महाकाल का गतिचक्र और अनुशासन

April 1981

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समयानुसार हर काम को नियत नियमित रूप से करना- यह ऐसा अनुशासन है जिसे पालन करने से ही प्राणियों की जीवनचर्या व्यवस्थित रूप में चलती है। जो इसमें व्यतिरेक करते हैं, प्रकृति के शासन में अराजकता उत्पन्न करने की घृष्टता करते हैं, वह अपराधियों की तरह दण्डित होते रहते हैं।

ग्रह-नक्षत्रों की अपनी गति, दिशा, परिधि और विधि-व्यवस्था है। जब तक वह निर्धारण ठीक चलता है उनका अस्तित्व बना रहता है। जैसे ही पदार्थ जगत का कोई घटक अथवा प्राणी जगत का जीवधारी व्यतिरेक क करने की घृष्टता करता है वैसे ही उसे अनुशासन हीनता का दण्ड भुगतना पड़ता है।

इन अनुशासनों में समय का परिपालन एक ऐसा अंकुश है जिसे स्वीकारने में ही खैर है। नियमितता का अर्थ है हर काम को यथा समय बिना किसी आलस्य, प्रमाद अपनाये सम्पन्न करना। इसी आधार पर समस्त सृष्टि का क्रम चल रहा है। प्रकृति ने इस परिपालन के लिए हर किसी को एक ऐसी घड़ी दी है जिसके सहारे उसे न केवल समय का सही-सही ज्ञान होता रहे, वरन् ठीक समय पर ठीक काम करने की प्रेरणा भी उठती रहे।

जीवधारी इसी आधार पर अपनी सुनियोजित जीवनचर्या चलाते हैं। हर प्राणी की काया भी अपने नित्यकर्म एवं प्रवाह निर्धारण में इसी प्रकाश का अवलम्बन किये करती है। उसकी स्थिरता एवं प्रगति का यही प्रधान आधार होता है। व्यतिक्रम जहाँ भी- जिस अनुपात में भी प्रस्तुत होता है, वहाँ उसी परिमाण में विग्रह एवं संकट सामने आ खड़ा होता है। काल चक्र का अनुगमन नियमितता का परिपालन किसी प्रकार इस समूची सृष्टि व्यवस्था के अन्तराल में चल रहा है और प्राणि वर्ग किसी प्रकार उस अनुबन्ध का शिरोधार्य करके चल रहा है। यह दृष्टव्य है।

घड़ियां तो आपने कई प्रकार की सुनी होंगी। बहुत से लोग धूप और तारों की स्थिति देखकर समय का अंदाजा लगाते हैं। ठीक है मनुष्य के पास बुद्धि है, वह सोच सकता है। आजकल तो बिना घड़ी के आपका काम ही नहीं चल सकता, समय का ठीक-ठीक हिसाब रखने के लिए मनुष्य घड़ियों का निर्माण और उसमें सुधार करता रहा है। आज उसके पास ऐसी घड़ियां हैं जो लाखों साल में भी एकाध सेकेंड से अधिक की गलती नहीं करतीं, परन्तु पेड़, पौधे और अन्य जीवधारी कैसे समय का हिसाब रखते हैं और उन्हें यह कैसे पता लगता है कि अब दिन का कौन-सा समय है इसका उतर जानने के लिए बहुत से जैव वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे हैं।

यह सर्वविदित है कि कुछ जीवधारी राज की अपेक्षा दिन में अधिक क्रियाशील होते हैं। सत्य तो यह है कि संभवतः ऐसा कोई भी पौधा अथवा जीवधारी नहीं होगा जिसके जीवन का कार्यक्रम एकदम घड़ी की सुइयों के समान न होता हो।

समझा जाता है कि जीवित पदार्थों की प्रतिदिन के कार्यक्रम की लयबद्धता वातावरण के सीधे जीवाणुओं पर प्रभाव डालने के कारण होती होगी। एक मान्यता यह भी है कि तापक्रम अधिकांश जैविक प्रक्रियाओं की गति को प्रभावित करता है। यह सोचना असंगत नहीं होगा कि दिन और रात्रि के चक्र भी जीवाणुओं की क्रियाशीलता में विविधता लाते हैं।

बात इतने तक ही सीमित नहीं है कि गहन अनुसंधान इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि जीवाणुओं, पशु तथा पौधों में निश्चित रूप में एक जैविक घड़ी पायी जाती है। जैविक घड़ी कुछ इस प्रकार की वस्तु है जो जीवधारियों तथा पौधों में निहित होती है। इस घड़ी द्वारा जीव-जन्तु अपने वातावरण के तालबद्ध परिवर्तन को पूर्वाभासित कर लेते हैं तथा उसी के अनुसार अपने को ढाल लेते हैं।

यह बात तो हम अपने अनुभव से भी जानते हैं कि समय की गतिविधि का ज्ञान आन्तरिक संवेदना से ही जाना जाता है, न कि सुई वाली घड़ी से। समयानुसार ही शरीर की क्रियात्मक विधियों में परिवर्तन होते हैं। हमारी नाड़ी की गति गुर्दों की क्रिया, शरीर का तापक्रम यह सब एक दैनिक लयबद्धता दर्शित करती है। यह लयबद्धता किसी भी तरह से हमारे वातावरण के परिवर्तन की सहज क्रिया नहीं है।

जैविक घड़ियों का अध्ययन निम्न जाति के जन्तुओं में अधिक सरलता से किया जा सकता है, यह अनुसंधान इन दिनों संसार की कई प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है।

फल मक्खी अपना जीवन एक सूडी के रूप में प्रारम्भ में करती है इसके उपरान्त कोष विकसित होता है, तदुपरान्त पूर्ण फल मक्खी बन जाती है, सामान्यतः मधुमक्खियाँ कोष से पूर्ण मक्खी प्रातः काल में बनती है।

वास्तव में यह है भी आवश्यक, क्योंकि नवजात फल मक्खी का बाह्य चर्म बहुत ही मुलायम होता है। जिससे पानी जल्दी ही वाष्पित होकर उड़ सकता है और बाह्य चर्म बड़ी ही जल्दी कठोर हो जाता है। पर यदि फल मक्खी दोपहर में जन्म ले तो उसके बाह्य चर्म कठोर होने से पहले ही पानी में उड़ जायेगा क्योंकि दोपहर के समय नमी कम और गर्मी ज्यादा होती है, इसके अलावा हवा में नमी की कमी के कारण उसके पंख भी भली प्रकार से नहीं फैल पायेंगे। अतः कोष प्रातःकाल जो औसतन दिन का सबसे आंद्र एवं ठण्डा समय होता है कि समय परिपक्व होकर निकलते हैं। यह यथासमय उत्पत्ति जैविक घड़ी द्वारा ही संचालित होती है।

यह तो जैविक घड़ी का एक ही उदाहरण है, परन्तु अन्य सभी प्रमाण एक ही निष्कर्ष की ओर संकेत करते हैं। व्यवहारिक रूप से सभी मुख्य समूहों के जीवाणुओं में यह जैविक घड़ियाँ किसी न किसी रूप में पाई जाती हैं। और सभी प्रकार की क्रियाओं का नियंत्रण करती हैं। इस भू-मण्डल पर जिन जीवित जन्तुओं का विकास होता है तथा उनके प्रत्युत्तर में वे अपने जीवन क्रम को वातावरण के अनुरूप ढालने में प्रयत्नशील होते हैं। अगर वे इस प्रकार न करें तो वातावरण उनको विषम परिस्थितियों में ढालकर झकझोर दे और तोड़-मोड़ कर रख दे।

द केस फोर एस्ट्रालॉजी में अनेकों वैज्ञानिक उद्धरण पृथ्वी के वातावरण, जीवों, वृक्ष, वनस्पतियों पर ग्रह-नक्षत्रों के पड़ने के दिए हुए हैं। प्राणी जीवन की एक घड़ी होती है। जिससे वायोलॉजिकल कहते हैं। इस घड़ी का सूर्य चन्द्रमा आदि ग्रहों के प्रभाव होने का पता चलता है। वैज्ञानिक ए. ब्राउन ने सिद्ध किया है कि मटर के दाने, आलू चूहे, केकड़े, सीपियाँ सभी की भीतरी घड़िया सूरज और चन्द्रमा की स्थिति से प्रभावित होती हैं। इन प्रभावों का रोशनी से कोई संबंध नहीं है। यदि इन जीवों को अंधेरे में बंद कर दें तब भी सूर्य और चन्द्र की गति के अनुसार उनका क्रम चलता रहेगा। पड़वा के चाँद में गतिविधि सर्वाधिक शिथिल और पूर्णिमा के चाँद में सबसे अधिक सक्रिय होती है। ब्राउन ने समुद्र से हजारों मील दूर अंधेरे में रखकर दिखाया कि वहाँ भी चन्द्रमा की स्थिति के अनुरूप ही सीपियाँ खुलती बंद होती हैं।

फ्रीवर्ग यूनिवर्सिटी के डा. ई. एफ.आर. ने वर्वलर नामक से छोटे पक्षी का अध्ययन किया। ये पक्षी ग्रीष्म ऋतु के अंत में दक्षिण दिशा से होते हुए यूरोप से अफ्रीका की यात्रा करते हैं। एक रात में सौ-सौ मील की यात्रा करते हैं। बसंत में उत्तर की ओर यात्रा करते तथा वहीं अंडे देते एवं सेते हैं। अगले ग्रीष्म में बच्चों सहित शीतकाल अफ्रीका में बिताने के लिए निकल पड़ते हैं। डा. सौर ने कुछ अंडों को ध्वनि निरोधी कक्षा में सेकर उनसे निकले बच्चों को वहीं एक कमरे में बन्द रखा तथा आहार देते रहे। पूरे वर्ष उन्हें गर्मी उसी प्रकार मिलती रही जैसे कि वे अफ्रीका में रह रहे हों किन्तु जैसे ही हेमन्त ऋतु आयी, कमरे में बंद पक्षी बेचैन हो उठे, बाहर निकलने के लिए फड़फड़ाने लगे। उनकी विचित्र गतिविधियाँ तब जाकर रुकीं जब वे अफ्रीका पहुँच गए। पुनः बसंत आने पर पुनः वापस लौटने के लिए पक्षी बेचैन हो उठे। यह बात का प्रतीक है कि पक्षियों में मौसम एवं स्थान की जानकारी बाह्य वातावरण से नहीं उनकी अंतःसंरचना के आधार पर प्राप्त होती है।

उत्तरी ध्रुव में पैदा होने वाले ‘टर्न’ पक्षी भी छः हफ्ते के होते ही 11000 मील की यात्रा पूरी करके दक्षिणी ध्रुव पर पहुँच जाते हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में जब दिन छोटे होने लगते हैं तो पुनः वापिस उत्तरी ध्रुव पर पहुँच जाते हैं। साइबेरिया से भी हजारों पक्षी भारत जाड़े में आते हैं।

प्रवासी पक्षी विशाल भूखण्डों, पर्वतों एवं सागरों के ऊपर उड़ते हुए बिना किसी दिशासूचक यंत्र मानचित्र या पथ-प्रदर्शक की सहायता से अपनी यात्रा करते हैं। कुछ पक्षी केवल दिन में, कुछ केवल रात्रि में और बहुत से दोनों समय यात्रा करते हैं।

फलडरक्रैव नामक केकड़ा जो अपने पंजे वायलिन की तरह उठाए रहते हैं। प्रत्येक सुबह सूरज निकलते ही केकड़े की त्वचा श्यामल होने लगती है। दोपहर तक त्वचा काली हो जाती है, शाम होते ही त्वचा का रंग उड़ने लगता है। बंद अंधेरे कमरे में भी रखा गया तो देखा गया कि बिना सूर्य की रोशनी के प्रभाव के भी उसी प्रकार के परिवर्तन होते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि सूर्य की गति को जानने का कोई विशिष्ट यंत्र इन छोटे जीवधारियों में होता है। जो धूप, छांव या अन्य किसी मनुष्य द्वारा निर्मित घड़ी की बिना सहायता के ही अपना नियमित क्रिया-कलाप विधिवत यथासमय चलाते रहते हैं।

करोड़ों वर्षों से प्राणियों की जीवन संचार प्रक्रिया एक क्रमबद्ध, तालबद्ध, विधि-व्यवस्था के साथ जुड़ी चली आ रही है और नियति के अनुशासन का विधिवत् पालन करते हुए अपना निर्वाह क्रम बनाये रख रही है। यह अनुशासन धरती की चुम्बक शक्ति का है या सूर्य की ताप ऊर्जा का अथवा प्राणियों की स्वतंत्र चेतना का? यह अभी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। हो सकता है इस व्यवस्था में उपरोक्त तीनों ही तथ्यों का समन्वय समावेश हो।

कालचक्र के अंतर्गत इस सृष्टि का संचालन एवं नियमन करने वाली अदृश्य शक्ति को ‘महा काल’ कहा गया है। उसकी इच्छा और व्यवस्था यही है कि हर किसी को मर्यादा में चलना चाहिए और समय संबंधी नियमितता का सतर्कतापूर्वक परिपालन करना चाहिए। समय के प्रत्येक क्षण को जीवन सम्पदा का अति महत्वपूर्ण घटक मानने और उसकी एक-एक घड़ी का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने वाले ही काल जनी बने हैं। सफलताओं ने उन्हीं के चरण चूमे हैं। नियति के अजस्र अनुदान पाने के अधिकारी भी वे रहे हैं। समय के साथ खिलवाड़ करने वाले ही पतनोन्मुख परिस्थितियों में पड़े रहते हैं, और वे ही हाथ मलते, सिर धुनते देखे जाते हैं।


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