आत्म-विस्तार की प्रकृति प्रेरणा

April 1981

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प्रकृति ने अपने परिवार में भिन्न-भिन्न रुचि और प्रकृति के प्राणियों, जीव-जन्तुओं तथा वृक्ष-वनस्पतियों और जड़-पदार्थों को सम्मिलित किया है। ये सभी सदस्य एक नियम मर्यादा के अंतर्गत रहते हुये काम करते हैं, कहा जाना चाहिये कि प्रकृति ने कुछ नियम मर्यादाएं इस प्रकार निर्धारित की हैं, और सृष्टि संतुलन की दृष्टि से नितांत आवश्यक है, यह नियम केवल मनुष्यों के लिये ही नहीं वरन् अन्य प्राणियों के लिये भी बनाए गए हैं। यहाँ तक कि वृक्ष वनस्पतियों के लिये भी। और मनुष्य को छोड़ कर सभी कोई इन नियमों, मर्यादाओं का पालन करते हैं।

एक अकेला मनुष्य ही ऐसा है जो न जाने किस दर्प के वशीभूत होकर उनका उल्लंघन करता है तथा जब उसे इसका दण्ड मिलता है, तो रोता कलपता है। उदाहरण के लिये वृक्ष-वनस्पतियों को ही लिया जाय। जीवन क्रम सुविधा और साधन की दृष्टि से वे भले ही पिछड़े हों परन्तु नियमों के पालन में पूरी तरह तत्पर रहते हैं। मनुष्य में बुद्धि, धन, प्रतिभा और भावना आदि की सम्वेदनाएं ऐसी हैं जिन्हें उसके अस्तित्व का बीज कहा जाता है। इसी के आधार पर मनुष्य ऊँचा उठता और आगे बढ़ता है। बीज सड़ा गला हो तो उससे वंश वृद्धि न हो सकेगी। मनुष्य के गुण, कर्म स्वभाव की विभूतियाँ यदि स्वस्थ और समर्थ न हों तो कोई व्यक्ति प्रगति के पथ पर दूर तक अग्रसर नहीं हो सकेगा। ध्यानपूर्वक देखने से प्रतीत होगा कि मनुष्य की विभिन्न शारीरिक, मानसिक हलचलें इन बीत तत्वों को विकसित और परिष्कृत तथा पुष्ट करने से ही होती हैं। भौतिक और आत्मिक सम्पदाओं से अधिकाधिक मात्रा में संपन्न होने की अभिलाषा स्वाभाविक मानी जाती है। वह बनी रहती है और जाने अनजाने उसके लिये प्रयास भी चलते ही रहते हैं। वनस्पति जगत में भी यही प्रक्रिया अपने ढंग से चलती रहती, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि मनुष्यों में चलती है।

मनुष्य जीवन का लक्ष्य आत्म-विस्तार मान जाता है। अपना आपा बढ़े, व्यक्तित्व का विकास हो, आत्म-चेतना विकसित होकर सुदूर क्षेत्रों में फैले इसके लिये भाँति-भांति के प्रयास किये जाते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में विस्तार की यही प्रक्रिया आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ा कर सब में अपने को और अपने में सब को देखने वाला तत्व दर्शन हृदयंगम कराती है।

वनस्पति जगत में भी आत्म-विस्तार की यही बात लागू होती है। पौधे बढ़ते और विकसित होते हैं। अन्ततः उनकी प्रौढ़ता परिपक्व होकर फलवती होती है। तथा उन पर फल-फूल लगते हैं। यह फल-फूल मनुष्यों सहित अन्य प्राणियों के लिये आहार का काम देते हैं पर जहाँ तक वृक्ष के स्वयं के लिये इन फलों के उपयोग का प्रश्न है, वह उनकी बीत सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रहने के लिये उसे परिपुष्ट बनाने और सुविस्तृत बनाये रहने के उद्देश्य में ही सन्निहित देखी जा सकती है। वृक्ष परोपकार के लिये तो जीते ही हैं, फल फलवान बनते ही हैं, इसके अलावा उनके पीछे फलवान होकर अपनी सार्थकता सिद्ध होने का उद्देश्य भी रहता है।

फलों के भीतर गुदा भरा रहता है और गुदे के भीतर बीज होता हैं। गुदे में बीज एक ही स्थान पर इकट्ठे नहीं रहते वरन् दूर-दूर फासले पर होते हैं, इसी प्रकार पूरे वृक्ष पर न तो एक ही फल लगा होता है तथा न ही सभी फल एक ही स्थान पर लगे होते हैं। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था क्यों की? इस प्रश्न पर विचार करने से स्पष्ट होता है प्रगति के जो आधार प्रकृति ने मनुष्यों के लिये बनाये हैं, वैसे ही वृक्षों के लिये भी विनिर्मित किये गये हैं। गुदे का उद्देश्य है बीज को पोषण देना। गुदा बीज को पोषण देता है, उसे परिपुष्ट करता है और प्रौढ़ावस्था तक पहुँचता है। माता के गर्भ में जिस प्रकार भ्रूण पकता फलता है, उसी प्रकार फल के उदर में, बीच में बैठा हुआ बीज भी धीरे-धीरे पुष्ट और समर्थ होता चलता है।

एक वृक्ष में अनेकों फल लगते हैं और प्रत्येक फल में कई एक बीज होते हैं। यह सब इसलिए होता है कि उसकी सत्ता को अधिकाधिक विस्तार करने का अवसर मिले। वह सीमित दायरे में संकीर्णता की परिधि में आबद्ध रह कर ही अविकसित न रह जाय। मनुष्य को भी आत्म विस्तार के बिना न तो वास्तविक आत्म संतोष मिलता है तथा न ही उसे आत्म गौरव की अनुभूति होती है। जब मनुष्य को ही प्रकृति सीमित से असीम की ओर, अपूर्णता से पूर्णता की ओर, क्षुद्रता से महानता की ओर निरंतर बढ़ते रहने, प्रत्यक्ष करने के लिये प्रेरित करती रहती है तो वृक्ष वनस्पतियों के साथ ही पक्षपात क्यों करें?

सर्वविदित है कि प्रत्येक बीज में एक पूर्ण वृक्ष परिपूर्ण रूप से विद्यमान रहता है। प्रत्येक बीज अपने आप में एक वृक्ष के रूप में विकास करने की संभावना लिये रहता है। बीज जब-जब परिपुष्ट हो जाता है तो उसका उद्देश्य रहता है, उसी जाति के नये वृक्ष उत्पन्न करना। इसके साथ ही यह आवश्यक हो जाता है कि वह परिपुष्ट होने के बाद केवल समीपवर्ती क्षेत्र तक ही सीमित न रहे वरन् क्षेत्र का सीमा बंधन लाँघ कर, सुदूर क्षेत्रों तक अपनी सत्ता को सुविस्तृत बनाए। गुदे के भीतर सभी बीजों का एक ही स्थान पर इकट्ठे न रहने, दूर-दूर होने का यही उद्देश्य है कि उन्हें सुविस्तृत परिधि में विस्तार करने का अवसर मिले। गुदे में यदि सभी बीज एक ही स्थान पर चिपके रहे होते तो वे एक ही स्थान पर गिर कट या तो वहीं उगते अथवा उनमें से बहुत से नष्ट हो जाते। क्योंकि उस स्थिति में सभी को पर्याप्त खुराक नहीं मिल पाती और वे एक दूसरे की खुराक छीनते झपटते तथा ऐसे ही सूख कर, मुरझा कर समाप्त हो जाते।

प्रकृति प्रेरणा वृक्षों से फलों के द्वारा यही सब कुछ कराती है। उनके फलने और फलों के पकने साथ-साथ उनमें वितरण की चेष्टा भी उत्साहपूर्वक चलती है। गुदे में बीजों की अलग-अलग स्थिति का एक उद्देश्य वितरण में सुविधा भी है। गुदा तो खाने के काम आ जाता है परन्तु बीज प्रायः कड़े होते हैं, इसलिये उन्हें फेंक दिया जाता है। गुदा समाप्त हो जाने पर भी बीजों का अस्तित्व बना रहता है। यदि उन्हें पीस कर नहीं खाया गया है तो चबाने पर भी उनमें से अधिकांश साबुत बच जाते हैं। पेट में पहुँच जाने पर भी वे प्रायः नहीं ही पचते हैं। मल विसर्जन के समय वे मल के साथ निकल कर इधर-उधर छितराते, धक्के खाते और बढ़ते रहते हैं।

गुदे में पके हुये बीज विकसित होकर सुदूर क्षेत्रों में फैल सकें, इसके लिये प्रकृति ने अनेकों प्रकार की व्यवस्थाएं की हैं। प्राणियों द्वारा उनका खाया जाना और मल विसर्जन के साथ-साथ उनका दूर-दूर पहुँचना तो प्रत्यक्ष ही है। कई बीज फेंक दिये जाते हैं। बीजों का व्यवसाय भी होता है। अनाज की तरह अन्य बीज भी खरीदे बेचे जाते हैं और इस प्रकार भी वे यहाँ से वहाँ यात्रा करते रहते हैं। यह तो प्रचलित व्यवस्था हुई प्रकृति भी इस दिशा में भारी सहयोग प्रदान करती है और तरह-तरह के साधन जुटाती है, जिससे उत्पन्न हुई बीज सम्पदा किसी एक स्थान पर सीमित होकर न रह जाए वरन् उसे सुदूर लोगों में वितरित होने का अवसर मिले।

वनस्पति जगत हल्के बीजों की कमी नहीं है। हवा असंख्य बीजों को अपने साथ उड़ा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है। हवा में उड़ कर कहीं भी पहुँच जाने वाले बीजों की संख्या अगणित है। कुनैन जिस सिमकोना पौधे से बनती है, उसके बीज इतने हल्के होते हैं कि एक औंस (लगभग 29 ग्राम) में 70 हजार तोले जा सकते हैं। आर्किडो के बीज भी तो इससे भी हल्के होते हैं और उनकी बनावट भी पक्षी के परों की तरह होती है। हल्केपन और बनावट दोनों विशेषताओं के कारण वे हवा के साथ आसानी से उड़ते चले जाते हैं और हवा उन्हें कहीं का कहीं ले जाकर फेंक देती है। आक के बीज में तो इतने अधिक कोमल और बारीक रेशे निकले होते हैं कि वह मंद वायु प्रवाह में भी कहीं से कहीं उड़कर पहुँच जाते हैं। इसी प्रकार कुछ और बड़े भारी बीजों में सूर्यमुखी, डेडिलियोन, सीमा, बेलकुन, आक, सेसर, सरकण्डा आदि के बीज ऐसे हैं जो पैराशूट की तरह बने होते हैं तथा हवा का तनिक-सा सहारा पा कर लम्बी उड़ान लगते हैं। उन्हें नीचे उतरने और ऊपर चढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होती।

ब्लड फ्लावर, करची, व्यूमोनशिया, चाटियम जैसे पौधों के बीज भी रेशेदार होते हैं, जिनके कारण उनकी आयु यात्रा बड़ी सरल बन जाती है। अरलू, पराल, सहजन, चीड़ के बीजों की बनावट भी पक्षियों के परों जैसी होती है। वे इच्छा से या स्वयं नहीं उड़ पाते पर हवा उन्हें उड़ा कर ले जाती है और कहीं का कहीं छोड़ देती है।

कुछ वृक्षों के तो फल ही उड़ाकू होते हैं। वे अपने बीज परिवार को साथ लेकर ही उड़ान पर निकल जाते हैं तथा क्षेत्र विस्तार कर लेते हैं, ऐसे उड़ने वाले फलों में होलोक, मधुलता जमीकन्द, होपियामेपल, फ्रेक्सीनस, डिपटीरोकामस, साल आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें से एथेलस की बनावट हवाई जहाज जैसी है। लगता है इसी फल को देख कर हवाई जहाज के डिजाइन की कल्पना की गई होगी। आँधियाँ जब चलती हैं, तब ये फल अपने बीजों के साथ उड़ जाते हैं और सुदूर स्थानों पर पहुँच जाते हैं, जड़ी बूटियाँ भी प्रायः इसी प्रकार हवा में उड़ती हुई जहाँ-तहाँ पहुँचती हैं।

इसके अतिरिक्त बहुत से बीज जानवरों के शरीर से चिपक कर अपनी यात्रा पूर्ण कर लेते हैं। पानी में उगने वाले बीजों को लहरें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती हैं। ये बीज हल्के और हवा से भरे हुये स्पंज की तरह होते हैं। इस कारण वे लहरों पर आसानी से तैर लेते हैं। नदियों और समुद्रों के तटों पर उगे हुये पेड़, पौधे भी अपने बीज, जल की लहरों के माध्यम से ही जहाँ तहाँ पहुँचाते हैं।

कई फल ऐसे होते हैं जिनके छिलके बहुत कड़े होते हैं। पक जाने और सूख जाने पर भी वे बीजों को बाहर नहीं निकलने देते। इस स्थिति में बीज भीतर से विद्रोह जैसी प्रतिक्रिया करता है और छिलका एक विस्फोट की तरह फटता है। इस प्रक्रिया में बीज उछल कर बाहर निकल जाते हैं। गुल मेंहदी, बुडरेसिल, नाइट जेसमिन, कालमेध, अरण्ड, बज्रदंती, कंचनलता, पलान्स आदि फलों के बीज इसी प्रकार अपने फलों के आवरण से मुक्त होते हैं।

गिलहरी, चूहे, चींटियां और इसी तरह के कुछ जन्तु तथा कीड़े जहाँ-तहाँ पहुँच जाते हैं। इस संग्रह को वे बिलों में जमा करते हैं। फिर इन्हीं में से कुछ बीज अस्त-व्यस्त हो कर जहां-तहां पहुंच जाते हैं। पक्षियों के पैरों में चिपकी मिट्टी के साथ अथवा उनकी बीट के माध्यम से भी अनेक वनस्पतियाँ तथा वृक्ष लम्बी यात्रायें करते हुये पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच जाते हैं। कुछ बीज ऐसे होते हैं जो हवा, पानी, मनुष्य आदि की सहायता न पाने पर स्वयं ही अपनी प्रकृति प्रेरणा से आत्मविस्तार का रास्ता अपने बलबूते पर बनाते हैं। और जिस-तिस प्राणी के शरीर से चिपट कर कहीं के कहीं पहुँच जाते हैं। लटजीरा, गोखरू, बन-औखरा, चारेकांटा, बुइया ठीकरी, चित्रक आदि के फल अथवा बीज अपने कांटों के साथ पशु पक्षियों के शरीर एवं मनुष्यों के कपड़ों को पकड़ लेते हैं और उनके सहारे कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं।

इस प्रकार प्रकृति ने वृक्ष वनस्पतियों को अपना आपा विस्तृत करने की न केवल प्रेरणा दी है, वरन् उसके लिये आवश्यक साधन सुविधायें भी जुटाई हैं। मनुष्य के लिए भी उसका संदेश अपना आपा व्यापक बनाना है। व्यक्तिवाद की संकीर्ण स्वार्थपरता के निरस्त करके लोकहित की जन-कल्याण की सत्प्रवृत्तियों में अपनी विभूतियों को समर्पित करके ही मनुष्य अपना जीवन सफल और सार्थक बना सकता है।


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