविधियों का प्रभाव मात्र अपने ऊपर से ही पड़ता है। जबकि तथ्य और ही है। ‘‘अपने मतलब से मतलब और अपने काम से काम’’ की उक्ति व्यक्तिगत स्वार्थ की सिद्धि के लिए भले ही एक सीमा तक सही उतरे पर इस प्रवृत्ति का दूरगामी परिणाम समस्त समाज पर पड़ता है और हर दृष्टि से अहितकर ही होता है। संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिये प्रतिस्पर्धा चलती तथा अधिकांश व्यक्ति अपने सामाजिक एवं नैतिक दायित्वों की अपेक्षा करने लगते हैं। इन दूरवर्ती परिणामों से अवगत पुरातन ऋषियों ने सदा ही मान गरिमा के प्रतिकूल निकृष्ट बनाने वाले तत्वों की भर्त्सना की है। चिंतन को ऊर्ध्वगामी बनाने, गतिविधियों को महान प्रयोजनों में नियोजित करने की प्रेरणा दी है।

व्यक्ति समष्टिगत चेतना का अंश है। तालाब में फेंके जाने वाले पत्थर से तरंगें उठतीं तथा दूर-दूर फैल जाती हैं। उसका प्रभाव फेंके गये स्थान तक ही सीमित नहीं रहता, वरन् सम्पूर्ण तालाब पर पड़ता है। प्रकृति समष्टिगत चेतना का विराट् स्वरूप मनुष्य है। अंशी होने एवं विराट् चेतना से अविच्छिन्न रूप से जुड़े होने के कारण उसकी प्रत्येक हलचल का प्रभाव समष्टि पर पड़ना स्वाभाविक है। भले-बुरे विचार एवं कर्म व्यक्ति को ही नहीं समाज को भी प्रभावित करते हैं।

ब्रह्माण्ड के प्रत्येक घटक भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। ग्रह नक्षत्रों के आपसी संतुलन एवं सहयोग पर ही सृष्टि गतिशील है। विग्रह असहयोग अथवा असंतुलन अनेकानेक प्रकृति विक्षोभों के रूप में परिलक्षित होता है। बगावत पर उतारू ग्रह-नक्षत्र स्वयं तो नष्ट भ्रष्ट होते ही है। सृष्टि के अन्य घटकों को भी चैन से बैठने नहीं देते। उनका दूरगामी तथा भयंकर प्रभाव अन्य स्थानों पर पड़ते देखा गया है। असंतुलन से उत्पन्न होने वाली तरंगों के कारण अनेकों प्रकार की दुर्घटनाएं तक हो जाती हैं।

कुछ दिनों पूर्व अटलांटिक महासागर के पूर्वीय क्षेत्र के गल्फ स्ट्रीम में एक माल वाहक जहाज समुद्री तूफान के कारण अचानक गायब हो गया। इस प्रकार के समुद्री तूफानों को नाविक ‘फ्रिकसी’ कहते हैं। अथक प्रयत्नों के बाद भी जहाज का कोई सुराग नहीं मिल सका। फ्रिकसी की चपेट से किसी प्रकार बचे नाविकों का कहना है कि इन अवसरों पर इतना समय भी नहीं मिलता कि रेडियो संकेत भेजा जा सके। न ही लाइफ वोट उतारने का अवसर मिल पाता। इन दुर्घटनाओं से विरले ही बच पाते हैं। स्काटलैंड के जार्ज ग्रस्ट 24 वर्ष की आयु से लेकर 37 वर्ष तक आयु तक निरन्तर माल वाहक जहाज के कप्तान रहे। अपने समुद्री जीवन के अनुभवों से संबंधित इन्होंने अनेकों पुस्तकें भी लिखी हैं। इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि ‘‘उस दिन मैं जहाज का दिशा नियंत्रक सम्भाले हुए था। अपनी ड्यूटी बदलने ही वाला था, अचानक कुछ ही दूरी पर एक पहाड़ जैसी तरंग दिखायी पड़ी। सामने तरंग की ऊंचाई 100 फुट से भी अधिक रही होगी। गति एक्सप्रेस गाड़ी के समान थी। इस आकस्मिक विभीषिका में साहस रख पाना मुश्किल पड़ रहा था। हमारे सहयोगी ने टेलीग्राफिक संदेश जहाज में बैठे अन्य यात्रियों को खतरे की सूचना देने का परामर्श दिया। किन्तु यह सोचकर कि गहन अंधकार में यात्री अपना संतुलन न खो बैठें, इसलिये सूचना प्रसारित करने का इरादा बदल दिया।

दूसरे ही क्षण भीमकाय तरंगों से जहाज को 75 फीट से भी अधिक ऊँचाई पर उछाल दिया। उठती गिरती तरंगों में अनिश्चित भविष्य की ओर डोल रही जीवन-मृत्यु के बीच हम झूलने लगे। जहाज के भीतर पानी भर गया। अब खतरे की घंटी बजाना आवश्यक था। आत्म-रक्षा के लिए यात्रियों की भाग दौड़ आरम्भ हुई। लाइफ बोट में किसी प्रकार कुछ यात्री सवार हो सके। तरंगों के प्रचण्ड वेग के कारण लाइफ बोट पर नियंत्रण पाना असंभव था। लहरों में थपेड़ों के संयोगवश किसी प्रकार बोट किनारे आ लगी। इसे ईश्वरीय अनुकम्पा ही मानते हैं कि उस भयंकर तूफान से हम सब निकल सके।

सन् 1882 में मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वेलफोर स्टेवोर ने घोषणा की कि वायुमंडल में परिवर्तन के कारण पृथ्वी की ऊँचाई अंतरिक्ष से आने वाली विद्युत धाराएँ हैं। अन्याय ग्रहों, सूर्य आदि से विकिरण की प्रक्रिया तो लगातार चलती रहती है। उनमें विक्षेप आने पर असंतुलन उत्पन्न होता तथा प्रभाव दूरवर्ती ग्रहों पर भी पड़ता है। समुद्री ज्वार, भूकम्प जैसी घटना में इन अन्तरिक्षीय विद्युत तरंगों का भारी योगदान है। वैज्ञानिकों का कहना है कि समुद्रों में स्कन्द ज्वार (स्प्रिंग टाइड) तब आते हैं जब पृथ्वी पर सूर्य और चन्द्रमा दोनों का गुरुत्वाकर्षण बल बराबर होता है। जब सूर्य और चंद्रमा विपरीत दिशा में होते हैं तो ऊँचाई घट जाती है। गुरुत्वाकर्षण में परिवर्तन का प्रभाव वातावरण तक ही सीमित नहीं रहता, वरन् समस्त जीवधारियों पर भी पड़ता है। नवीनतम वैज्ञानिक शोधों के अनुसार सौर सक्रियता के वर्षों में पृथ्वी के गुरुत्व बल में असाधारण परिवर्तन होता है। इसका प्रभाव मनुष्य की मनःस्थिति पर भी पड़ता है। विश्व में हुए अब तक अधिकांश बड़े युद्धों में यह तथ्य उद्घाटित हुआ है कि जिन वर्षों में सूर्य पर धब्बे अधिक दिखायी पड़े उसी अवधि में उनका सूत्रपात हुआ। सौर धब्बे प्राणियों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं यह प्रक्रिया तो अब तक अविज्ञात है, किन्तु इस तथ्य को अब एक मत से स्वीकार किया जा रहा है कि प्राणियों की मनःस्थिति इन परिवर्तनों से बुरी तरह प्रभावित होती तथा विक्षुब्ध बनती है।

धब्बे क्यों और कैसे उत्पन्न होते हैं। इस संबंध में सुनिश्चित जानकारी नहीं मिल पायी है। किन्तु ऐसा अनुमान किया जाता है कि सौर मण्डल में बाँधे गुथे ग्रह नक्षत्रों के असंतुलन का परिणाम है। जो भावी विभीषिकाओं की ओर संकेत करते हैं।

मानवी व्यक्तित्व भी श्रेष्ठ-शालीन एवं उपयोगी तभी बना रह सकता हैं जब वह समाज के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा रहे। परस्पर के सहयोग आदान-प्रदान की संतुलित रीति-नीति बनी रहे। पृथ्वी का संतुलन एवं उसका अस्तित्व उसके एकांगी प्रयास पर नहीं निर्भर है। दिखायी तो वह स्वावलम्बी पड़ती है, पर अंतर्ग्रही ही बंधनों में जकड़ी हुई है। अन्य ग्रहों से मिलने वाले अनुदानों तथा विक्षोभों का प्रभाव उसके ऊपर पड़ता है। उसी प्रकार मनुष्य भी समग्र समाज का एक अभिन्न घटक है। वह सारे समाज के सुख-दुःख का भागीदार है। समाज के प्रभावों से वह स्वयं भी नहीं बचा रह सकता। अंतर्ग्रही ही असंतुलनों का सुधार पाना परिवर्तित कर सकना तो मनुष्य के बलबूते अधिक संभव नहीं है, पर अपनी गतिविधियाँ ऐसी रख सकता है जिससे समाज एवं अदृश्य जगत में असंतुलन एवं विग्रह उत्पन्न न हो। अन्तर्ग्रही ही असंतुलन धरातल और प्राणि समुदाय को अस्त-व्यस्त और संव्यस्त करते हैं, उनके उदाहरण प्रकृति प्रकोपों के रूप में मिलते रहते हैं। सूक्ष्मदर्शी इसी प्रत्यक्ष में एक कड़ी और जोड़ते रहे हैं कि यदि मानवी चिन्तन में निकृष्टता और आचरण में भ्रष्टता बढ़ गई तो उसका परिणाम दृश्य संकटों और विग्रहों के रूप में तो होगा ही इससे अदृश्य अंतरिक्ष में भी ऐसी विभीषिकाएं उत्पन्न होंगी जो समस्त संसार के लिए दुःखद हों। साथ ही उन उद्धत लोगों को भी विनाश के गर्त में ले डूबें।


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